सोच समझ वालों को थोड़ी.... नादानी दे मौला

कैलेंडर के बदल जाने और उसी सूरज को नई रोशनी में देखकर सलाम करने की कवायद एक बार फिर सामने है। हम ईस्वी सन 2015 से 2016 में प्रवेश करेंगे। कितना ही तर्क-वितर्क कर लो, ये अनुभूति है बड़ी जोरदार। और खेल सारा अनुभूति, अनुभव और भावनाओं का ही तो है...। यों कोई सचमुच ना तो तोरण सजा है, ना वंदनवार लगे हैं और ना ही कोई दरवाज़ा है कि जिससे गुजरकर आप 2015 को पीछे छोड़ते हुए 2016 में प्रवेश कर जाएँ!! ना इसके बाद सूरज अलग होगा ना चाँद..... अलग होगा तो हमारा नज़रिया।
कमाल तो इस नज़रिये का ही है जनाब। ये चाहे तो कठौती में गंगा और नहीं तो 101 डुबकियाँ भी बेकार। कुछ मामले हैं जहाँ ये नज़रिया पीछे रह जाता है, जैसे कि केवल नज़रिये से पेट नहीं भरता, ऐसा हो पाता तो पापी पेट का सवाल ही कहाँ रह जाता?
 
बहरहाल, बात तो नए साल की है और अपन तो इसको देखने के नज़रिए पर ही जमे रहें बस। 365 दिनों में पृथ्वी सूरज का पूरा एक चक्कर लगा लेती है और 24 घंटे में ख़ुद अपनी ही धुरी पर। ये तथ्य है, ये सत्य है और सारी कालगणना इसी पर टिकी भी हुई है। सो अपनी ही धुरी पर घूमते हुए भी सूरज के सामने से गुजरते रहना ही अपनी भी नियति भी है। अपन कोई पृथ्वी से अलग थोड़े ही हैं। अपनी नौकरी, परिवार, बच्चे, गाड़ी, कर्ज़ा, स्वास्थ्य, चिंता, जतन, परेशानी की छोटी-छोटी धुरियों पर घूमते हुए हम भी अपने जीवन की परिक्रमा पूरी कर रहे हैं। सो ईस्वी से गिनोगे तो कल यानी 1 जनवरी 2016 को साल बदल जाएगा और गुड़ी पाड़वा से गिनोगे तो चंद महीनों बाद। दुनिया तो फिलहाल जनवरी से दिसंबर का ही साल मान और मना रही है। अपने यहाँ दोनों ही मना लेते हैं। आख़िर जश्न का भी तो बहाना चाहिए।
 
और फिर एक दिन थर्टी फर्स्ट के नशे में चूर होकर देर रात तक बेसुध हो जाना है और दूसरी ओर सुबह जल्दी उठकर चैतन्य होकर सूरज को अर्घ्य देना है। गुड़-धानी बँटनी है। अब जो दोनों को ही मना रहे हैं वो कुछ तो अचेतन हैं और कुछ दोनों ही धुरियों पर घूमकर ख़ुद को खोज़ रहे हैं। और फिर वही अपना नज़रिया भी तो है ही!! ये मुई धुरी और ये नासपिटा नज़रिया तो अपना पीछा छोड़ने वाले हैं नहीं। 
 
तो इस बदलते कैलेंडर के साथ यादों के कुछ पन्ने भी उलट ही लेते हैं। साल 2014 की विदाई और 2015 की आगवानी हमने बहुत सारी उम्मीदों और चंद शंकाओं के साथ की थी। (जो पढ़ना चाहते हैं वो यहाँ देख सकते हैं)। और जैसा कि होता है उम्मीदें तो कम ही पूरी हुई हैं और शंकाएँ बहुतेरी सही साबित हो गईं। नज़रिया तो अपना सकारात्मक ही था।

ख़ैर, उम्मीद तो अपनी यही थी कि नए साल का सूरज बंदूक की नली से ना निकले और शंका ये थी कि फिज़ाओं में फैली बारूद चिंगारी ना पकड़ ले। पर पेरिस से लेकर कैलिफोर्निया तक कई जगह ये सूरज बंदूक की नली से ही निकला। मज़हबी बारूद को तेल के खेल और दुनिया के चौधरियों के मेल ने नई चिंगारी दी। घटनाएँ, गिनती और आँकड़े हम सभी जानते हैं। राजनीतिक धरातल पर भी ख़ूब हलचल हुई। अच्छे दिनों के सपनों पर कई सवाल खड़े हुए।
 
असहिष्णुता के गुबार ने भी सच के सामने परदा खड़ा करने की कोशिश की। पर अच्छी बात यही है कि अपना उम्मीदों वाला नज़रिया भी मुस्कराता रहा। ना उसे असहिष्णुता की चिंगारी ही जला पाई ना ही नक्सल का बारूद उसे उड़ा पाया। जो लोग रंग-ओ-मज़हब की लड़ाई में वक्त ज़ाया कर रहे हैं, वो ये भूल रहे हैं कि धूप, हवा, पानी और ख़ून के रंग में पूरी धरती पर कहीं कोई अंतर नहीं है। उनके लिए तो निदा साहब की इन पंक्तियों को ही याद किया जा सकता है –
 
दो और दो का जोड़ हमेशा, चार कहाँ होता है
सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला
 
एक और बड़ा और गंभीर मसला जिस पर दुनिया में भी चर्चा हुई और देश में भी हो रही है वो है बदलते पर्यावरण की। उसी पेरिस में चर्चा हुई जहाँ चंद रोज़ पहले धमाके हुए थे। दिल्ली में तो सम-विषम संख्या की गाड़ियों के आधार पर जहरीले धुएँ से निपटने की कोशिश हो रही है। जिस चीन की प्रगति से दुनिया हतप्रभ थी और हम भी जल रहे थे, उसी तरक्की के धुएँ ने चीन की फिजाओं को इतना जहरीला कर दिया कि वहाँ स्कूल बंद करने पड़ रहे हैं।
 
इंसान भी अजीब शै है ख़ुद ही धुआँ उगलता है और ख़ुद उसके ज़हर से बचने के उपाय भी करता है। हमें तरक्की और सुख-चैन की धुरियों पर एक साथ घूमना आता कहाँ है? हमें इस हाल में देखकर एक साल और बूढ़ी हो रही पृथ्वी भी बस तरस ही खाती होगी।
 
तो फिर एक बार अपने उसी नज़रिए से ये उम्मीद कि शंका के बादल छँटेंगे, उम्मीद का उजाला होगा और हम क्षितिज से उगने वाले सूरज को नए जोश, नई ऊर्जा और चेतना के साथ सलाम करेंगे ..... अपनी-अपनी धु‍रियों पर घूमते हुए भी।

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