दोस्ती: दिल का रिश्ता बड़ा ही प्यारा है

प्रकाश कुण्डलकर
'प्यार' और 'दोस्ती' में कोई बिल्कुल करीबी समानता है तो जवाब होगा जी हां। दोनों ही 'ढाई आखर' हैं। दोनों में ही न जाने जिंदगी के कितने खूबसूरत रंग समाए हैं। एक बार इन्हें 'हकीकत के कैनवास' पर उतारकर तो देखिए। और महसूसिए कितनी ताजगी लिए है प्यार और दोस्ती के ये रंग। रिश्तों में 'पहली पूजा' दोस्ती की होती है और फिर ही चढ़ता है प्यार का फूल।

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आज इसी दोस्ती को ताजा करने का दिन है। यानी कि 'फ्रेंडशिप-डे।' 'रिश्तों की दुनिया' का एक ऐसा रिश्ता जिसका आसमान बेछोर है, उम्र के बंधन न जिसे जकड़ सके हैं और न हैसियत की 'सांखलें' इस रिश्ते का कुछ बिगाड़ सकी हैं। यह रिश्ता अजर है, अमर है। द्वापर के 'कृष्ण-सुदामा' से 'कलि' के 'अमृता-इमरोज' तक।

इमरोज ने अमृता को लेकर 'दोस्ती' के लिए यह ठीक ही लिखा है-

दुनिया की, कोई भी प्राप्ति, प्राप्ति नहीं बनती, अगर जिंदगी में दोस्ती कामयाब न बने... दोस्ती का कोई बदल नहीं-

सच दोस्ती का रिश्ता ही ऐसा जो हर किसी के दामन से लिपटा है, कोई भी इसकी छुअन से बचकर नहीं निकल सका। बीते हुए प्यारे पलछिन, यानी बचपन की दोस्ती के दिन भी हमेशा यादों में मीठे बनकर स्वाद घोलते रहते हैं।

यकीनन दोस्ती ने जिंदगी को एक नया रूप दिया है- सुख-दुःख हर्ष-विषाद और आनंदातिरेक मन से जीवन के लिए शब्द दिए हैं। इन शब्दों में कहें तो किंचित भी अतिशयोक्ति नहीं होगी-

हर कही-अनकही बातों की जुबान है दोस्ती।
हर दुःख-दर्द की दवा है दोस्ती।

इसकी गहराइयों में तो उतरकर देखिए जनाब- यह एक अहसास है, जिसे सिर्फ रुह से महसूस किया जा सकता है- एक संतुलन है, एक सहारा है, एक शक्ति है और यह फैलाव है, जुड़ाव है, संबंध है, विश्वास है, खुशी है। बारिश के मौसम में आत्मा है यह दिन बरसती बूंदों की छुअन भी है। 'दर्शन' को बीच में लाएं तो यह आत्मा का आईना है और उस सिनेमा 'आनंद' के 'जीवन रंगमंच' पर जीवन की प्रतिकृति को टटोले, तो मंच पर कठिनाइयों से जूझती अपनी ही प्रतिकृति है दोस्ती।

जिंदगी का खूबसूरत रंग है दोस्ती, इसे देखने के लिए बचपन में लौटिए। चॉकलेट शेयर करते, स्कूल जाते, साथ खेलते, सड़क पर आगे निकलने की होड़ बस याद आने भर की देर है, मन उसी रास्ते पर दौड़ने लगता है बेफिक्र, बेपरवाह हो।

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इमरोज के शब्दों में- जिंदगी के रंगों में दोस्ती का रंग मिला लेना, एक नया रंग गढ़ना यकीनन स्वर्गिक आनंद की अनुभूति देना है। सचमुच यह सबसे सरल इबादत है बहते पानी जैसी... ना किसी शब्द की जरूरत। ना किसी जबान की मोहताजी, ना किसी वक्त की पाबंदी और ना ही कोई मजबूरी किसी को सिर झुकाने की। जिंदगी जीते-जीते, यह इबादत अपने आप हर वक्त होती भी रहती है और जहां पहुंचना होता है, पहुंचती भी रहती है। तभी तो देखिए न जिंदगी से सिनेमा के रुपहले परदे तक इसके बखान से बच न सके।

जब आप अपने पुराने यार से बातें करते हुए गुजरे लम्हों को याद करते हैं, आंखों की कोर गीली होने से रह नहीं पाती। अतीत के वो सुनहरे पल 'मस्तिष्क के स्क्रीन' पर 'यादों के प्रोजेक्टर' से खुद व खुद उतरने लगते हैं कितना हसीन है न यह रिश्ता। वक्त बदला है, पर दोस्ती के मायने नहीं बदले, न बदलेंगे। सच मानो इसकी सुगंध आपको ताजिंदगी तरोताजा ही रखेगी।

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