क्या प्रस्तावित जनसंख्या विधेयक मुसलमान और ग़रीब विरोधी है?: नज़रिया

बुधवार, 17 जुलाई 2019 (12:33 IST)
राज्य सभा में बीते हफ़्ते 'जनसंख्या विनियमन विधेयक, 2019' पेश किया गया था। जिसके तहत दो से ज़्यादा बच्चे पैदा करने वाले लोगों को दंडित करने और सभी सरकारी लाभों से भी वंचित करने का प्रस्ताव है।
 
 
यह एक प्राइवेट मेम्बर बिल है जिसे राज्य सभा में बीजेपी सांसद और आरएसएस विचारक राकेश सिन्हा ने पेश किया है। इस बिल की आलोचना भी हो रही है। कुछ लोगों का कहना है कि इससे ग़रीब आबादी पर बुरा प्रभाव पड़ेगा तो कुछ का कहना है कि ये बिल मुसलमान विरोधी है।
 
बिल में क्या-क्या प्रावधान किए गए हैं और इसे कैसे लागू किए जाने की योजना है। ऐसे ही कुछ और सवालों के साथ बीबीसी संवाददाता दिलनवाज़ पाशा ने राकेश सिन्हा से बात की। पढ़िए उनका नज़रिया।
 
बीजेपी सांसद राकेश सिन्हा का नज़रिया
इस बिल का मक़सद जनसंख्या नियंत्रण करना नहीं बल्कि इसमें स्थिरता लाना है। जनसंख्या नियंत्रण और इसमें स्थिरता लाने में एक बुनियादी अंतर है। इसके पीछे तीन तर्क हैं कि किसी भी देश में जब जनसंख्या विस्फोटक स्थिति में पहुंच जाती है तो संसाधनों के साथ उसकी ग़ैर-अनुपातित वृद्धि होना शुरू होती है, इसलिए इसमें स्थिरता लाना ज़रूरी होता है।
 
संसाधन एक बहुत महत्वपूर्ण घटक है। जिस अनुपात में विकास की गति होती है, उससे अधिक अनुपात में जनसंख्या बढ़ रही है। भारत में यही दिखाई दे रहा है।
 
दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है कि संसाधनों के साथ क्षेत्रीय असंतुलन भी तेज़ी से बढ़ रहा है। दक्षिण भारत और पश्चिम भारत में जनसंख्या का जो रेट है, जिसे कुल प्रजनन क्षमता दर कहते हैं, यानी प्रजनन अवस्था में एक महिला कितने बच्चों को जन्म दे सकती है, वो वहां क़रीब 2.1 है। जिसे कि स्थिरता दर माना जाता है।
 
लेकिन इसके उलट उत्तर भारत और पूर्वी भारत, जिसमें बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा जैसे राज्य हैं, कुछ हद तक मध्य प्रदेश भी आता है, इन राज्यों में कुल प्रजनन क्षमता दर चार से ज़्यादा है। तो ये एक क्षेत्रीय असंतुलन पैदा करता है। दुनिया में भी और किसी देश के भीतर भी।
 
जब किसी भाग में विकास कम हो और जनसंख्या अधिक हो, तो वहां के लोग दूसरे भाग में रोज़गार खोजने के लिए, अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जाते हैं। देश में इसकी स्वतंत्रता है। लेकिन जब बोझ बढ़ता है तो एक संघर्ष होता है। जो लोग दूसरी जगह प्रवासी बनकर काम ढूंढते हैं तो उनकी स्थिति अपने घर से बेहतर नहीं हो पाती। एक ये फैक्टर है।
 
तीसरा फैक्टर है कि जिन राज्यों में प्रजनन दर 2.1 भी है, वो राज्य का औसत है, लेकिन राज्यों के भीतर भी वो असंतुलन बना हुआ है। किसी ज़िले में बहुत ज़्यादा है, किसी ज़िले में कम है। इसलिए प्रजनन क्षमता दर को और जनसंख्या की वृद्धि को औसत के तौर पर देखने से समस्या नहीं सुलझती।
 
एक और बात ये है कि जो देश बहु भाषी और बहु धार्मिक नहीं हैं, वो तो सिर्फ़ इन दो आइनों में देखते हैं। लेकिन जो देश बहुभाषीय और जहां विभिन्न नस्ल के लोग रहते हैं, फिर दुनिया का कोई भी देश हो और सभ्यता का कोई भी चरण क्यों ना हो, एक बात का औपचारिक या अनऔपचारिक तरीक़े से ध्यान रखना चाहिए कि सभी संप्रदायों में एक संतुलन बना रहे।
 
जब वो संतुलन बिगड़ता है। अगर किसी की जनसंख्या बहुत बढ़ रही है, किसी की कम बढ़ रही है, कारण चाहे कुछ भी हो, तो उसके सामाजिक और आर्थिक परिणाम होते हैं, उसके अन्य भी परिणाम होते हैं। इसलिए क्षेत्रीय, संसाधन और धार्मिक, तीनों संतुलन बना रहे देश में।
 
इसलिए जनसंख्या की स्थिरता के लिए एक यूनिफॉर्म पॉलिसी होनी चाहिए। जो क्षेत्र, धर्म, भाषा, जाति से ऊपर हो। जो संवैधानिक रूप से निर्धारित क़ानून हो। जिसका सब पालन करे। हमारा 1970 के दशक से नारा रहा है कि 'हम दो, हमारे दो', तो इसके आधार पर जिनके दो बच्चे हैं, उन्हें प्रोत्साहित किया जाए। जैसे-
 
-बैंक लोन कम रेट पर मिले
-डिपॉजिट में अधिक ब्याज़ मिले
-रोज़गार और शिक्षा में प्राथमिकता मिले
 
यानी कुछ फ़ायदा उन्हें मिले। जब लोगों को ये बताया जाएगा, चाहे वो कम पढ़े-लिखे भी हों कि आपके दो बच्चे रहेंगे तो आपको रोज़गार की सुविधा मिलेगी, शिक्षा मिलेगी, लोन कम दर पर मिलेगा, तो वो इस अभियान का हिस्सा बनेंगे।
 
उसमें एक और बात ये है कि जितने स्वास्थ्य केंद्र हैं, चाहे गांव में या तालुका में, सबमें अनिवार्य रूप से प्रसूति केंद्र खोला जाए। जिसमें हर एक महिला को गर्भावस्था के दौरान हेल्थ कार्ड जारी किया जाए। समय-समय पर उनकी जांच हो। इसका एक फायदा ये होगा कि शिशु का ध्यान रखा जाएगा, गर्भवती महिला के स्वास्थ्य की मुफ़्त जांच होती रहेगी। चाहे महिला अमीर हो या ग़रीब।
 
इससे फायदा होगा कि अगर कोई महिला दो बच्चों के बाद तीसरी बार गर्भवती होती है तो स्वास्थ्य केंद्र को मालूम होगा। और शुरुआती चरण में जांच के बाद अगर मालूम चल जाएगा, तो महिला को सुझाव दिया जा सकता है और विकल्प दिया जा सकता है। उस विकल्प को पालन करने की आपकी स्वतंत्रता रहती है। तो बहुत हद तक हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।
 
एक और बात कि जो लोग जान बूझकर इन बातों का उल्लंघन करते हैं, जन्म और मरण के रजिस्ट्रेशन से बचते हैं, उस रजिस्ट्रेशन को अनिवार्य किया जाए और फिर भी कोई इस रेजिस्ट्रेशन से बचता है तो माना जाए कि राज्य के संसाधनों पर वो अतिरिक्त बोझ डाल रहे हैं। तो उनको-
 
-बैंक डिपॉजिट पर कम ब्याज मिले।
-लोन लेने पर अधिक ब्याज लगे।
-और उन्हें सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) से बाहर कर दिया जाए।
-साथ ही किसी भी तरह के चुनाव लड़ने से उनको वंचित कर दिया जाए।
 
कुछ लोगों की मांग रहती है कि दो बच्चों से ज़्यादा पैदा करने वालों से मतदान का अधिकार छीन लिया जाए। मैं इसे ग़लत मानता हूं, क्योंकि किसी भी लोकतांत्रित देश में नागरिक का मतदान अधिकार मूल संवैधानिक अधिकार है। इस अधिकार से हम किसी को वंचित नहीं कर सकते हैं। इसलिए बिल में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।
 
लेकिन मतदान के अधिकार से ऊपर का जो अधिकार होता है वो विशेषाधिकार होता है। हर इंसान चुनाव नहीं लड़ता है। चुनाव कुछ प्रतिशत लोग लड़ते हैं। तो इससे ये होगा कि समाज में एक जागरूकता आएगी और लोकतांत्रिक तरीक़े से हम चीज़ों को प्राप्त कर पाएंगे।
 
स्थाई क़ानून नहीं होगा
ये क़ानून कोई स्थानी क़ानून नहीं होगा। ये एक सनसेट क़ानून होगा, मतलब ये ऐसा क़ानून होगा जो कुछ साल बाद ख़ुद ही ख़त्म हो जाता है। उसे ख़त्म करने के लिए किसी संशोधन या प्रस्ताव की ज़रूरत नहीं होती।
 
ये क़ानून एक जनगणना से दूसरी जनगणना तक रहेगा। दूसरी जनगणना के बाद डेटा एनालेसिस करने के बाद कि जनसंख्या की क्या स्थिति है, हमारी युवा जनसंख्या क्या है, अगर इस क़ानून को हम अगले दस साल के लिए बनाएंगे तो अगले पचास साल में हमारी जनसंख्या पर सकारात्मक या नकारात्मक क्या असर पड़ेगा, वर्क फोर्स पर क्या असर पड़ेगा। इन सब बातों का ध्यान रखते हुए अगर लगा कि इस क़ानून को आगे बढ़ाया जाए, तो संसद को फिर से नया विधेयक लाकर क़ानून बनाना होगा।
 
बांग्लादेश का उदाहरण
बांग्लादेश में जनसंख्या बढ़ी और बांग्लादेश जैसे देश ने, जो एक इस्लामिक देश है, इनके साथ दिक्क़त होती है कि उनकी कई तरह की परंपराएं होती हैं, उन्हें धर्मगुरू शरियत से जोड़ देते हैं। ऐसे राज्य में क़ानून बनाना मुश्किल काम होता है। फिर भी बांग्लादेश की सरकार ने बहुत हद तक जनसंख्या पर नियंत्रण कर लिया। ये एक उदाहरण इस देश ने पेश किया।
 
कुछ लोग तर्क देते हैं कि भारत की जनसंख्या ही इसका संसाधन है। मैं मानता हूं कि ऐसा होता है, लेकिन बिना योजना के और जिस तरह से जनसंख्या बढ़ रही है, वो कई तरह के सामाजिक-आर्थिक संघर्ष को, संसाधन और विकास के बीच के अंतर को बढ़ा रही है।
 
कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि ये विधेयक अल्पसंख्यक, ख़ास तौर पर मुसलमान आबादी को निशाना बनाने के लिए लाया जा रहा है। तो मैं कहना चाहूंगा कि हम सभी लोकतांत्रिक देश का हिस्सा हैं और अल्पसंख्यक शब्द को जिस तरह से संकुचित किया गया है, उस संकुचन को दूर करना चाहिए।
 
भारत में पारसी जैसे समुदाय लुप्त हो रहे हैं, लेकिन अगर वो किसी भी तरीक़े के जनसंख्या बढ़ाने की कोशिश करते हैं, उनके घर में आठ बच्चे भी होते हैं तो हम इसका स्वागत करेंगे। क्योंकि पारसी समाज के अस्तित्व की बात है।
 
ऐसे ही बौद्ध, जैन, ईसाई की जनसंख्या की वृद्धि की दर बहुत ही कम है। वो ख़ुद चिंतित हैं। तो जो हर बात में हिंदू-मुस्लमान किया जाता है, ये औपनिवेशिक परिवेश का प्रोडक्ट है।

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