ग़ालिब का ख़त-37

मुंशी जवाहरसिंह जौहर

Aziz AnsariWD
बरख़ुरदार, कामगार, सआ़दत-इक़बाल निशान मुंशी जवाहरसिंह जौहर को बल्लभगढ़ की तहसीलदारी मुबारक हो। 'पीपली' से 'नूह' आए। 'नूह' से 'बल्लभगढ़ गए? अब 'बल्लभगढ़' से दिल्ली आओगे, इंशा अल्लाह। सुनो साहिब, हकीम मिर्जा़ जान ख़लफुलसिद्‍क हकीम आगा जान साहिब के, तुम्हारे इलाक़ा-ए-तहसीलदारी में ब-सीग़ा-ए-तबाबत मुला‍ज़िम सरकार अँग्रेजी हैं। इनके वालिद माजिद मेरे पचास बरस के दोस्त हैं। उनको अपने भाई के बराबर जानता हूँ। इस सूरत में हकीम मिर्जा़ जान मेरे भतीजे और तुम्हारे भाई हुए।

लाज़िम है कि उनसे यक दिल व यक रंग रहो। और उनके मददगार बने रहो। सरकार से यह ओ़दा ब सीग़-ए-दवाम है़, तुमको कोई नई बात पेश करनी न होगी। सिर्फ़ इसी उम्र में कोशिश रहे कि सूरत अच्छी बनी रहे। सरकार के ख़ातिर निशान रहे कि हकीम मिर्जा़ जान होशियार और कारगुज़ार आदमी है।

2 फरवरी 1864 ई.

ग़ालिब
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  पंद्रह रुपए में से एक रुपया अपने सर्फ़ में नहीं लाया। और माँ को आ़ज़िज़ करके उससे बहुत रुपए मिले। जब सब कत्ए तुम्हारे पास पहुँचें, तब उसका हुस्न-ए-‍ख़िदमत तुम पर ज़ाहिर होगा। क्यों साहिब वह हमारी लुंगी अब तक क्यों नहीं आई।      
बरखुरदार मुंशी जवाहरसिंह को बाद दुआ़-ए-दवाम उम्र-ओ-दौलत मालूम हो। ख़त तुम्हारा पहुँचा। ख़ैर-ओ-आ़फि़यत तुम्हारी मालूम हुई। क़तए जो तुमको मतलब थे उसके हसूल में जो कोशिश हीरासिंह ने की है, मैं तुमसे कह नहीं सकता। निरी कोशिश नहीं, रुपया ‍सर्फ़ किया। पंद्रह रुपया जो तुमने भेजे थे वह और पच्चीस-तीस रुपया सर्फ़ किए। पाँच-पाँच और चार-चार रुपया जुदा दिए और बनवाने में रुपया जुदा लगाए। दौड़ता फिरा हकीम साहिब पास कई बार जाके हज़ूरवाला का क़त्आ़ आया।

अब दौड़ रहा है वली अ़हद बहादुर के दस्तख़ती क़त्ए के वास्ते। यक़ीन है‍ कि दो-चार दिन में वह भी हाथ आवे और बाद इस क़त्आ़ को आने के बाद वह सबको यकजा करके तुम्हारे पास भेज देगा। मदद मैं भी उसकी कर रहा हूँ लेकिन उसने बड़ी मुशक्क़त की। आफरीं सद्‍ आफरीं।

पंद्रह रुपए में से एक रुपया अपने सर्फ़ में नहीं लाया। और माँ को आ़ज़िज़ करके उससे बहुत रुपए मिले। जब सब कत्ए तुम्हारे पास पहुँचें, तब उसका हुस्न-ए-‍ख़िदमत तुम पर ज़ाहिर होगा। क्यों साहिब वह हमारी लुंगी अब तक क्यों नहीं आई। बहुत दिन हुए जब तुमने लिखा था कि इसी हफ़्ते भेजूँगा।
असदुल्ला