हो लें प्रकृति‍ के साथ.....

- अरुंधति‍ आमड़ेक
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अकेलापन कभी-कभी अपने आप में बहुत सुखद लगता है, अक्‍सर ये हमें अनायास ही प्रकृति‍ से जोड़ देता है। कई बार आपको लगा होगा जैसे मीलों कहीं दूर नि‍कल जाएँ, हवा की सरसराहट के साथ, पत्तों की टकराहट को सुनते हुए, कहीं दि‍शाहीन हो जाएँ। और अचानक अपने आपको सि‍र्फ और सि‍र्फ प्रकृति‍ के साथ पाएँ।

प्रकृति वास्‍तव में मानव की सच्‍ची सहचरी है। जब कोई आपके साथ नहीं होता तो आप प्रकृति‍ के साथ हो लेते हैं या शायद वो आपके साथ हो लेती है। मनुष्‍य जीवन में जो कमी प्रकृति‍ पूरी कर सकती है वो कोई दूसरा नहीं कर सकता। हम अपने भौति‍क जीवन की आपाधापी में भले कभी प्रकृति‍ के बारे में सोचना भूल जाएँ लेकि‍न ये हमेशा हमें अपने होने का एहसास कराती है। प्रकृति‍ माँ की तरह हमें अदृश्‍य रूप में सब कुछ देती है। मई-जून की कड़ी धूप और गरम हवाओं से जब हम झुलस जाते हैं तो अचानक ही वो बादलों का आंचल हम पर ओढ़ा देती है और बारि‍श की पहली फुहार से सारी उष्‍णता हर लेती है।

बहुत भाग्यशाली हैं हम जो मनुष्‍य रूप में इस इतनी अद्भुत, इतनी सुंदर प्रकृति‍ के दर्शन कर पाते हैं, उसे अनुभव कर पाते हैं, उसका आनंद ले पाते हैं। दूसरी तरफ उन लोगों के प्रारब्‍ध पर पछतावा भी होता है जो इसे देख नहीं सकते, सि‍र्फ महसूस कर सकते हैं।

प्रकृति‍ और साहि‍त्य का संबंध तो अटूट और प्रमाणि‍क माना जाता है। बहुत से कवियों, लेखकों और साहि‍त्‍यकारों ने अपनी कालजयी रचनाएँ प्रकृति‍ के सान्‍नि‍ध्‍य में लि‍खीं। जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', सुमि‍त्रानंदन पंत और रामकुमार वर्मा जैसे कवि‍यों को तो प्रकृति उपासक कवि कहा जाता है। प्रकृति‍ ने ही लोगों कवि‍, शायर और चि‍त्रकार बनाया है।

आमतौर पर हम झरनों की कल, पक्षि‍यों का कलरव, अनेक प्रकार के अन्‍न, फूलों की महक, बारि‍श की बूंदों, ठंडी हवाओं और पेड़ों के झूमने को ही प्रकृति‍ कहते हैं। लेकि‍न वास्‍तव में प्रकृति‍ अपने अनगि‍नत रूपों के साथ हमारे बीच वि‍द्यमान है। जहाँ वह एक ओर अपने मातृ सुलभ प्रेम को उपर्युक्त सभी रूपों में प्रदर्शि‍त करती है तो दूसरी तरफ बि‍जली, तूफान, आँधी, बवंडर, भूकंप, चक्रवात, ज्वालामुखी जैसे रौद्र रूपों में भी हमारे सामने आती है। ठीक वैसे ही जैसे माँ अपने बच्‍चे की शैतानि‍यों से तंग आकर व अपने धैर्य की पराकाष्‍ठा हो जाने पर उस पर बरस पड़ती है।

कवि‍यों की बात ओर है वो तो शीतल बयार को भी अपनी कवि‍ता का वि‍षय बना सकते हैं और आक्रांत ज्‍वालामुखी को भी। लेकि‍न, साधारण मनुष्‍य को अपने जीवन में सबकुछ साधारण, सरल और शांत हो ऐसी अपेक्षा होती है। सागर में आवाजाही करती लहरों को वो दूर से देखना पसंद करता है। क्‍योंकि‍ डूबते हुए को बचाना तो मुमकि‍न हो जाता है लेकि‍न जि‍से बहाव अपने साथ खींच ले उसका क्‍या कहा जा सकता है।

प्रकृति मानवीय संवेदनाओं में रची बसी है। जब भी हम दुखी होते हैं तब भी प्रकृति‍ की शरण लेते हैं और जब खुश होते हैं तब भी प्रकृति‍ का ही साथ चाहते हैं। कभी महसूस करके देखि‍ए ये आपके साथ रोती है और आपके साथ हँसती भी है।