विकास का वास्तविक खाका लेकिन क्रियान्वयन कैसे होगा?

शनिवार, 28 फ़रवरी 2015 (20:06 IST)
मोदी सरकार का पहला पूर्णकालिक बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री अरुण जेटली ने अर्थव्यवस्था में सुधारों को गति देने के लिए एक वास्तविक खाका पेश किया है। बजट की सबसे खास बात यह है कि राजग के बजट में आर्थिक वृद्धि के प्राथमिक संचालक के तौर पर सार्वजनिक निवेशों को अहम बताया गया है। वित्त मंत्री का कहना है कि सरकार की वित्तीय स्थिति को भलीभांति नियोजित की जाएगी। उन्होंने चरणबद्ध ढंग से कॉरपोरेट टैक्स को कम करने की घोषणा की है। साथ ही, कारोबार के रास्ते में आने वाली ढांचागत अवरोधों को समाप्त करने का वादा किया।

विदित हो कि वर्ष 2016 के वित्तीय वर्ष के लिए 1.25 लाख करोड़ की राशि को समूचे सार्वजनिक निवेश के लिए योजना रखी है। इसमें से भी बुनियादी संरचना के विकास के लिए 70 हजार करोड़ की राशि नियत की है। उन्होंने बुनियादी संरचना क्षेत्र के विकास के लिए बहुत सारे कदमों की भी घोषणा की है। उन्होंने सरकार के राजकोषीय घाटे को इस वर्ष 4.1 प्रतिशत तक सीमित रखने का फैसला किया, लेकिन अगले तीन वर्षों में इसे तीन फीसदी तक सीमित रखा जाएगा।

कॉरपोरेट टैक्स के 30 फीसदी से 25 फीसदी करने से अगले चार वर्षों तक कारपोरेट क्षेत्र को लाभ होगा। हालांकि आम आदमी के लिए बजट में कुछ नहीं है और उसे कुछ छिटपुट लाभ की राहत दी गई है। सरकार पर हाल ही में आरोप लगते रहे हैं कि यह बड़े उद्योगपतियों की समर्थक और किसान विरोधी है, इनका खंडन करने के लिए सरकार ने किसानों के लिए बड़ी मात्रा में फंड्‍स रखे हैं। जेटली ने माइक्रो-इरिगेशन के लिए 5300 करोड़ और किसानों के फार्म लोन के लिए बजट में 8.5 लाख करोड़ की राशि तय की है।  

बजट का एक बड़ा निष्कर्ष यह है कि राजकोषीय बोझ का एक बड़ा भाग सरकारी कर्जदारों, सरकारी बैंकों पर पड़ेगा और उन्होंने बैंकिंग सेक्टर में भी शुरुआत की है। उन्होंने सरकारी बैंकों में शीर्ष पदों पर नियुक्तियों के लिए एक स्वायत्तशासी संस्था बनाने की घोषणा की है। साथ ही, खराब कर्जों की तेजी से रिकवरी के लिए एक दीवालिया नियमावली बनाने की घोषणा की है। इस तरह के बदलाव बैंकिंग और अन्य वित्तीय संस्थानों के हित में होंगे क्योंकि खराब लोन के कारण इनकी सेहत पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है।

लेकिन बजट में एक महत्वपूर्ण पक्ष पर ध्यान नहीं दिया गया है। इसमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में पूंजी डालने की जरूरत को अनदेखा कर दिया गया है। अगर सरकार से बैंकों को समुचित पूंजीगत समर्थन नहीं मिलेगा तो इससे सरकारी बैंकों की सेहत और भी बदतर हो जाएगी, जबकि ये पहले से ही खराब कर्ज के दलदल में फंसे हुए हैं। विदित हो कि वर्ष 2014-15 के वित्तीय वर्ष के दौरान बैंकों को 11,200 करोड़ की पूंजी उपलब्ध कराने का वादा किया गया था लेकिन अब तक सरकार ने बैंकों अब तक 6,990 करोड़ रुपए कछेक बैंकों को दिए।

कुल मिलाकर बजट 2015 में अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए वे सारे तत्व मौजूद हैं जो कि यूपीए सरकारों के निराशावाद और लम्बे समय की मंदी से टूट चुकी थी। लेकिन बहुत इस बात पर निर्भर करता है कि निवेशक इस बजट को कैसे देखते हैं और शेयर बाजरों में इसे किस तरह लिया जाता है जिन्होंने पहले तो इसका स्वागत किया लेकिन बाद में इसका उत्साह काफूर हो गया।

बडे सुधारों की कमी के चलते उद्योग में मोदी सरकार को लेकर विश्वास कम हो रहा था और निवेशकों को सक्रिय होने के लिए इसका बेचैनी से इंतजार था। संशोधित आधार पर लाए गए सरकार की ऊंची वृद्धि के आंकड़ों ने उद्योग के काफी बड़े क्षेत्र और अर्थशास्त्रियों को प्रभावित नहीं किया था। उनका कहना था कि बताए गए आंकड़े जमीनी हकीकत से मेल नहीं खाते हैं। यह अंतर प्रमुख मैक्रो-इकानॉमिक संकेतकों जैसे बैंक क्रेडिट ग्रोथ, उत्पादन में धीमी वृद्धि, वित्तीय सेवाओं के क्षेत्रों में और निराशाजनक टैक्स कलेक्शन्स से साफ दिखाई देता था।

प्राथमिक दृष्टि से तो जेटली ने अर्थव्यवस्था के बदलाव के लिए चीजों को बदलने का एक स्पष्ट रोडमैप दिया है लेकिन विकास में इस 'अभूतपूर्व बदलाव' का सारा दारोमदार समुचित क्रियान्वयन पर रहेगा क्योंकि पिछली योजनाओं, जैसे मनरेगा, के क्रियान्वयन का हाल देखा जा चुका है और ये भारी भरकम योजनाएं बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और बंदरबांट का कारण भी बनती रही हैं।  

 

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