किसानों के विरोध प्रदर्शन पर क्या कह रहे हैं देश के अन्य राज्यों के किसान

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बुधवार, 2 दिसंबर 2020 (07:50 IST)
पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसान इन दिनों दिल्ली में केंद्र सरकार के नए कृषि क़ानून का विरोध कर रहे हैं। इसके लिए दिल्ली की सीमाओं पर हज़ारों की संख्या में किसान जमा हुए हैं और वे लगातार धरने पर बैठे हुए हैं। इस बीच बुधवार को इन किसानों ने केंद्र सरकार के साथ बातचीत भी की लेकिन किसान नेताओं ने सरकार के प्रस्ताव को ठुकरा दिया है। ये किसान नए कृषि क़ानूनों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं।
 
लेकिन किसानों के प्रदर्शन को लेकर देश भर के दूसरे राज्यों के किसान क्या सोच रहे हैं, वहां क्या स्थिति है, हमने इसका पता लगाने की कोशिश की।
 
बिहारः अनाज की ख़रीद पैक्स के माध्यम से करती है सरकारपटना से सीटू तिवारी
बिहार जहां 70 फ़ीसद आबादी खेती पर निर्भर है वहां नए कृषि क़ानून के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन बहुत कम दिख रहे हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि राज्य के किसान दिल्ली के बॉर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन के ख़िलाफ़ हैं।
 
मुज़फ़्फ़रपुर के बोचहां ब्लॉक के चौमुख गांव के किसान विश्व आनंद पांच एकड़ में गेहूँ, धान और मक्के की खेती करते हैं।
 
वे कहते हैं, "किसान आंदोलन को समर्थन है। लेकिन बिहार में इसका प्रभाव बहुत सीमित है क्योंकि यहां पर किसान की अपनी कोई 'आइडेंटिटी' नहीं बन पाई जैसे पंजाब या हरियाणा में है। हमारे यहां जातीय पहचान बहुत मज़बूत है और हमारे यहां नए क़ानून के बारे में किसानों को भी मालूम नहीं।"
 
दरअसल बिहार में बाज़ार समितियों या मंडियों को साल 2006 में ही ख़त्म कर दिया गया था। कृषि उपज और पशुधन बाज़ार समिति (एपीएमसी एक्ट) को ख़त्म करने वाला बिहार पहला राज्य था। राज्य में सरकार अनाज की ख़रीदारी पैक्स के माध्यम से करती है। पैक्स प्राथमिक कृषि साख एवं सहयोग समिति है।
 
इस साल धान अधिप्राप्ति 23 नवंबर से शुरू करने का सरकारी आदेश है। जिसमें साधारण धान 1868 रुपये प्रति क्विंटल है जबकि ग्रेड ए धान की कीमत 1888 रुपये प्रति क्विंटल है।
 
किसानों का कहना है कि पैक्स ने अब तक कोई ख़रीदारी शुरू नहीं की है। 45 साल के सुनील कुमार सिंह ऐसे ही किसान हैं। वो कैमूर ज़िले के टोड़ी गांव के हैं।
 
वे कहते हैं, "यह किसान आंदोलन सही मुद्दे पर है लेकिन यहां कैमूर में मुद्दा अलग है। यहां पैक्स सक्रिय नहीं है। धान पड़ा है, पैक्स नहीं ख़रीद रहा है। तो हमारे पास बिचौलियों को बेचने के अलावा कोई चारा नहीं है। बाद में पैक्स इन्ही बिचौलियों से धान ख़रीदेगी। दूसरा ये कि कैमूर ज़िले में धान अधिप्राप्ति का लक्ष्य 2,40,000 मीट्रिक टन है जबकि उत्पादन क्षमता 10 लाख मीट्रिक टन है। सरकार के ही हिसाब से चले तो बाकी का धान कौड़ी के दाम बिकेगा।"
 
इस पूरे मामले पर वामपंथी और किसान संगठन राज्य में लगातार आंदोलनरत हैं। इधर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस मसले पर कह चुके हैं, "ये किसान को फ़ायदा पहुंचाने वाला क़ानून है। बाकी इस मुद्दे पर ठीक ढंग से बातचीत होनी चाहिए।"
 
बिहार राज्य किसान सभा के महासचिव अशोक कुमार ने कहा कि राज्य में इस आंदोलन को तेज़ करने की कोशिशें अब लगातार की जा रही हैं। आगामी 8 से 10 दिसंबर तक ब्लॉक स्तर पर प्रदर्शन होंगे।
 
लेकिन ऐसा राज्य जो मुख्य रूप से खेती पर ही निर्भर है वहां किसान आंदोलन के प्रति किसान बहुत उत्साहित क्यों नहीं है?
 
इस सवाल पर अशोक कुमार स्वीकारते हैं, "किसान सभा की ये असफलता है कि हम इस क़ानून के बारे में निचले स्तर पर किसानों को जागरूक नहीं कर पाए। बाकी विधानसभा चुनावों, बिहार के 70 फ़ीसद किसानों का परम्परागत खेती में लगे होना आदि भी वो वजहें हैं कि यहां किसान आंदोलन गति नहीं पकड़ पाया।"
 
'किसानों से उनका यह लोकतांत्रिक अधिकार क्यों छीना जा रहा' पश्चिम बंगाल से प्रभाकर मणि तिवारी
 
पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस समेत तमाम ग़ैर-भाजपाई राजनीतिक कृषि विधेयकों के ख़िलाफ़ किसानों के आंदोलन और प्रदर्शन के साथ हैं।
 
तृणमूल कांग्रेस सरकार और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तो शुरू से ही उक्त विधेयकों का विरोध करती रही हैं। अब दिल्ली में किसानों के प्रदर्शन के समर्थन में कोलकाता समेत राज्य के कई इलाकों में विभिन्न संगठनों की ओर से रैलियों का आयोजन किया गया है।
 
यह सिलसिला लगातार चल रहा है। कोलकाता में रहने वाले सिख समुदाय की ओर से भी किसानों के समर्थन में एक रैली का आयोजन किया गया है।
 
ऑल इंडिया किसान सभा के प्रदेश सचिव अमल हालदार कहते हैं, "बंगाल में होने वाली रैलियों की तादाद से साफ़ है कि आम किसानों में केंद्रीय क़ानूनों के ख़िलाफ़ कितनी नाराज़गी है।"
 
रविवार के बाद सोमवार को भी राज्य के तमाम इलाकों में रैलियों का आयोजन किया गया था। ऑल इंडिया एग्रिकल्चरल वर्कर्स यूनियन के प्रदेश सचिव तुषार घोष कहते हैं, "हरियाणा और पंजाब में किसान अपने उत्पादों को बेचने के लिए सरकारी विपणन तंत्र पर निर्भर हैं। लेकिन बंगाल में किसानों को अपना उत्पाद स्थानीय बाज़ारों या मंडियों में बेचना पड़ता है। लेकिन केंद्रीय कृषि क़ानूनों का प्रतिकूल असर राज्य के किसानों पर भी पड़ेगा।"
 
उत्तर 24-परगना ज़िले के बारासत इलाके में एक किसान समीरन मंडल कहते हैं, "खेती पहले से ही घाटे का सौदा बन गई है। अब केंद्रीय क़ानूनों की वजह से रही-सही कसर भी पूरी हो जाएगी। हमें न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिलेगा। मंडल ने भी सोमवार को इलाके में आयोजित रैली में हिस्सा लिया था।"
 
दूसरी ओर, कोलकाता में बसे पंजाब के लोगों ने भी सोमवार को किसानों के आंदोलन के समर्थन में एक रैली आयोजित की।
 
रैली में शामिल लुधियाना के अजित सिंह कहते हैं, "किसान अपनी समस्या के बारे में अपने देश में ही बोल नहीं सकता है। यह दुखद है। नए क़ानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। इससे किसानो में आतंक है। सरकार को इसकी गारंटी देनी चाहिए।"
 
उनका सवाल है कि अगर तमाम राजनीतिक दल अपनी मांगों पर दिल्ली में धरना-प्रदर्शन कर सकते हैं तो किसानों से उनका यह लोकतांत्रिक अधिकार क्यों छीना जा रहा है?
 
'किसानों को मारोगे, देश मरेगा'रांची से रवि प्रकाश
नए कृषि क़ानून के ख़िलाफ़ चल रहे किसान आंदोलन का झारखंड के अधिकतर किसानों ने समर्थन किया है। प्रदर्शनकारी किसानों के ख़िलाफ़ पुलिसिया कार्रवाई से यहां के किसानों में आक्रोश है। उनका कहना है कि केंद्र सरकार को किसानों से सीधी बातचीत करनी चाहिए। ताकि, इस मामले का हल निकाला जा सके।
 
गोड्डा ज़िले के बंदनवार गांव के रौशन कुमार दुबे ऐसे ही किसान हैं।
 
उन्होंने बीबीसी से कहा, "ताज़ा कृषि क़ानून किसानों के हक में नहीं है। इससे हमलोग निराश हैं। सरकार ने ज़मीनी हक़ीकत जाने बगैर यह क़ानून बनाया है। ऊपर से किसानों को उनके हक की बात भी नहीं करने दी जा रही है। जाड़े के मौसम में पानी की बौछार की जा रही है। लाठियां चलाई जा रही हैं। आंसू गैस के गोले छोड़े जा रहे हैं। सरकार को शायद नहीं पता कि अगर किसानों को मारोगे, तो यह देश भी मरेगा। हमें उम्मीद है कि सरकार समय रहते यह बात समझेगी।
 
कृषि क़ानून की बात करते हुए उन्होंने कहा, "इससे किसानों को कोई फ़ायदा नहीं होगा। पूंजीपतियों को लाभ मिलेगा। अभी हम पढ़-लिखकर लगभग 30 बीघा ज़मीन में खेती करते हैं। कभी उपज अच्छी होती है, कभी नहीं। फसल का वाजिब दाम भी नहीं मिलता। इस क़ानून के बाद तो मंडी व्यवस्था ही ख़त्म हो जाएगी। प्राइवेट कंपनियां खेती में उतरेंगी। हमलोग यह बात समझ रहे हैं। अब आप ही बताइए कि अगर सरकार का क़ानून ठीक रहता तो मोदी सरकार की ही कृषि राज्यमंत्री हरसिमरत कौर इस्तीफा क्यों देतीं?"
 
इस बीच विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक संगठनों ने भी नए कृषि क़ानून और प्रदर्शनकारी किसानों पर कार्रवाई के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर अपना विरोध दर्ज कराया है। राजधानी रांची के अलावा जमशेदपुर, बोकारो और गिरिडीह जैसी जगहों से ऐसे प्रदर्शनों की ख़बरें मिल रही हैं।
 
छात्र संगठनों ने भी किसानों के समर्थन में प्रदर्शन किया है। जमशेदपुर में आयोजित ऐसे ही एक प्रदर्शन में शामिल छात्र ऋषभ रंजन ने कहा, "देश का जवान किसान के साथ खड़ा है। हम युवा किसान की संतान हैं। खेती-किसानी का संकट सिर्फ किसान का नहीं है बल्कि रोज़गार और ग्रामीण भारत का भी है। हम किसानों पर किए जा रहे हर अत्याचार के ख़िलाफ़ हैं।"
 
झारखंड के कृषि मंत्री बादल पत्रलेख ने कहा कि, "हम प्रदर्शनकारी किसानों पर हो रही अमानवीय और ग़ैर-क़ानूनी कार्रवाई का विरोध करते हैं। केंद्र सरकार को इन किसानों से सम्मानपूर्वक बातचीत करनी चाहिए और नए कृषि क़ानून को वापस लेना चाहिए। जब देश के किसान ही इसके पक्ष में नहीं हैं, तो सरकार उसे किसानों पर क्यों थोपना चाहती है।"
 
'किसानों को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है' भोपाल से शुरैह नियाज़ी
 
मध्यप्रदेश के भोपाल से लगे फंदा गांव के अर्जुन मेवाड़े एक किसान हैं। उनका कहना है कि मोदी सरकार किसान विरोधी फ़ैसले ले रही है। उनका कहना है कि किसान देश के निर्माण में सबसे ज़्यादा योगदान देते हैं और इसलिए ज़रूरी है कि सरकार उनके हित का ख़याल रखे लेकिन देखने में आ रहा है कि सरकार ऐसे फ़ैसले ले रही है जिस में व्यापारियों का हित देखा जा रहा है लेकिन किसानों का हित नज़रअंदाज़ किया जा रहा है।
 
अर्जुन मेवाड़े दिल्ली में चल रहे प्रदर्शन को सही मानते हैं। उनका कहना है कि जब सरकार किसी भी तरह से अपने फ़ैसले से हटने को तैयार नहीं हुई तब जाकर किसानों ने यह फ़ैसला किया है।
 
वहीं एक अन्य किसान शांति कुमार का कहना है कि क़ानून वो बनाये जा रहे हैं जिससे बड़े व्यापारियों को फ़ायदा हो। लगता है सरकार यह कोशिश कर रही है कि किसान खेती छोड़ दें ताकि उनकी ज़मीन का इस्तेमाल दूसरे कामों के लिए किया जा सके। यही वजह है कि ऐसे क़ानून लाए जा रहे हैं जो पहले से परेशान किसानों के लिए और मुश्किल पैदा करेंगे।
 
'स्वामीनाथन कमेटी के आधार पर फ़सलों की क़ीमत नहीं मिली' रायपुर से आलोक प्रकाश पुतुल
 
पंजाब और हरियाणा के किसानों के आंदोलन के समर्थन में छत्तीसगढ़ में भी लगातार आंदोलन जारी है। 26 नवंबर को जहां किसानों ने राजभवन का घेराव किया, वहीं दो दिनों तक राज्य भर में किसानों ने किसान श्रृंखला भी बनाई। बुधवार को भी राजधानी रायपुर में प्रदर्शन हुए।
 
धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ में 2500 रुपये प्रति क्विंटल की दर से धान की ख़रीदी की जाती है। किसानों को इस बात की आशंका है कि नए कृषि क़ानून के बाद अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य में ख़रीदी की बाध्यता नहीं रहेगी तो किसानों को खुले बाज़ार में औने-पौने भाव में धान बेचने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।
 
रायपुर ज़िले के परसदा गांव के किसान रुपन चंद्राकर कहते हैं, "हम पर यह क़ानून थोपा गया है। किसानों ने स्वामीनाथन कमेटी के आधार पर फ़सलों की क़ीमत मांगी थी, वह तो नहीं मिली, उल्टे जो हमने नहीं मांगा, उसे लागू किया जा रहा है।"
 
रुपन चंद्राकर का कहना है कि केंद्र सरकार किसानों की आय दोगुनी करने का झांसा दे रही है। इस क़ानून से ऐसा कुछ नहीं होने वाला है। चंद्राकर कहते हैं, "क्या किसानों की फ़सल की क़ीमत दोगुनी करने की योजना है या हमारी फ़सल दोगुनी उपजने वाली है?"
 
किसान नेता आनंद मिश्रा पंजाब और हरियाणा के किसानों के आंदोलन को महज किसान आंदोलन नहीं मान रहे हैं।
 
उनका कहना है कि यह आंदोलन आने वाले दिनों में समाज की व्यवस्था को बदलने वाला आंदोलन साबित होने वाला है।
 
वे कहते हैं, "ग्रामीण समाज को तोड़ने की साजिश होती रहती है। उसे सांप्रदायिक और जातीय संघर्षों में धकेला जाता है। लेकिन इस बार किसान वर्ग चेतना के साथ अपने अधिकार की लड़ाई के लिए खड़ा है। देश का सबसे बड़ा उत्पादक अपना अधिकार मांग रहा है। कुलीन वर्ग चकित है कि किसान एक बार अपनी पूरी ताक़त के साथ व्यवस्था को बदलने के लिए खड़ा है। इस लड़ाई का असर पूरे देश में नज़र आ रहा है।"
 
बेंगलुरू में 7 दिसंबर को बड़े प्रदर्शन की तैयारी, दक्षिण भारत से इमरान क़ुरैशी
कर्नाटक और तमिलनाडु में ज़िला और तालुका स्तर पर किसान नए क़ानून के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे हैं।
 
कर्नाटक में गन्ना किसान संघ के अध्यक्ष कुरुबुर शांताकुमार ने बीबीसी हिंदी से बताया, "हमने कुछ ज़िलों में प्रदर्शन किया था और हम तालुका स्तर तक जा रहे हैं। मैसूर ज़िले के टी नारासीपुरा में बुधवार को सफल बंद का आयोजन किया गया। सात दिसंबर को बेंगुलरू में हमलोग बड़ा विरोध प्रदर्शन करने जा रहे हैं।"
 
इसी तरह का विरोध प्रदर्शन तमिलनाडु में भी देखने को मिल रहा है। नए कृषि क़ानूनों के विरोध और न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग के साथ त्रिची में लोगों ने सिर मुंडाकर प्रदर्शन किया है।
 
तमिलनाडु किसान संघ के पुनूस्वामी अयन्नू ने बीबीसी हिंदी को बताया, "हर दिन कुछ ज़िलों में किसानों की गिरफ़्तारी हो रही है। पुलिस किसानों को गिरफ़्तार कर रही है, फिर या तो उसी दिन या कुछ दिन बाद किसानों को रिहा कर दे रही है।
 
कर्नाटक की बीजेपी सरकार और तमिलनाडु की एआईडीएमके सरकार केंद्र सरकार के नए कृषि क़ानूनों का समर्थन कर रही है। कर्नाटक में कृषि उत्पान विपणन समिति एक्ट (एपीएमसी एक्ट) और भूमि सुधार क़ानून में हुए संशोधनों के ख़िलाफ़ किसानों ने 28 सितंबर को राज्यव्यापी आंदोलन का सामना किया था।
 
केरल में इन दिनों किसानों का प्रदर्शन देखने को नहीं मिला लेकिन सितंबर में यहां के किसानों ने अखिल भारतीय विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था।
 
'तीन नए कृषि क़ानून किसानों के गले में फंदे जैसे'जयपुर से मोहर सिंह मीणा
किसान आंदोलन का राजस्थान के किसान भी समर्थन कर रहे हैं। किसान इसे दर्द से निकला आंदोलन कह रहे हैं।
 
हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश के किसानों के साथ ही राजस्थान से क़रीब एक हज़ार किसान आंदोलन के समर्थन में दिल्ली पहुंचे हैं।

किसान नेता रामपाल जाट राजस्थान के किसानों के साथ दिल्ली में मौजूद हैं। वह बताते हैं कि 2010 में राजस्थान के दूदू से एमएसपी पर ख़रीद गारंटी आंदोलन शुरू हुआ। देशभर के किसान अब भी आंदोलनरत हैं, लेकिन केंद्र सरकार किसानों की मांगों पर कोई कार्रवाई नहीं कर रही है।
 
जयपुर के फागी तहसील में 60 बीघा ज़मीन पर खेती करने वाले किसान मंगल चंद जाट कहते हैं, "केंद्र सरकार किसानों को लूटने में लगी हुई है। केंद्र के लाए गए तीन नए कृषि क़ानून किसानों के गले में फंदे जैसे हैं।
 
वह कहते हैं, "उपज हाथ में आने के बाद भी उसका मूल्य किसान के हाथ नहीं आता। कारोबारी फ़सल का भाव अपने मुताबिक़ तय करते हैं, जिससे किसानों को भारी नुकसान है।
 
किसान मंगल जाट कहते हैं, "कारोबारी किसी उपज पर एक क्विंटल के 1,500 रुपये तय करते हैं, लेकिन हमारी लागत ही दो हज़ार होती है। ऐसे में किसान कर्ज़ में दब जाता है या आत्महत्या करने को मजबूर होता है।
 
किसान मानते हैं कि उनकी फ़सलों की ख़रीद यदि एमएसपी पर होने लगे तो किसान न आत्महत्या करेगा और न ही उसे कर्ज़ लेने की ज़रूरत होगी।

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