बड़ी मुद्दत से मिलती है ऐसी दोस्ती

- नीहारिका झा


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जिस तरह जोडियाँ स्वर्ग में बनने की बात लोग करते हैं, शायद सच्ची दोस्ती भी स्वर्ग में ही बनती होगी। तभी तो लोग एक बार अपने खून के संबंध को भूल जाते हैं, लेकिन अपने सच्चे दोस्त को कभी भुला नहीं पाते। जहाँ रिश्तों में भौतिकता अहम हो गई है, उससे भला दोस्ती भी अछूती कैसे रह पाती। अब दोस्त भी अच्छा-बुरा, ऊँच-नीच देखकर ही बनते हैं, तभी तो दोस्ती का वास्तविक सौंदर्य खोता जा रहा है।

बचपन का वह भोलापन, नन्ही उँगलियाँ थामे चलता दोस्तों का झुंड, यह दृश्य तो आम है, लेकिन यह झुंड कब टूटकर टुकड़ों में बिखर जाता है, पता भी नहीं चलता। वक्त के साथ लोग आगे बढ़ते जाते हैं और पुराना साथ छूटने लगता है। बचपन में मिला दोस्तों का निश्छल सान्निध्य आजीवन बना रहे, ऐसा विरले ही हो पाता है, लेकिन मुझे एक ऐसा वाकया याद आ रहा है, जो इस बात को झुठलाता है। ऐसी दोस्ती, जिसकी नींव बचपन में ही पड़ी और वह आज भी वैसे ही बरकरार है।

यह बात सन् 1984 की। भोला-भाला, लेकिन समझदार-सा बच्चा नाम है पंकज। बैलगाड़ी से इतर पहली बार उसने देखा था कि गाडि़याँ इस कदर सरपट सड़कों पर दौड़ती हैं। शहर के स्कूल में उसने नया-नया एडमिशन लिया है। अपने बड़े भाई के पास पढ़ने आया है। उसकी आँखों में ढेर सारे सपने हैं। स्कूल का पहला दिन अलग-अलग चेहरों के बीच वह बच्चा भी खुद अपनी पहचान तलाशने की कोशिश करता है। दूर कोने में उसे ऐसा ही अपना-सा चेहरा दिख जाता है। वैसे वह बच्चा यानी विवेक भी सहमा-सहमा-सा सारे बच्चों को निहार रहा था।

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कहते हैं कि जिसके साथ बीतती है, वही दूसरों का दर्द समझ सकता है और हुआ भी यही। उन दोनों के लिए ही यह शहर अनजाना और अनदेखा था। जब दोनों आमने-सामने हुए तो खुद को एक ही कक्षा में पाया। दोनों की दोस्ती प्रगाढ़ होती गई और वक्त बीतता गया। दोनों अब इंजीनियरिंग की तैयारी में जुटे हैं। गाँव का वह भोला-भाला बच्चा अब उतना ही समझदार हो गया था। किस्मत की बात थी। उसका चयन इंजीनियरिंग में नहीं हो पाया, लेकिन विवेक बाजी मार ले गया और पढ़ने के लिए बंगलोर (अब चेन्नई) आ गया और पंकज अपने भाई के पास ही रह गया।

वक्त अपनी रफ्तार से बढ़ता गया और पंकज के साथ अनहोनी हो गईकंधे पर लगी चोट ने कैंसर का रूप ले लिया था। उसे कोलकाता ले जाया गया। विवेक भागकर उसके पास पहुँचा। खैर, नियति को कुछ और ही मंजूर था। उसके बड़े भाई उसे लेकर बंबई आ गए और कैंसर वाली रिपोर्ट गलत निकली। ‍तब जाकर सबकी जान में जान आई। विवेक की खुशी का तो मानो ठिकाना ही नहीं रहा।

समय की चाल तेज होती गई और साथ ही दोनों दोस्तों की जिंदगी भी। आज दोनों का भरा-पूरा परिवार है। विवेक अपनी पत्नी और बच्चों के साथ कनाडा चला गया और पंकज उसी शहर में वकालत कर अपने परिवार के साथ रह रहा है। इतने सालों बाद भी दोनों की दोस्ती वैसी ही बनी हुई है, जैसी की उसकी नींव पड़ी थी। आज भी विवेक कनाडा से उसी उतावलेपन से फोन करता है और जब भी भारत आने का मौका मिलता है, पंकज से मिले बिना नहीं जाता। पंकज को उसके फोन या आने का इंतजार आज भी हमेशा रहता है