साल 2015 में यह 10 बीमारियां रहीं प्रमुख

अच्छे स्वास्थ्य को धन से ज्यादा महत्वपूर्ण समझा जाता है, परंतु इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि विकासशील और अविकसित देशों में धन की कमी से बीमारियों का प्रकोप और भयावहता और अधिक बढ़ जाती है। साल-दर-साल इंसानी शरीर को घेरने वाली बीमारियों के प्रकोप में कभी कमी आती है, तो कभी उनका अस्तित्व ही खत्म हो जाता है। 
 
हर वर्ष की तरह इस वर्ष 2015 में भी कुछ बीमारियों के प्रकोप ने भारत जैसे विकासशील देश को अपनी गिरफ्त में लिया। आइए जानते हैं 10 ऐसी बीमारियां, जो 2015 में भारतीयों के स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा बनीं। 
 
वर्ष 2015 में देश के नागरिकों की सेहत पर नजर डालें तो सर्वाधिक 1. स्वाइन फ्लू, 2. डेंगू, 3. कैंसर, 4. हृदय रोग, 5. रक्तचाप, 6. डायबिटीज, 7. मलेरिया, 8. डिप्रेशन, 9. मोटापा व 10. ऑस्ट‍ियोपोरोसिस जैसी बीमारियों के शिकार पाए गए।

1. स्वाइन फ्लू : 2015 में कुछ समय के लिए स्वाइन फ्लू का प्रकोप इतना अधि‍क रहा कि हर आम इंसान उससे बचने के लिए प्रयास करता रहा। स्वाइन फ्लू नामक बीमारी ने साल 2015 की शुरुआत में ही अपने पैर पसारकर कई लोगों को अपनी चपेट में लिया। सालभर में राजस्थान, महाराष्ट्र और यूपी में इस बीमारी ने सबसे अधि‍क लोगों को अपना शि‍कार बनाया।
 
यह बीमारी सूअरों से फैलने वाले एच1एन1 वायरस के मानव शरीर के संपर्क में आने से होती है लेकिन यह बीमारी सूअर का मांस खाने वाले लोगों को नहीं होती, क्योंकि मांस को पकाकर खाया जाता है जिससे वायरस खत्म हो जाता है। 
 
स्वाइन फ्लू के लक्षण भी सामान्य एन्फ्लूएंजा के लक्षणों की तरह ही होते हैं। इनमें बुखार, तेज ठंड लगना, गला खराब हो जाना, मांसपेशियों में दर्द होना, तेज सिरदर्द होना, खांसी आना, कमजोरी महसूस करना आदि लक्षण शामिल हैं, जो इस बीमारी के दौरान उभरते हैं। इस साल इंसानों में जो स्वाइन फ्लू का संक्रमण हुआ है, वह 3 अलग-अलग तरह के वायरसों के सम्मिश्रण से उपजा है। फिलहाल इस वायरस के उद्गम अज्ञात हैं।
 
वर्ल्ड ऑर्गनाइजेशन फॉर एनिमल हेल्थ ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि यह वायरस अब केवल सूअरों तक सीमित नहीं है, इसने इंसानों के बीच फैलने की कूवत हासिल कर ली है। एन्फ्लूएंजा वायरस की खासियत यह है कि यह लगातार अपना स्वरूप बदलता रहता है। इसकी वजह से यह उन एंटीबॉडीज को भी छका देता है, जो पहली बार हुए एन्फ्लूएंजा के दौरान विकसित हुई थीं। इसके कारण इस बीमारी का इलाज भी उतना ही जटि‍ल हो जाता है। यही वजह है कि एन्फ्लूएंजा के वैक्सीन का भी इस वायरस पर असर नहीं होता।
 
स्वाइन फ्लू से बचने के लिए कुछ सावधानियां रखना बेहद जरूरी हैं, जो संक्रमण के दौरान भी रखी जानी चाहिए। बार-बार साबुन से हाथ धोना, नाक और मुंह पर मॉस्क पहनना और ऐसे सार्वजनिक स्थानों पर जाने से बचना, जहां एच1एन1 वायरस के फैलने की आशंका अधि‍क हो, जरूरी है।

2. डेंगू : डेंगू के लिए वर्ल्ड स्तर पर जागरूकता लाने के लिए कोई दिवस नहीं मनाया जाता, परंतु समस्त एशिया में 15 जून को डेंगू दिवस के रूप में मनाया जाता है। डेंगू जिसे बैकबोन फीवर के नाम से भी जाना जाता है, मच्छर में पैदा होने वाला एक रोग है, जो डेंगू वायरस के कारण होता है। इसे फैलाने का कार्य ऐडीज मच्छर की विभिन्न प्रजातियों द्वारा किया जाता है। 
 
इसके लक्षणों में बुखार, सिरदर्द, मांसपेशियों और जोड़ों में दर्द के अलावा त्वचा में लाल रंग के रेशेज निशान होना शामिल हैं। कुछ मामलों में यह घातक डेंगू रक्तस्रावी बुखार में तब्दील हो जाता है जिससे खून बहना, खून में ब्लड प्लेटलेट्स के स्तर में कमी आना, ब्लड प्लाज्मा में रिसाव और डेंगू शॉक सिंड्रोम जिसमें रक्तचाप बहुत कम हो जाने जैसे लक्षण सामने आते हैं। 
 
इस बीमारी के लिए कोई टीका उपलब्ध नहीं है और मच्छर के काटने से बचना- इसके प्रकोप से बचने के उपायों में शामिल है। डेंगू के शुरुआती स्तर पर नमक, चीनी के घोल को पीना या अन्य किसी तरीके से शरीर में पहुंचाना शामिल है। डेंगू के गंभीर मामलों में तरल पदार्थों और खून की बोतल चढ़ाना शामिल है। 
 
सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में हर साल डेंगू के 20,500 मामले सामने आते हैं, परंतु एक रिपोर्ट के अनुसार वास्तविक आंकड़े सरकारी आंकड़ों से 300 गुना अधिक हैं। इस रिपोर्ट के हिसाब से भारत में हर साल करीब 5.8 मिलियन लोग डेंगू की गिरफ्त में होते हैं। भारत में विश्व के अन्य किसी देश के मुकाबले डेंगू के सबसे ज्यादा मरीज होते हैं।

3. कैंसर : पूरे विश्व में 4 फरवरी को कैंसर दिवस के रूप में मनाया जाता है। कैंसर को मैलिग्नैंट ट्यूमर या मैलिग्नैंट नियोप्लाज्म के नामों से भी जाना जाता है। कैंसर कई बीमारियों का एक समूह होता है जिसमें शरीर में मौजूद सेल्स में असामान्य वृद्धि होने लगती है, जो शरीर के अन्य अंगों में फैल जाती है। सभी ट्यूमर कैंसर ट्यूमर नहीं होते हैं। कैंसर 100 से ज्यादा प्रकार का होता है। भारत में पुरुषों में ज्यादातर मामले मुख और फेफड़ों के होते हैं, वहीं दूसरीं ओर ज्यादातर कैंसर रोगी महिलाएं स्तन कैंसर और गर्भाशय कैंसर से ग्रसित होती हैं। 
 
शरीर के किसी हिस्से में उभार, असामान्य रक्त बहना, लंबे समय तक चलने वाली खांसी, अचानक वजन कम हो जाना और मल निकासी में बदलाव आना कैंसर के लक्षणों में शामिल हैं। कैंसर का सामान्य तौर पर अंदाजा कुछ लक्षणों से लगाया जा सकता है। इसके पता लगाने की प्रक्रिया में स्क्रीनिंग टेस्ट, मेडिकल इमेजिंग और बॉयोप्सी शामिल हैं। 
 
तंबाकू सेवन को कैंसर से होने वाली करीब 22 प्रतिशत मौतों के लिए जिम्मेदार समझा जाता है। अगली 10 प्रतिशत मौतों के लिए मोटापा कारण माना जाता है। इंफेक्शन, आयोनाइजिंग रेडिएशन और पर्यावरण प्रदूषण से भी कैंसर होने का खतरा होता है। भारत जैसे विकासशील देश में करीब 20 प्रतिशत कैंसर के मामले इंफेक्शंस जैसे हेपेटाइटिस B, हेपेटाइटिस C और इम्यून पैपिलोमा वायरस की वजह से होते हैं। फैमेली हिस्ट्री को करीब 5 से 10 प्रतिशत मामलों के लिए जिम्मेदार माना जाता है। 
 
एक सही जीवनशैली जिसमें नशा न करना, वजन पर नियंत्रण, शराब पर नियंत्रण, सब्जियों, फलों और साबुत अनाज का भरपूर उपयोग, कुछ प्रकार के इंफेक्शंस के टीके लगवाकर और सूर्य की हानिकारक किरणों से अपना बचाव करके कैंसर के खतरों से बचा जा सकता है। 
 
कैंसर के इलाज में रेडिएशन थैरेपी, सर्जरी, कीमोथैरेपी और टारगेटेड थैरेपी शामिल हैं। पैलियेटिव (palliative) केअर एडंवास स्टेज में पहुंच चुके मरीजों के लिए महत्वपूर्ण होती है। कैंसर के मरीज के बचने की संभावना कैंसर के प्रकार पर निर्भर करती है। 
 
भारत में हर वर्ष कैंसर के लाखों नए मामले सामने आ जाते हैं। यह बीमारी भारत को अपनी गिरफ्त में लेती हुई प्रतीत होती है। विशेषज्ञों के अनुसार साल 2025 तक कैंसर के मामलों में 5 गुना तक वृद्धि दर्ज होने की संभावना है। भारत में हर साल करीब 5 लाख लोग कैंसर से मर जाते हैं। WHO के अनुसार यह संख्या साल 2015 में करीब 2 लाख मरीजों की वृद्धि दर्ज करेगी।

4. हृदय रोग : 29 सितंबर को विश्व हृदय दिवस मनाया जाता है। हृदय रोग शरीर के एक अंग पर प्रभाव न डालते हुए एक पूरे सिस्टम जिसे कार्डियोवैस्कुलर सिस्टम कहा जाता है (हृदय, रक्त कोशिकाएं, धमनियों, कोशिकाओं और नसों) को अपनी चपेट में लेता है। इस सिस्टम में उपजी किसी भी तरह की समस्या शरीर में रक्त प्रवाह को बाधित कर देती है।
 
हृदय रोग के लिए कुछ खास कारण जैसे उम्र, लिंग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, तंबाकू, धूम्रपान, अत्यधिक मात्रा में शराब का सेवन, प्रोसेस्ड मीट, अत्यधिक शुगर का उपयोग, मोटापा, शारीरिक गतिविधियों में कमी, पारिवारिक पृष्ठभूमि और वायु प्रदूषण को जिम्मेदार माना जाता है। उम्र, लिंग या पारिवारिक पृष्ठभूमि कुछ ऐसे कारण हैं, जो प्राकृतिक हैं, परंतु बाकी सभी कारण जीवनशैली में बदलाव और सामाजिक बदलाव द्वारा जनित माने जाते हैं।
 
सीने में अजीब-सी बेचैनी, चिंता, खांसी या सांस लेने में आवाज आना, हल्के सिरदर्द या बेहोशी, कमजोरी महसूस होना खासकर महिलाओं में, भूख न लगना और उल्टी जैसा लगना, शरीर के दूसरे अंगों में दर्द होना, नाड़ी की गति बढ़ना या अनियमित हो जाना, अत्यधिक कम शारीरिक श्रम करने पर सांस भर जाना, ठंडा पसीना आना, पैरों या टांगों या पेट में सूजन आना और बहुत ज्यादा कमजोरी महसूस होना हृदय रोग के लक्षण हैं। 
 
भारत की कुल 1.27 मिलियन जनसंख्या में से 45 मिलियन लोग हृदय रोगों से ग्रसित हैं। हृदय रोगों में कॉरोनरी हार्ट डिसीज (CHD) सबसे अधिक व्यक्तियों को अपना शिकार बनाती है। साल 2020 के आने तक भारत में होने वाली कुल मौतों की एक-तिहाई CHD की वजह से होंगी। साल 2030 तक भारत में 35.9 प्रतिशत लोगों की मौत की वजह हृदय रोग ही होंगे। 

5. रक्तचाप : पिछले कुछ सालों में उच्च एवं निम्न रक्तचाप के मरीजों की संख्या में काफी इजाफा हुआ है। यही कारण है कि साल 2015 में भी रक्तचाप की समस्या से कई लोग प्रभावित हुए। रक्तचाप या ब्लड प्रेशर रक्त वाहिनियों में बहते रक्त द्वारा वाहिनियों की दीवारों पर डाले गए दबाव को कहते हैं। धमनी वह नलिका होती है, जो रक्त को हृदय से शरीर के विभिन्न हिस्सों तक ले जाती हैं।
 
दो प्रकार की रक्तचाप संबंधी समस्याएं देखने में आती हैं- एक निम्न रक्तचाप और दूसरा उच्च रक्तचाप।
 
निम्न रक्तचाप 
निम्न रक्तचाप वह दाब है जिससे धमनियों और नसों में रक्त का प्रवाह कम होने के लक्षण या संकेत दिखाई देते हैं। जब रक्त का प्रवाह काफी कम होता है तो मस्तिष्क, हृदय तथा गुर्दे जैसी महत्वपूर्ण इंद्रियों में ऑक्सीजन और पौष्टिक पदार्थ नहीं पहुंच पाते। इससे ये अंग सामान्य कामकाज नहीं कर पाते और स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त होने की आशंका बढ़ जाती है। 
 
उच्च रक्तचाप के विपरीत निम्न रक्तचाप की पहचान लक्षण और संकेतों से होती है, न कि विशिष्ट दाब के आधार पर। किसी मरीज का रक्तचाप 90/50 होता है लेकिन उसमें निम्न रक्तचाप के कोई लक्षण दिखाई नहीं पड़ते हैं। यदि किसी को निम्न रक्तचाप के कारण चक्कर आता हो या मितली आती हो या खड़े होने पर बेहोश होकर गिर पड़ता हो तो उसे आर्थोस्टेटिक उच्च रक्तचाप कहते हैं। 
 
खड़े होने पर निम्न रक्तचाप के कारण होने वाले प्रभाव को सामान्य व्यक्ति जल्द ही काबू कर लेता है, लेकिन जब पर्याप्त रक्तचाप के कारण चक्रीय धमनी में रक्त की आपूर्ति नहीं होती है तो व्यक्ति को सीने में दर्द हो सकता है या दिल का दौरा पड़ सकता है। जब गुर्दों में अपर्याप्त मात्रा में खून की आपूर्ति होती है तो गुर्दे शरीर से यूरिया और क्रिएटिनिन जैसे अपशिष्टों को निकाल नहीं पाते जिससे रक्त में इनकी मात्रा अधिक हो जाती है। 

उच्च रक्तचाप 
जब मरीज का रक्तचाप 130/80 से ऊपर हो तो उसे उच्च रक्तचाप या हाइपरटेंशन कहते हैं। इसका अर्थ है कि धमनियों में उच्च तनाव है। उच्च रक्तचाप का अर्थ यह नहीं है कि अत्यधिक भावनात्मक तनाव हो। भावनात्मक तनाव व दबाव अस्थायी तौर पर रक्त के दाब को बढ़ा देते हैं।


सामान्यतः रक्तचाप 120/80 से कम होना चाहिए। इसके बाद 139/89 के बीच का रक्त का दबाव प्री-हाइपरटेंशन कहलाता है और 140/90 या उससे अधिक का रक्तचाप उच्च समझा जाता है। उच्च रक्तचाप से हृदय रोग, गुर्दे की बीमारी, धमनियों का सख्त होना, आंखें खराब होने और मस्तिष्क खराब होने का जोखिम बढ़ जाता है। 
 
चक्कर आना, लगातार सिरदर्द होना, सांस लेने में तकलीफ, नींद न आना, कम मेहनत करने पर सांस फूलना, नाक से खून आना आदि‍ समस्याएं रक्तचाप के महत्वपूर्ण लक्षणों में शामिल हैं। 

6. डायबिटीज : सन् 2014 की तरह ही 2015 में भी डायबिटीज या मधुमेह भी एक बड़ा रोग बनकर उभरा। डायबिटीज के लिए दिवस मनाने हेतु पूरे विश्व में 14 नवंबर को चुना गया है। मधुमेह मेटाबॉलिक बीमारियों का एक समूह होता है जिसमें रक्त में शर्करा की मात्रा ज्यादा हो जाती है। डायबिटीज एक मेटाबॉलिक बीमारी है। डायबिटीज होने के 2 कारणों में पेनक्रियाज द्वारा जरूरी मात्रा में इंसुलिन न बना पाना या शरीर में मौजूद सेल्स बनने वाले इंसुलिन का उपयोग करने में असमर्थ हो जाते हैं। डायबिटीज 3 प्रकार की होती हैं- 
 
1. Type-1 : इसमें शरीर में जरूरी मात्रा में इंसुलिन बनना बंद हो जाता है। इसका कारण अज्ञात है। 
 
2. Type-2 : इसमें पेनक्रियाज द्वारा इंसुलिन का उत्पादन सही मात्रा में किया जाता है लेकिन शरीर में मौजूद सेल्स इस इंसुलिन का उपयोग नहीं कर पाते। टाइप-2 डायबिटीज के लिए ज्यादा वजन और व्यायाम की कमी को प्रमुख कारण समझा जाता है।
 
3. गेस्टेशनल : यह केवल गर्भवती महिलाओं में ही पाया जाता है जिसमें मधुमेह से संबंधित किसी भी प्रकार की समस्या या पारिवारिक पृष्ठभूमि के न होने पर भी रक्त में ग्लूकोज का स्तर बढ़ जाता है। 
 
इसका सही उपचार न किए जाने पर मरीज कोमा में भी जा सकता है साथ ही साथ हृदय रोग, हार्ट अटैक, पैर में अल्सर और आंखों की रोशनी प्रभावित होना आदि लक्षण सामने आते हैं। टाइप-1 के मरीजों में बीमारी के लक्षण जैसे वजन कम हो जाना, ज्यादा बार पेशाब आना, प्यास ज्यादा लगना और भूख बढ़ जाना आदि कुछ हफ्तों या महीनों में सामने आ जाते हैं वहीं दूसरी ओर टाइप-2 के लक्षण (आंखों में धुंधलापन, सिरदर्द, बेहोशी, चोट लगने पर ठीक होने में ज्यादा समय लगना और त्वचा में खिंचाव महसूस होना) काफी समय बीत जाने पर सामने आते हैं। इस बीमारी की रोकथाम और इलाज में पौष्टिक खानपान, व्यायाम, तंबाकू का सेवन न करना, रक्तचाप पर नियंत्रण शामिल हैं, परंतु इसके सही इलाज इसके टाइप जानने के बाद ही संभव है। 
 
टाइप-1 डायबिटीज के लिए इंसुलिन के इंजेक्शन दिए जाते हैं। टाइप-2 डायबिटीज का इलाज दवाइयों के उपयोग से संभव है और कभी-कभी इंसुलिन के इंजेक्शन की आवश्यकता भी पड़ सकती है। टाइप-2 के मरीजों में अधिक वजन काफी खतरनाक है और इनके इलाज में सर्जरी द्वारा वजन कम करना भी शामिल है। गेस्टेशनल डायबिटीज में समस्या बच्चे के जन्म के बाद सामान्य तौर पर स्वतः ही खत्म हो जाती है। 
 
डायबिटीज भारत में महामारी का रूप ले रही है। यह बीमारी 62 मिलियन से ज्यादा लोगों में फैल चुकी है। साल 2030 तक भारत में 79.4 मिलियन लोग इस बीमारी का शिकार होंगे। भारत में ग्रामीण जनसंख्या में पाए जाने वाले मरीजों की संख्या में शहरी क्षेत्रों में होने वाले मरीजों की एक तिहाई है। बीते वर्ष डायबिटीज ने अपने बढ़ने के स्पष्ट और खतरनाक संकेत दिए हैं। 

7. मलेरिया : 25 अप्रैल सारे विश्व में मलेरिया दिवस के रूप में मनाया जाता है। मलेरिया मच्छरों में उत्पन्न होने वाला और उनके द्वारा फैलने वाला इंफेक्शन है, जो इंसानों और कुछ जानवरों में प्रोटोजोंस (एक प्रकार का सिंगल सेल वाले माइक्रो ऑर्गेनिज्म) द्वारा फैलता है। सामान्य तौर पर मलेरिया मादा एनोफिलीज मच्छर के काटने की वजह से फैलता है। इनकी लार में मलेरिया का परजीवी प्रोटोजोंस इंसान के रक्त में प्रवेश करता है और लिवर तक पहुंच जाता है, जहां यह विकसित होकर प्रजनन करता है। भारत में इसे महामारी का दर्जा दिया गया है।
 
मलेरिया के लक्षणों में बुखार, अत्यधिक कमजोरी, उल्टी आना और सिर में दर्द शामिल हैं। मलेरिया के गंभीर स्टेज पर पहुंच चुके मरीजों की त्वचा के पीली पड़ जाने के अलावा दिमाग में हल्के झटके, चीजों को याद करने में परेशानी होती है तथा मरीज कोमा में चले जाते हैं और मौत हो जाती है। गर्भवती महिलाओं में मलेरिया के गंभीर परिणाम सामने आते हैं। इससे एनीमिया यानी खून की कमी, बच्चा गिर जाना, बच्चे के कम वजन का पैदा होना, मरे हुए बच्चे का पैदा होना और गर्भवती महिला की मौत भी हो सकती है। 
 
मलेरिया के लक्षण मच्छर के काटने के 10 से 15 दिन बाद सामने आते हैं। जिन मामलों में इलाज सही तरीके से नहीं लिया जाता है, वहां मलेरिया के लक्षण महीनों बाद फिर सामने आ जाते हैं। मलेरिया से बचने के उपायों में मच्छर के काटने से बचने के उपाय शामिल हैं। इसके इलाज में एंटीमलेरिया दवाइयां दी जाती हैं। ज्यादा छोटे बच्चों को सल्फाडोजाइन या पायरिमेथामाइन नाम की दवाइयां कभी-कभी दी जाती हैं। अत्यधिक जरूरत के बावजूद इसका टीका ईजाद नहीं किया जा सका है। 
 
भारत में हर साल मलेरिया के करीब 2 मिलियन मामले सामने आते हैं जिनमें से करीब 1,000 मरीजों की इस इंफेक्शन के मौत हो जाती है।

8. डिप्रेशन : अवसाद या डिप्रेशन के अंतर्गत मानसिक स्थिति में बदलाव होता है जिससे व्यक्ति की कार्यक्षमता प्रभावित होती है। इसमें रोगी के विचार, व्यवहार, भावनाओं और चीजों को देखने के नजरिए पर प्रभाव पड़ता है। यह रोग मानसिक रोग का एक प्रकार है, परंतु कुछ मामलों में यह एक सामान्य भावनात्मक प्रदर्शन भी हो सकता है, जब किसी व्यक्ति को किसी प्रकार के दु:ख से गुजरना होता है या किसी प्रकार की दवाइयों के साइड इफेक्ट से भी डिप्रेशन जैसे लक्षण सामने आते हैं। 
 
अवसाद के रोगी में चिंता, खालीपन, निराशा, मजबूरी, नाकाबिल होने का एहसास, खुद को दोषी समझना, चिड़चिड़ापन और अशांति जैसे लक्षण उभर आते हैं। रोगी को ऐसे कामों में भी अरुचि उत्पन्न हो जाती है, जो कभी उन्हें बहुत पसंद थे। भूख में कमी आना या जरूरत से ज्यादा खाना, ध्यान भटकना, चीजों को याद करने में परेशानी, आत्महत्या की कोशिश करना या करने की इच्छा होना, निर्णय लेने की क्षमता में कमी आ जाना, नींद न आना या बहुत ज्यादा सोना, उल्टी आना, पाचन संबंधी समस्या उत्पन्न होना और काम करने की इच्छा खत्म हो जाने जैसे लक्षण उभरते हैं। 
 
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के हिसाब से सिर्फ 2012 में ही 1,35,445 लोगों ने देश में आत्महत्या की। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार भारत में हर व्यक्ति के जीवनकाल में अवसादग्रस्त होने की 9 प्रतिशत संभावना होती है। साल 2020 के आने तक होने वाली कुल मौतों के लिए जिम्मेदार कारणों में अवसाद दूसरा सबसे बड़ा कारण होगा। भारतीयों में अवसाद की गिरफ्त में आने वाले मरीज ज्यादातर 30 साल पार कर चुके होते हैं।

9. मोटापा : मोटापा या ऑबेसिटी एक मेडिकल स्तर होता है जिसमें वजन इस हद तक बढ़ जाता है कि शरीर में विभिन्न रोगों का जन्म होने लगता है। व्यक्ति के जीवनकाल में कमी आ जाती है। मोटापे की वजह से कई तरह की बीमारियां जैसे हार्टअटैक, टाइप-2 डायबिटीज, ऑब्स्ट्रेक्टिव स्लीप, कुछ प्रकार के कैंसर और ऑस्ट‍ियो ऑर्थराइटिस होने की आशंका बहुत बढ़ जाती है। 
 
मोटापा जरूरत से ज्यादा खाने, व्यायाम की कमी, दवाइयों के साइड इफेक्ट, हार्मोंस में बदलाव, मानसिक रोग या फैमिली हिस्ट्री की वजह से होता है। डाइटिंग और व्यायाम इसके खास उपाय हैं। खान-पान में बदलाव करके जैसे मोटापा बढ़ाने वाले भोजन के बजाय स्वास्थ्यवर्धक पदार्थों को भोजन में शामिल करके इससे मुक्ति पाई जा सकती है। मोटापा कम करने के लिए भूख कम करने वाली दवाइयों का भी सेवन किया जाता है। 
 
भारत में मोटापा महामारी के स्तर तक पहुंच चुका है और करीब 5 प्रतिशत जनसंख्या इससे ग्रसित है। भारत विश्व में मोटापे की समस्या वाले देशों में तीसरे नंबर पर आता है। भारत में करीब 30 मिलियन लोग इस समस्या से ग्रसित हैं।

10. ऑस्टियोपोरोसिस : सारे विश्व में 20 अक्टूबर को ऑस्टियोपोरोसिस के विषय में जागरूकता लाने के दिवस के रूप में चुना गया है। यह शरीर में हड्डियों को लंबे समय में क्षय करने वाला रोग है। इस रोग में मेडिकल भाषा में कहे जाने वाले बोन मास और डेंसिटी में कमी आ जाती है। इसमें हड्डियों में होने वाले प्रोटीन की मात्रा में भी बदलाव आ जाता है जिससे हड्डियां कमजोर हो जाती हैं। 
 
इस रोग के मरीज में फ्रैक्चर होने का खतरा काफी बढ़ जाता है। इस रोग के प्राथमिक टाइप-1 और प्राथमिक टाइप-2 प्रकार होते हैं। महिलाओं में मासिक धर्म खत्म हो जाने के बाद होने वाले ऑस्टियोपोरोसिस को प्राइमरी टाइप-1 और मासिक धर्म होने वाली उम्र में होने वाले ऑस्टियोपोरोसिस को प्राइमरी टाइप-2 माना गया है। इस रोग का तीसरा रूप जिसे सेनाइल ऑस्टियोपोरोसिस कहते हैं, 75 साल से अधिक उम्र वाले लोगों में उत्पन्न होता है। सेकंडरी ऑस्टियोपोरोसिस किसी भी उम्र के व्यक्तियों को हो सकता है। यह लंबे समय तक के लिए शरीर को घेरने वाली बीमारी के चलते या लंबे समय तक किसी रोग के लिए दवाइयां लेने के कारण होती है।
 
ऑस्टियोपोरोसिस से बचने के उपायों में जीवनशैली में बदलाव लाना खास है। खान-पान सुधारना, व्यायाम करना और एक्सीडेंट्स से बचना शामिल हैं। अमेरिकन संस्था (USPSTF) इस रोग में कैल्शियम और विटामिन डी के डोज को निष्प्रभावी मानती है। ऐसे मामले जिनमें मरीज को इस बीमारी की वजह से पहले फ्रैक्चर हो चुका हो, उनमें Bisphosphonates दिए जाते हैं, परंतु यह ऑस्टियोपोरोसिस के उन रोगियों पर निष्प्रभावी है जिनको पहले इस रोग की वजह से फ्रैक्चर न हुआ हो। 
 
भारत में 50 मिलियन से ज्यादा लोग या तो ऑस्टियोपरोसिस से ग्रसित हैं या उनका बोन मास निचले स्तर तक पहुंच चुका है। आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों की 30 से 60 साल उम्र वाली महिलाओं के शरीर में मौजूद हर हिस्से की हड्डियों में बोन मिनरल डेंसिटी (BMD-Bone Mineral Density) विकसित देशों की इसी उम्र की महिलाओं की तुलना में अत्यधिक निचले स्तर पर पाया गया। 

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