चुनाव चिंतन : बनारस के घाट पर भई नेतन की भीड़

-जयदीप कर्णिक
तो अरविंद केजरीवाल ने भी बनारस में मोदी से लड़ने की चुनौती स्वीकार कर ली है। बेनिया बाग में अपनी जनसभा में केजरीवाल ने जनता से हाथ उठवाया और उनका बनारस से लड़ना तय हो गया। अब 16 मई 2014 तक काशी, वाराणसी या बनारस की ये नगरी लोकतंत्र के इस महाअभियान का मरकज़ बनी रहेगी। कोई चाहे या ना चाहे... पर होगा यही।

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बनारस के घाटों से टकराने वाली गंगा की लहरों की ध्वनि पूरे हिंदुस्तान में सुनी जाएगी और बाकी दुनिया भी इस पर कान लगाए रहेगी। ये महज संयोग नहीं है कि हिंदुस्तान की राजनीति के संक्रमण काल के इन सबसे अहम चुनावों की पृष्ठभूमि में ऐतिहासिक और पौराणिक नगरी वाराणसी की पृष्ठभूमि रहेगी।

भारतीय जनता पार्टी ने और ख़ुद नरेंद्र मोदी ने बनारस को बहुत सावधानी से चुना है। वो अयोध्या नहीं गए हैं और बाबरी के कंकाल को भी अलमारी से नहीं निकालना चाह रहे हैं। इसमें बिहार और पूर्वांचल को निगाह में रखने की बात तो है ही लेकिन उस से भी बढ़कर असली ख़्वाहिश तो उस हिंदुत्व और राष्ट्रवाद को पिरोने की है जो अंतरधारा में बह रहा है। उस लिहाज से वाराणसी का चयन बेहद अहम भी है और इसके परिणाम भी दूरगामी होंगे।

बनारस की गंगा-जमुनी तहज़ीब में जहाँ कबीर का दर्शन गूँजता है वहीं बिस्मिल्ला खाँ साहब की शहनाई की भैरवी भी सुनाई देती है। वहाँ गंगा आरती के पावन स्वरों के बीच बनारसी साड़ी के बुनकरों की आवाज़ भी सुनाई देती है। जहाँ मोदी ने हर हर मोदी के जरिए घर-घर पहुँचने की कोशिश की और हिंदुत्व और राष्ट्रवाद आवाज़ दी वहीं केजरीवाल ने सुबह घाट पर जाकर गंगा में डुबकी लगाई और काशी विश्वनाथ के दर्शन किए वहीं शाम को अपने भाषण के दौरान अजान होने पर ख़ामोश हो कर मुस्लिम मतदाताओं को आवाज़ दी है। केजरीवाल की ये ख़ामोशी कितनों के दिल तक पहुँच पाएगी ये तो समय ही बताएगा।

ये मुकाबला दिलचस्प होगा इसमें कोई शक नहीं। मुकाबला सारे देश में होगा लेकिन ध्यान बनारस पर बराबर लगा रहेगा। बनारस की सांस्कृतिक समृद्धि और उसका आध्यात्मिक पौराणिक महत्व नकारा नहीं जा सकता पर ऐसे में पूर्वोत्तर के राज्यों और दक्षिण भारत की अनदेखी एक बड़ी चूक मानी जाएगी। बनारस में प्रतीकों की आड़ लिया जाना भी एक तरह से नुकसानदेह है।

कोई घाट पर डुबकी लगा रहा है और मंदिर-मंदिर जा रहा है, कोई घर-घर विराज कर हर किसी को हर लेना चाहता है...इन पुरातन प्रतीकों की आड़ क्यों ली जा रही है?....ये तो हज़ारों सालों से वहीं हैं जहाँ थे...इसके इर्द-गिर्द जीने वाली जनता का क्या? वो भी बरसों से यों ही छली जा रही है...परिपक्व होते लोकतंत्र में इन प्रतीकों के परे जाकर उन मुद्दों पर बात होनी चाहिए जो इंसान की ज़िंदगी बेहतर बना सकें वर्ना तो गंगा और गंदली हो जाएगी....काम की बात करो, कब ठीक करोगे, कैसे ठीक करोगे...व्यावहारिक और ठोस योजना के साथ...चुनावी घोषणा पत्र किसी का नहीं आया...प्रतीक सब पूज रहे हैं....और हमें भी तो बस मसीहा की ही तलाश है...मसीहा की तलाश में तरसता हिंदुस्तान।

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