चार दिन की दोस्ती...

- पंकजोश

SubratoND
बाहर तेज़ बारिश हो रही थी। बूँदों की टप-टप के बीच बाहरी दुनिया का शोर मंद पड़ रहा था। तंग गली के छोटे से, मगर पक्के मकान में रहने वाला व्यक्ति तेज़ बारिश में भी कुछ देखने का प्रयास कर रहा था। वहीं बाहर खड़े बच्चे अपने दोस्तों के साथ टोलियों में कभी पानी, तो कभी एक-दूसरे से ठिठोली करते नज़र आते

बादलों ने बाहर सब कुछ भीगो दिया था, किंतु फिर भी अंदर बैठे सुबोध का मन सूखा था। अगस्त के पहले रविवार को वह घर को सजाकर, खुद कलफ का कुर्ता पहने बैठा था। मानो किसी ख़ास के आने की आस थी उसे। बात थी ही कुछ ऐसी। इस ‘फ़्रेंडशिप ड’ पर उसका दोस्त अपूर्व उससे मिलने आने वाला था। दरअसल, सुबोध ने उसे बुलाया था। सुबोध उसी यार की प्रतीक्षा में बारिश की बूँदों को छूकर पुराने दिनों का एहसास पाने की कोशिश करने लगा

उसे वे दिन याद आने लगे, जब दोनों साथ-साथ थे। साइकिल के दो पहियों की तरह एक ही दिशा में, एक ही गति से चलने वाले दो अलग-अलग लोग। मोहल्ले की मस्ती, स्कूल का साथ, कॉलेज की कहानियाँ और वो सारी बातें उस बारिश में सुबोध की आँखों में तैर गईं। कुछ पुराने लोगों से उसे अपूर्व का नंबर मिल गया था। वह अपने मित्र से वर्षों के बाद मिलना चाहता था। उसके साथ बैठकर कल-आज-कल की बातें करने का मन था। इसलिए उसने उसे अपने छोटे-से ठिकाने पर आने का निमंत्रण दे दिया

उत्सुकता, उत्साह, प्रसन्नता, बैचेनी, घबराहट और एक अजीब से डर के भावों के कारण सुबोध के चेहरे की एक अलग ही तस्वीर उभर रही थी। एकाएक, बारिश की आवाज़ को चीरते हुए एक हॉर्न की आवाज़ गूँज गई। अपूर्व लंबी-चौड़ी गाड़ी में घर के बाहर था। वर्षों बाद अपने यार को देख सुबोध का चेहरा चमक उठा, शायद उसके कुर्ते से भी ज़्यादा। दूसरी ओर अपूर्व के चहरे पर एक हल्की सी मुस्कुराहट आ गई।

अपूर्व गाड़ी से एक सुंदर लड़की के साथ उतरकर कमरे में आ गया। सुबोध उसे गले लगाने के लिए आगे बढ़ा पर अपूर्व ने अपने मित्र के लिए सीने के बजाय हाथ आगे बढ़ा दिया। एक तरफ़ सुबोध और उसके कमरे में सजे कुछ पुराने चित्र, लकड़ी की टूटी कुर्सी, एक टेबल और उसे पर रद्दी के भाव ख़रीदी गई पुरानी किताबों का ढेर देखकर और दूसरी तरफ कुलीन और धनी परिवार की लड़की होने से अपूर्व के चेहरे के रंग फीके पड़ गए, बिल्कुल श्वेत-श्याम चित्र की तरह। उसके चेहरे पर भाव ढूँढना मुश्किल था। उसने समय नष्ट नहीं करने का निश्चय किया

सुबोध को एक ओर ले जाकर वह तुरंत बोला, “अरे यार, क्या बताऊँ ! कितना बिज़ी हो गया हूँ। बिज़नेस और दूसरे कामों से फ़ुर्सत ही नहीं मिलती !!!

सुबोध के कान तो तरस ही रहे थे, वह बस सुन रहा था।

‘ये पायल है, चार दिन पहले ही इससे मिला हूँ। आज फ़्रेंडशिप डे की पार्टी है और बाद में मैं इसे प्रपोज़ कर दूँगा।’

सुबोध का सर घूमा और अपूर्व ने उसे हाँ समझ लिया।

“अच्छा अभी तो मैं चलता हूँ। बाद में कभी समय मिला तो फिर आऊँगा।’

इतना कहते ही वो दोनों घर के बाहर और गाड़ी के अंदर हो लिए

गाड़ी छींटे उड़ाती हुई सरपट गली के बाहर निकल गई। सुबोध को लगा कि उसका कुर्ता कीचड़ से मैला हो गया है। वर्षों बाद मिले यार के साथ बैठने, उससे हाल-चाल पूछने के सपने पानी में धुल गए। वह ‘दोस्ती में प्या’ और ‘प्यार के लिए दोस्त’ के बीच का अंतर समझने का प्रयास करने लगा। सुबोध खिड़की के पास बैठ गया। वह फिर से बारिश की बूँदों को छूना चाहता था। बारिश तो बंद हो गई थी, फिर भी सुबोध का मन भीग गया था।