मोबाइल पर आने वाला हर ‘नोटि‍फि‍केशन’ आपके दिमाग को गुलाम बनाने की एक साजिश है, ‘द सोशल डि‍लेमा’ यही कहती है

वो आपको देख रहा है, जासूसी कर रहा है, आपके दिमाग को रीड कर रहा और ट्रैप भी। धीरे-धीरे आप उसके गुलाम बन जाएंगे और आपको पता भी नहीं चलेगा कि आप उसके गुलाम हो चुके हैं, क्‍योंकि उसके लिए आप सिर्फ एक यूजर हैं। यूजर शब्‍द का इस्‍तेमाल सिर्फ दो धंधों में होता है, एक इंटरनेट में और दूसरा ड्रग में।  

शायद कभी आपने ध्‍यान नहीं दिया होगा, इंटरनेट पर जो भी हम सर्च करते हैं, (मान लीजिए हमने कोई किसी कंपनी के जूते गूगल पर सर्च कि‍ए) तो कुछ ही समय में आपके सोशल अकांउट जैसे फेसबुक पर भी अलग-अलग कंपनियों के जूतों के विज्ञापन नजर आने लगेंगे। किसी पोस्‍ट को लाइक करने पर आपको उसी तरह के विचारों की पोस्‍ट सजेस्‍ट की जाएगी।

आखि‍र, इसका क्‍या मतलब होता है? इसका मतलब हुआ कि इंटरनेट आपकी पसंद, नापसंद के बारे में बहुत अच्‍छी तरह से जानता है। यानि‍ इंटरनेट या सोशल मीडि‍या पर आपकी हर गति‍विधि‍ को ट्रेक किया जाता है, आपकी निगरानी की जाती है और शायद वो आपके बारे में इतना ज्‍यादा जानता है, जितना आप खुद भी अपने बारे में नहीं जानते हैं।

वो आपके दिमाग को रीड कर रहा है और उसी हिसाब से आपको अपने ट्रैप में फंसा रहा है। आपको लगता है कि आप सोशल मीडि‍या का उपयोग कर रहे हैं, लेकिन हकीकत में वो आपका इस्‍तेमाल कर रहा है। ए‍क सीमा के बाद तो आपको पता भी नहीं चलता है कि आप सोशल मीडि‍या के गुलाम हो चुके हैं, क्‍योंकि उसकी नजर में आप सि‍र्फ एक यूजर हैं, एक प्रोडक्‍ट।

इंटरनेट पर आपके खर्च किए गए हर क्षण का हिसाब हो, या आपकी स्‍क्रोलिंग, आप कहां रुके, क्‍या देखा, किसे इग्‍नौर किया और किसे लाइक किया। उसे आपके बारे में सबकुछ पता है।

हाल ही में आई डॉक्‍यूमेंटरी ‘द सोशल डि‍लेमा’ इसी बात का खुलासा करती है कि किस तरह सोशल मीडि‍या आपको यूजर बनाकर आपका इस्‍तेमाल कर रहा है।

यह फि‍ल्‍म देखने के बाद हो सकता है कि आपका माथा ही ठनक जाए या सोशल मीडि‍या और फोन के इस्‍तेमाल को लेकर आपका नजरिया ही बदल जाए।

यह डॉक्यूमेंट्री कहती है कि दुनिया में सिर्फ दो तरह के धंधों में आदमी का ‘यूजर’ कहा जाता है। पहला इंटरनेट या सोशल मीडिया का इस्‍तेमाल करने वाले को ‘यूजर’ कहा जाता है और दूसरा ड्रग्स का धंधा करने वालों को ‘यूजर’ कहा जाता है। जाहिर है हम भी सोशल मीडि‍या की लत के यूजर्स हैं।

दरअसल, सोशल मीडि‍या के पीछे उसे चलाने वाली मशीनें आपको मानसिक गुलाम बना सकती हैं, हालांकि ऐसा जानबुझकर नहीं किया गया, लेकिन अब ऐसा ही हो रहा है, क्‍योंकि इन मशीनों पर अब इंसान का भी कंट्रोल नहीं है।

‘द सोशल डि‍लेमा’ में बताया गया है कि यह सब कैसे होता है। फि‍ल्‍म के निर्देशक ओर्लोवस्की ने सोशल मीडिया कंपनियों में काम कर चुके दिग्गजों के इंटरव्यू की मदद से इसकी हकीकत की एक कहानी गढ़ी है।

वो सोशल मीडि‍या की हकीकत बयां करते हैं कि कैसे ‘सोशल’ कहे जाने वाले मीडि‍या से परिवार टूट रहे हैं, लोग आत्‍महत्‍या कर रहे हैं और इंसान के आत्‍मविश्‍वास में गि‍रावट आ रही है। क्‍यों‍कि जो लाइक आपके आत्‍मविश्‍वास को ब बढ़ाने के लिए रखा गया था, उसकी संख्‍या नहीं ब बढ़ने से आप डि‍प्रेशन में आ जाते हैं।

‘द सोशल डिलेमा’ में दिखाया गया है कि प्रति‍ क्षण आपको मोबाइल पर जो कुछ भी दिखया जा रहा है या उसके नोटि‍फि‍केशन एक साजिश का हिस्‍सा है। कहा जाता है कि किसी देश को गुलाम बनाना है तो वहां के लोगों को फेसबुक की लत लगा दो।

फि‍ल्‍म बताती है कि कैसे फेक न्‍यूज इन प्‍लेटफॉर्म से वायरल होती है और उसी को सच मान लिया जाता है। कैसे लोग एक दूसरे से बहस में उलझे हैं और एक दूसरे की बात को सुनने और स्‍वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं है। चिंता व्‍यक्‍त की गई कि अगर यही सब चलता रहा तो आने वाला भविष्‍य कैसा होगा। सोशल डि‍लेमा ही इस डॉक्‍यूमेंटरी का मैसेज है।

नेटफ्लि‍क्‍स पर रि‍लीज करीब डेढ घंटे की इस डॉक्‍यूमेंटरी में स्काइलर जिसोंडो, कारा हेवार्ड, विन्सेंट कार्थरीजर, ट्रिस्टान हैरि, सोफिया हैमन्स ने काम किया है। डेविस कूम्बे, विकी कर्टिस व जेफ ओर्लोवस्की ने फि‍ल्‍म लिखी है। जेफ ओर्लवस्की इसके निर्देशक हैं।

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