पुष्पा परजिया

ऋतु राज वसंत और महीना हुआ फागुन टेसुओं का बरसे रंग और बृज में खेलें कान्हा होली राधा के संग मन मयूर नाचे छम छम जब, राधा, होरी खेले कान्हा संग...
कविता : एक कंपन सी हो जाती है, एक लहरी सी उठ जाती है, जब-जब देखूं मां भारती तेरी तस्वीर, हृदय वीणा झंकृत सी हो जाती है, उठा है तूफान जहां में तेरे प्रेम...
जैसे लहरें बातें करते आईं हैं किनारों से आज तक, दिवा स्वप्न था बैठे थे पास पास और मूंदी (बंद) आंखों से, सपने संजोने लग गए हम जनम-जनम के साथ के, साथ न छूटेगा...
वो सपने सुनहरे भविष्य के हमने, किस आस पर किस सहारे पे देखे। वो शक्ति वो प्रेरणा आपकी थी, एक हारे हुए मन का बल आपसे था। ओ कान्हा! जब-जब मानव मन हारा, तब-तब...
Poem on 15 August कहते थे बरसों पहले तुम हैं हिन्दी-चीनी भाई-भाई, फिर सीमा पर चुपके-चुपके किसने थी आग लगाई। फेंगशुई का बहाना करके क्यों अंधविश्वास फैलाया,...
मेरी भारत माता याद तो बहुत आती है, आंखें भी भर जाती हैं, दूर हूं तुझसे इतनी कि तेरी, सीमा भी नजर न आती है, तू तो रही है सदा से आरजू मेरी, मेरी भारत...
भरा आकाश और नभ मंडल बारूद और धुएं की बौछार है, सिसक रही मानवता ये कैसा नरसंहार है, जहां थी तारों की लड़ियां वहां बमों की भरमार है... कांप रहा नभमंडल...
सुंदर, नाजुक, कोमल-कोमल, मानो कोई खिली थी नन्ही-सी कली, देख-देख मैं मन ही मन खुश होती लहराती मेरे मन की बगिया
जिनके साथ बचपन में खेला, जिनसे सुनी लोरियां मैंने, जिनका साया छांव थी मेरी
तू तो रही है सदा से आरजू मेरी मेरी भारत माता तू तो बसी है मेरे मन में पर क्या करूं यहां से तुझे न देखा जाता
जीवन ज्योत जल जाती मानो तेरे आने से, लोग मुस्कुराते थे मेरे इतराने से
सुंदर, नाजुक, कोमल-कोमल मानो कोई खिली थी नन्ही-सी कली देख-देख मैं मन ही मन खुश होती लहराती मेरे मन की बगिया
आई खिचारहाई कहीं देश के एक कोने में कहते लोग इसे खिचारहाई, कहीं कहते मकर संक्रांति तो कहीं पतंगबाजी के लिए होती इसमें बेटियों की पहुनाई (मेहमाननवाजी)।
दिन ढला हो गई रात लो आई सुबह नई वक्त सदा चलता ही रहता बिना कोई विश्राम लिए
नारी तू नारायणी चलता तुझसे ही संसार है। है नाजुक और सुंदर तू कितनी तुझमें ओजस्विता और सहजता का श्रृंगार है
आई खिचारहाई कहीं देश के एक कोने में कहते लोग इसे खिचारहाई, कहीं कहते मकर संक्रांति तो कहीं पतंगबाजी के लिए होती इसमें बेटियों की पहुनाई (मेहमाननवाजी)
रह गए हैं अब कुछ पल, इस साल के अंत के, होने वाली है नई सुबह, सपनों के संसार की।
काले घिरे से बादलों को, हवा के तूफानों ने जुदा किया। जो बरसने को थे तैयार उन्हें, आंधी के थपेड़ों ने सुखा दिया।