एक पेड़ की कहानी सुनें-3

* स्वाति शैवा
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जिम्मेदारी उठाने का समय- मैं पूरे 17 फीट का हो चुका हूँ और आज मेरी शाखाओं पर नए मौर फूटे हैं। सच सृजन के इस आनंद को मैं शब्दों में नहीं बता सकता। आस-पास खड़े सभी साथियों ने मुझे बधाई दी है। मेरे सर पर चिड़ियों ने दो घर बनाए हैं। अब बस इंतज़ार है इन मौर के फलों में बदलने का। माँ कहती है, मनुष्यों से लेकर पंछियों तक को मेरे फल बहुत अच्छे लगते हैं। काश ये फल जल्दी से लग जाएँ और मैं लोगों को इनका स्वाद चखा सकूँ!

जिस कॉलोनी के पास मेरा घर है वहाँ के लोग और आने वाले राहगीर मुझे देखकर खुश होते हैं। बस एक ही बात है जो मुझे थोड़ी अजीब लगती है, कि कई लोग फलों के आने से पहले ही मौर को यूँ ही तोड़ ले जाते हैं। मुझे दुख होता है क्योंकि वो नन्हें शिशु मौर अभी थोड़ा ही जीवन देख पाए थे। काश, लोग उन्हें कुछ दिन और मेरे साथ रहने देते !

अब मैं फल देता हूँ-- आखिर वो दिन आ ही गया जिसकी मुझे लंबे समय से प्रतीक्षा थी। खट्टी कैरियों से मेरी शाखाएँ लद गई हैं।अब तो रोज ही कोई न कोई कभी डंडे से तो कभी पत्थरों से कैरियाँ तोड़ने में जुटा रहता है। इससे तकलीफ तो होती है लेकिन लोगों की खुशी देखकर मिलने वाला आनंद सारी तकलीफ मिटा देता है।

फिर मेरे सभी बुजुर्गों ने और माँ ने मनुष्यों की बनाई एक कहावत मुझे बताई है कि सज्जन लोग जिस तरह विनम्र होते हैं, ठीक वैसे ही फलदार वृक्षों को भी झुक कर नम्रता से रहना चाहिए और लोगों के काम आना चाहिए। चाहे लोग उन्हें पत्थर ही क्यों न मारें। वैसे सबसे ज्यादा मज़ा आता है बच्चों के खेल में।

न तो वे बेचारे मेरे फलों तक पहुँच पाते हैं न ही उनके पत्थर। तब मैं ही हवा से कहकर थोड़े फल नीचे गिरा देता हूँ या किसी पत्थर के लगने पर फल को खुद ही नीचे फेंक देता हूँ। मेरी ये छोटी सी कोशिश उनको दुनियाभर की खुशी दे जाती है। मुझे अपने फलदार होने पर गर्व है।