लगातार फिसल रहा है भारतीयों की खुशमिजाजी का स्तर

अनिल जैन

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020 (20:32 IST)
हमारे देश में पिछले करीब दो दशक से यानी जब से नव उदारीकृत आर्थिक नीतियां लागू हुई हैं, तब से सरकारों की ओर से आए दिन आंकड़ों के सहारे देश की अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर पेश की जा रही है और आर्थिक विकास के बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रहे सर्वे भी बताते रहते हैं कि भारत तेजी से आर्थिक विकास कर रहा है और देश में अरबपतियों की संख्या में भी इजाफा हो रहा है। इन सबके आधार पर तो तस्वीर यही बनती है कि भारत के लोग लगातार खुशहाली की ओर बढ़ रहे हैं। लेकिन हकीकत यह नहीं है।
 
हाल ही में जारी संयुक्त राष्ट्र की ‘वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट-2020’ में भारत को 144वां स्थान मिला है। पिछले वर्ष भारत 140वें पायदान पर था और उससे पहले यानी 2018 में 133वें और 2017 में 122वें पायदान पर था। इस बार सर्वे में शामिल 156 देशों में भारत का स्थान इतना नीचे है, जितना कि अफ्रीकी महाद्वीप के कुछ बेहद पिछड़े देशों का है। यानी इन देशों के नागरिक भी भारतीयों के मुकाबले ज्यादा खुश हैं।
 
हमारी फलती-फूलती अर्थव्यवस्था और आर्थिक विकास के तमाम दावों की खिल्ली उड़ाने और आईना दिखाने वाली यह रिपोर्ट बता रही है कि खुशमिजाजी के मामले में भारत का मुकाम दुनिया के तमाम विकसित और विकासशील देशों से ही नहीं बल्कि पाकिस्तान समेत तमाम छोटे-छोटे पड़ोसी देशों और युद्ध से त्रस्त फिलिस्तीन से भी पीछे है।
 
संयुक्त राष्ट्र का एक संस्थान 'सस्टेनेबल डेवलपमेंट सॉल्यूशन नेटवर्क’ (एसडीएसएन) हर साल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सर्वे करके 'वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट’ को जारी करता है। इसमें अर्थशास्त्रियों की एक टीम समाज में सुशासन, प्रति व्यक्ति आय, स्वास्थ्य, जीवित रहने की उम्र, दीर्घ जीवन की प्रत्याशा, सामाजिक सहयोग, स्वतंत्रता, उदारता आदि पैमानों पर दुनिया के सारे देशों के नागरिकों के इस अहसास को नापती है कि वे कितने खुश हैं। 
 
इस साल जो ‘वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट’ जारी हुई है, उसके मुताबिक भारत उन चंद देशों में से है, जो नीचे की तरफ खिसके हैं। हालांकि भारत की यह स्थिति खुद में चौकाने वाली नहीं है। लेकिन यह बात ज़रूर ग़ौरतलब है कि कई बड़े देशों की तरह हमारे देश के नीति-नियामक भी आज तक इस हक़ीक़त को गले नहीं उतार पाए हैं कि देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) या विकास दर बढ़ा लेने भर से हम एक खुशहाल समाज नहीं बन जाएंगे।
 
यह तथ्य भी कम दिलचस्प नहीं है कि 66वें स्थान पर पाकिस्तान, 87वें स्थान पर मालदीव, 92वें स्थान पर नेपाल, 94वें स्थान पर चीन और 107वें स्थान पर रहे बांग्लादेश, जैसे मुल्क भी इस रिपोर्ट में आखिर हमसे ऊपर क्यों हैं, जिन्हें हम स्थायी तौर पर आपदाग्रस्त देशों में ही गिनते हैं।
 
हमारे अन्य पड़ोसी देश श्रीलंका, म्यांमार और भूटान भी हमसे ज्यादा खुशहाल हैं। सार्क देशों में सिर्फ अफ़ग़ानिस्तान ही खुशमिजाजी के मामले में भारत से पीछे है। अलबत्ता लगातार युद्ध से आक्रांत फिलिस्तीन भी इस सूची में भारत से बेहतर स्थिति में है। दिलचस्प बात है कि आठ साल पहले यानी 2013 की रिपोर्ट में भारत 111वें नंबर पर था।
 
दरअसल, यह रिपोर्ट इस हक़ीक़त को भी साफ तौर पर रेखांकित करती है कि केवल आर्थिक समृद्धि ही किसी समाज में खुशहाली नहीं ला सकती। इसीलिए आर्थिक समृद्धि के प्रतीक माने जाने वाले अमेरिका, ब्रिटेन और संयुक्त अरब अमीरात भी दुनिया के सबसे खुशहाल 10 देशों में अपनी जगह नहीं बना पाए हैं।
 
रिपोर्ट में फिनलैंड को दुनिया का सबसे खुशहाल मुल्क बताया गया है। वह लगातार तीन साल से शीर्ष पर बना हुआ है। उससे पहले वह पांचवें स्थान पर था लेकिन एक साल में ही वह पांचवें से पहले स्थान पर आ गया। फिनलैंड को दुनिया में सबसे स्थिर, सबसे सुरक्षित और सबसे सुशासन वाले देश का दर्ज़ा दिया गया है। वह कम से कम भ्रष्ट है और सामाजिक तौर पर प्रगतिशील है। उसकी पुलिस दुनिया में सबसे ज्यादा साफ-सुथरी और भरोसेमंद है। वहां हर नागरिक को मुफ्त इलाज की सुविधा प्राप्त है, जो देश के लोगों की खुशहाली की बड़ी वजह है।
 
फिनलैंड के बाद क्रमश: डेनमार्क, स्विट्जरलैंड, आइसलैंड, नार्वे, नीदरलैंड, स्वीडन, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रिया और लग्ज़मबर्ग हैं। इन सभी देशों में प्रति व्यक्ति आय काफी ज्यादा है। यानी भौतिक समृद्धि, आर्थिक सुरक्षा और व्यक्ति की प्रसन्नता का सीधा रिश्ता है। इन देशों में भ्रष्टाचार भी कम है और सरकार की ओर से सामाजिक सुरक्षा काफी है।
 
इन देशों में लोगों पर आर्थिक सुरक्षा का दबाव कम है, इसलिए जीवन के फ़ैसले करने की आज़ादी भी ज्यादा है। जबकि भारत की स्थिति इन सभी पैमानों पर बहुत अच्छी नहीं है। हम पाकिस्तान, बांग्लादेश और ईरान से भी बदतर स्थिति में है। लेकिन इस हक़ीक़त की वजह शायद यह है कि भारत में विकल्प तो बहुतायत में हैं, लेकिन सभी लोगों की उन तक पहुंच नहीं है। फिर भारत में जितनी आर्थिक असमानता है, वह भी लोगों में असंतोष या मायूसी पैदा करती है। मसलन, भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च ज्यादा होता है लेकिन स्वास्थ्य के मानकों के आधार पर पाकिस्तान और बांग्लादेश हमसे बेहतर स्थिति में हैं।
 
दरअसल, किसी देश की समृद्धि तब मायने रखती है, जब वह नागरिकों के स्तर पर हो। भारत और चीन का जोर अपने आम लोगों की खुशहाली के बजाय राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ाने पर रहता है। इसलिए आश्चर्य की बात नहीं कि लंबे समय से जीडीपी के लिहाज से दुनिया में अव्वल रहने के बावजूद चीन ‘वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट’ में 94वें स्थान पर है। अमेरिका सबसे अधिक उन्नत देश है, लेकिन डोनाल्ड ट्रंप की ‘कृपा’ से वह अब कई पायदान नीचे उतर गया है।
 
सूचकांक में बताई गई भारत की स्थिति चौंकाती भी है और चिंतित भी करती है। चौंकाती इसलिए है कि हम भारतीयों का जीवन दर्शन रहा है- 'संतोषी सदा सुखी।' हालात के मुताबिक़ खुद को ढाल लेने और अभाव में भी खुश रहने वाले समाज के तौर पर हमारी विश्वव्यापी पहचान रही है।
 
दुनिया में भारत ही संभवतः एकमात्र ऐसा देश है जहां आए दिन कोई न कोई तीज-त्योहार-व्रत और धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सवों का आयोजन होता रहता है, जिनमें मगन रहते हुए ग़रीब से ग़रीब व्यक्ति भी अपने सारे अभाव और दुख-दर्द को अपना प्रारब्ध मानकर खुश रहने की कोशिश करता है। 
 
इसी भारत भूमि से वर्धमान महावीर ने अपरिग्रह का संदेश दिया है और इसी धरती पर बाबा कबीर भी हुए हैं जिन्होंने इतना ही चाहा है जिससे कि उनकी और उनके परिवार की दैनिक ज़रूरतें पूरी हो जाएं और दरवाजे पर आने वाला कोई साधु-फकीर भी भूखा न रह सके। लेकिन दुनिया को योग और अध्यात्म से परिचित कराने वाले इस देश की स्थिति में यदि तेजी से बदलाव आ रहा है और लोगों की खुशी का स्तर गिर रहा है तो इसकी वजहें सामाजिक मूल्यों में बदलाव, भोगवादी जीवन शैली और सादगी का परित्याग जैसे कारण हैं। 
 
आश्चर्य की बात यह भी है कि आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त भोग-विलास का जीवन जी रहे लोगों की तुलना में वे लोग अधिक खुशहाल दिखते हैं जो अभावग्रस्त हैं। हालांकि अब ऐसे लोगों की तादाद में लगातार इजाफा होता जा रहा है जिनका यकीन 'साईं इतना दीजिए...' के कबीर दर्शन के बजाय 'ये दिल मांगे मोर' के वाचाल स्लोगन में है। यह सब कुछ अगर एक छोटे से तबके तक ही सीमित रहता तो, कोई खास हर्ज नहीं था। लेकिन मुश्किल तो यह है कि 'यथा राजा-तथा प्रजा' की तर्ज पर ये ही मूल्य हमारे राष्ट्रीय जीवन पर हावी हो रहे हैं।
 
जो लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं या जिनकी आमदनी सीमित है, उनके लिए बैंकों ने ‘ऋणं कृत्वा, घृतम्‌ पीवेत’ की तर्ज पर क्रेडिट कार्डों और कर्ज के जाल बिछाकर अपने खजाने खोल रखे हैं। लोग इन महंगी ब्याज दरों वाले कर्ज और क्रेडिट कार्डों की मदद से सुख-सुविधा के आधुनिक साधन खरीद रहे हैं।
 
शान-ओ-शौकत की तमाम वस्तुओं की दुकानों और शॉपिंग मॉल्स पर लगने वाली भीड़ देखकर भी इस वाचाल स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। कुल मिलाकर हर तरफ लालसा का तांडव ही ज्यादा दिखाई पड़ रहा है। तृप्त हो चुकी लालसा से अतृप्त लालसा ज्यादा खतरनाक होती है। 
 
भारतीय आर्थिक दर्शन और जीवन पद्धति के सर्वथा प्रतिकूल ‘पूंजी ही जीवन का अभीष्ट है’ के अमूर्त दर्शन पर आधारित नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों और वैश्वीकरण से प्रेरित बाजारवाद के आगमन के बाद समाज में बचपन से अच्छे नंबर लाने, करियर बनाने, पैसे कमाने और सुविधाएं-संसाधन जुटाने की एक होड़ सी शुरू हो गई है। इसमें जो पिछड़ता है, वह निराशा और अवसाद का शिकार हो जाता है, लेकिन जो सफल होता है वह भी अपनी मानसिक शांति गंवा बैठता है। 
 
एकल परिवारों के चलन ने लोगों को बड़े-बुजुर्गों के सानिध्य की उस शीतल छाया से भी वंचित कर दिया है जो अपने अनुभव की रोशनी से यह बता सकती थी कि जिंदगी का मतलब सिर्फ सफल होना नहीं, बल्कि उसे समभाव से जीना भी है।
 
दरअसल, विकास और बाजारवाद की वैश्विक आंधी ने कई मान्यताओं और मिथकों को तोड़ा है। कुछ समय पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक अध्ययन रिपोर्ट में भी बताया गया था कि भारत दुनिया में सर्वाधिक अवसादग्रस्त लोगों का देश है, जहां हर तीसरा-चौथा व्यक्ति अवसाद के रोग से पीड़ित है। यह तथ्य भी इस मिथक की कलई उतारता है कि विकास ही खुशहाली का वाहक है। 
 
विपन्नता और बदहाली के महासागर में समृद्धि के चंद टापू खड़े हो जाने से पूरा महासागर समृद्ध नहीं हो जाता। संयुक्त राष्ट्र का प्रसन्नता सूचकांक और विश्व स्वास्थ्य संगठन का भारत को सर्वाधिक अवसादग्रस्त देश बताने वाला सर्वे इसी हक़ीक़त की ओर इशारा करता है। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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