लोकसभा चुनाव 2019: घमंड में डूबी कांग्रेस आख़िर बीजेपी को ही जिता देगी- नज़रिया

मंगलवार, 19 मार्च 2019 (15:42 IST)
- अदिति फड़नीस (राजनीतिक विश्लेषक)
 
हम नहीं सुधरेंगे'
 
ये पंक्ति कांग्रेस के उसके सहयोगी दलों के प्रति रवैये पर कुछ ज़्यादा ही फ़िट बैठती है। मौजूदा वक़्त में कांग्रेस के सभी सहयोगी दल उस पर सहयोग न करने का आरोप लगा रहे हैं। उनका कहना है कि कांग्रेस का रवैया अभी इतना बुरा है कि लोकसभा चुनाव से पहले ये विपक्षी पार्टियों की एकता को कमज़ोर कर रहा है।
 
 
एक ओर जहां विपक्षी पार्टियां मिलकर बीजेपी को हराना चाहती हैं वहीं कहा ये जा रहा है कि इस मक़सद को हासिल करने में सबसे बड़ी चुनौती ख़ुद कांग्रेस पार्टी ही है।
 
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती और उनके सहयोगी अखिलेश यादव ने मंगलवार को कांग्रेस पर उत्तर प्रदेश में मतदाताओं के बीच 'भ्रम की स्थिति' फैलाने का आरोप लगाया।
 
उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा और राष्ट्रीय लोकदल ने गठबंधन कर लिया है। ये ऐसा गठबंधन नहीं है जिसे आसानी से तोड़ा जा सके। हालांकि सपा और बसपा उन क्षेत्रों में अपने भरोसेमंद प्रत्याशियों को उतारने में असफल रहे हैं जहां दोनों का अच्छा-ख़ासा वोट बैंक है।
 
कांग्रेस अलग 'पॉलिटिक्स' कर रही है
कांग्रेस इस गठबंधन का हिस्सा नहीं है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि ये पूरी तरह से अलग-थलग है। कांग्रेस छोटी पार्टियों के साथ अपने अलग समीकरण बना रही है।
 
मिसाल के तौर पर देखें तो कांग्रेस की नई महासचिव प्रियंका गांधी ने अभी पिछले हफ़्ते ही भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर को 'करिश्माई नेता' बताया और इसके बाद ये ख़बर आई कि कांग्रेस, सपा और बसपा के पीठ पीछे चंद्रशेखर को वाराणसी से प्रधानमंत्री मोदी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ाने की तैयारी करा रही थी।
 
अब सपा और बसपा पूछ रही हैं कि कांग्रेस को ऐसा करने का अधिकार किसने दिया?
 
इसके बाद कांग्रेस ने ऐलान किया कि उत्तर प्रदेश में वो लोकसभा की कम से कम सात सीटों पर अपने उम्मीदवार नहीं उतारेगी, तो मायावती ने इसका तंज़ के साथ स्वागत किया।
उन्होंने ट्विटर पर लिखा...
"कांग्रेस उत्तर प्रदेश की सभी 80 लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने के लिए स्वतंत्र है। हमारा गठबंधन (सपा-बसपा-आरएलडी) बीजेपी को हराने का माद्दा रखता है। कांग्रेस को उत्तर प्रदेश के लोगों में ये भ्रम फैलाना छोड़ देना चाहिए कि वो सात सीटें हमारे गठबंधन के लिए छोड़ रही है।"
 
 
बसपा देश के दूसरे राज्यों जैसे पंजाब, आंध्र प्रदेश और हरियाणा में भी ग़ैर-बीजेपी, ग़ैर-कांग्रेस दलों के साथ गठबंध की संभावनाएं तलाश रही है। मायावती ने कहा, "बसपा एक बार फिर ये स्पष्ट करना चाहती है कि हमारा कांग्रेस के साथ न तो उत्तर प्रदेश में और न ही देश के किसी और हिस्से में कोई गठबंधन है। हमारे पार्टी कार्यकर्ताओं को कांग्रेस द्वारा लगभग रोज़-रोज़ फैलाए जा रहे भ्रमों से बचकर रहना चाहिए।"
 
 
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने भी एक ट्वीट में मायावती का समर्थन किया। उन्होंने लिखा, "एसपी, बीएसपी और आरएलडी मिलकर बीजेपी को उत्तर प्रदेश में हराने में सक्षम हैं। कांग्रेस पार्टी को किसी तरह का भ्रम फैलाने की ज़रूरत नहीं है।" कांग्रेस ने जन-अधिकार पार्टी से गठबंधन करके अपना दल से अलग हुए धड़े के लिए दो सीटें छोड़ने का ऐलान किया है।
 
 
पर बात यहीं ख़त्म नहीं होती।
कांग्रेस ने बिहार के लिए भी नई महत्वाकांक्षा सजा ली हैं, जहां राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) ख़ुद को सबसे बड़ी पार्टी मानते हुए बीजेपी और जेडीयू को सत्ता में आने से रोकने की बात कर रही है। बिहार में लोकसभा की 40 सीटों के लिए भी बहुत से दावेदार हैं। वहीं, आरजेडी 2014 के मुक़ाबले कम सीटों पर लड़ रही है।
 
कांग्रेस की मजबूरी
कांग्रेस की अपनी अलग समस्याएं हैं। क्या उसे विपक्ष की एकता के लिए अपना अस्तित्व कमज़ोर करना चाहिए? ये सवाल कांग्रेस के कई बड़े नेताओं के मन में है। उम्मीद की जा रही है कि पार्टी उत्तर प्रदेश की 70 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी लेकिन उसका ध्यान उन 25 सीटों पर ज़्यादा होगा जहां उसके उम्मीदवारों की जीतने की संभावना सबसे ज़्यादा है।
 
 
इसे एक तरफ़ तो कांग्रेस का झंडा बुलंद करने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है लेकिन दूसरी तरफ़ उसके 'सहयोगी दल' इसे विपक्षी दलों की एकता में सेंध लगाने के क़दम के तौर पर देख रहे हैं: एक ऐसा क़दम, जो सिर्फ़ बीजेपी को फ़ायदा पहुंचाएगा।
 
 
जिन सीटों के लिए कांग्रेस ने उम्मीदवार न उतारने का फ़ैसला किया है वो हैं- मैनपुरी (मुलायम सिंह यादव का गढ़), कन्नौज (यहां से डिंपल यादव चुनाव लड़ सकती हैं) और फ़िरोज़ाबाद।
 
अगर मायावती चुनाव लड़ती हैं तो ये साफ़ है कि कांग्रेस न तो उनके ख़िलाफ़ कोई उम्मीदवार खड़ा करेगी और न ही आरएलडी प्रमुख अजित सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी के ख़िलाफ़।
 
यही दिक़्क़तें पश्चिम बंगाल में वामदलों के साथ होने वाली हैं। ममता बनर्जी के साथ तो कोई गठबंधन की बात भी नहीं कर रहा है। कांग्रेस का दावा है कि ममता ने उन्हें विपक्षी पार्टियों की रैली में शामिल होने तक के लिए नहीं बुलाया लेकिन ममता इससे इनकार कर रही हैं।
 
आख़िर में ये ज़िम्मेदारी कांग्रेस पर ही आती है कि वो कैसे और कितना त्याग करके और कैसी रणनीति अपनाकर छोटी पार्टियों का अहम बनाए रखती है और उन्हें अपने साथ जोड़े रखती है। लेकिन अंत में एक सवाल ये भी आता है कि अगर पार्टी अपने उन वफ़ादार कार्यकर्ताओं का साथ नहीं देती जो अच्छे-बुरे वक़्त में उसके साथ रहे तो वो ख़ुद के साथ सच्ची कैसे रहेगी?
 
विपक्षी पार्टियों का एक बड़ा तबक़ा नाराज़ और कड़वाहट से भरा हुआ है। साथ ही ऐसा लगता है कि कांग्रेस पार्टी घमंड में इतनी डूबी हुई है और अपने गिरते आधार को लेकर उसका रवैया इतना अस्वीकार्यता भरा है कि आख़िर में ये बीजेपी को जिताने में ही मदद कर सकता है और शायद ये समझना इतना मुश्किल भी नहीं है।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य और विचार बीबीसी के नहीं हैं और बीबीसी इसकी कोई ज़िम्मेदारी या जवाबदेही नहीं लेता है।)
 

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