दृश्यम : फिल्म समीक्षा

देखी हुई बात जरूरी नहीं है कि सच हो, इस बात के इर्दगिर्द घूमती है फिल्म निर्देशक निशिकांत कामत की 'दृश्यम'। दक्षिण भारतीय भाषाओं में यह फिल्म धूम मचा चुकी है और हिंदी में इसे 'दृश्यम' नाम से ही पेश किया गया है।
 
कहानी है विजय सालगांवकर (अजय देवगन) की जो गोआ में केबल ऑपरेटर है। चौथी फेल, अनाथ और मध्यमवर्गीय विजय के परिवार में पत्नी नंदिनी (श्रिया सरन) और दो बेटियां हैं। उसकी जिंदगी बिना परेशानी के बीत रही है और उसने कई बातें फिल्म देख कर ही सीखी हैं। आईजी मीरा देशमुख (तब्बू) का बेटा गायब हो जाता है और शक के दायरे में सालगांवकर परिवार आ जाता है। 
 
मीरा को पूरा यकीन है कि उसके बेटे के गायब होने का राज विजय जानता है, लेकिन सारे सबूत इस बात को नकारते हैं। सबूतों के जरिये विजय भ्रम का जाल रच देता है कि मीरा उसमें उलझ जाती है। क्या सचमुच में विजय का परिवार अपराधी है या उसे फंसाया जा रहा है? इस बात का उत्तर मिलता है थ्रिलर 'दृश्यम' में। 
दृश्यम की कहानी की विशेषता यह है कि किसी बात को दर्शकों से छिपाया नहीं गया है। अपराधी सामने है और पुलिस उस तक कैसे पहुंचती है इसको लेकर रोमांच पैदा किया गया है। साथ ही व्यक्ति अपने परिवार को किसी भी मुसीबत से बचाने के लिए किस हद तक जा सकता है इस बात को भी कहानी में प्रमुखता दी गई है। 
 
फिल्म की शुरुआत बेहद सुस्त है और जो पारिवारिक दृश्य दिखाए गए हैं वो अपील नहीं करते। कॉमेडी भी बेतुकी लगती है। सालगांवकर परिवार के साथ जो हादसा दिखाया गया है वो लेखक ने अपनी सहूलियत के मुताबिक लिखा है। विजय को मध्यमवर्गीय परिवार का दिखाया है, लेकिन जैसा जीवन वह जीता है वो इस बात से मेल नहीं खाता। 
 
विजय रात भर सिर्फ फिल्म देखने के‍ लिए अपने ऑफिस में क्यों बैठा रहता है? वह मोबाइल फोन का उपयोग नहीं करता। ऑफिस का फोन भी उठाकर रख देता है। ये सारी बातें इसलिए दिखाई गई हैं कि उसके घर होने वाले हादसे के समय वह मौजूद नहीं हो और न ही घर वाले उससे सम्पर्क कर सके। 
 
विजय का पुलिस इंसपेक्टर गायतुंडे से पंगा लेना वाला सीन भी सिर्फ इसलिए रखा गया है कि दोनों में दुश्मनी हो। ये कमजोरियां फिल्म के पहले हाफ को कमजोर करती है। साथ ही फिल्म की लंबाई आपके धैर्य की परीक्षा लेती है। कहानी का सीमित किरदारों के इर्दगिर्द घूमना भी फिल्म की अपील को कम करता है।
 
फिल्म ट्रेक पर तब आती है जब तब्बू की एंट्री होती है और आईजी के बेटे के गायब होने के बाद पुलिस हरकत में आती है। चोर-पुलिस का खेल शुरू होता है और अगले पल क्या होने वाला है इस बात का रोमांच दर्शक महसूस करते हैं। स्क्रिप्ट की खास बात यह है कि सालगांवकर परिवार के तनाव को दर्शक महसूस करते हैं इसलिए पूरी फिल्म में कुछ कमजोरी के बावजूद रूचि बनी रहती है। यह देखना दिलचस्प लगता है कि किस तरह सालगांवकर परिवार चुनौतियों से निपटता है। 

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बतौर निर्देशक निशिकांत का काम औसत से ऊपर है। पहले हाफ में वे निराश करते हैं। उनका प्रस्तुतिकरण सीधा और सरल है, जबकि थ्रिलर फिल्म होने के नाते वे अपने प्रस्तुतिकरण में कई उतार-चढ़ाव ला सकते थे। तारीफ उनकी इस बात के लिए की जा सकती है कि वे किरदारों को दर्शकों से जोड़ने में सफल रहे। 
 
अजय देवगन का अभिनय एक-सा नहीं है। कुछ दृश्यों में उनके उत्साह में कमी नजर आईं और वे असरदार नहीं रहे। श्रिया सरन का काम औसत दर्जे का है। तब्बू को एक सख्त पुलिस ऑफिसर दिखाया गया है, लेकिन उनके अभिनय में वैसी सख्ती नजर नहीं आई। इंसपेक्टर गायतोंडे के रूप में कमलेश सावंत का अभिनय बेहतरीन रहा है। 
 
एक चौथी फेल इंसान किस तरह अपने परिवार को बचाने के लिए अपनी स्मार्टनेस दिखाता है, यह फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है जो ड्रामे में रोमांच पैदा करता है। 
 
बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, पैनोरामा स्टुडियोज़
निर्माता : कुमार मंगत पाठक, अभिषेक पाठक, अजीत अंधारे
निर्देशक : निशिकांत कामत
संगीत : विशाल भारद्वाज
कलाकार : अजय देवगन, श्रेया सरन, तब्बू, रजत कपूर, इशिता दत्ता, कमलेश सावंत 
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 43 मिनट 33 सेकंड 
रेटिंग : 3/5

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