कोंपलों की उदास आँखों में आँसुओं की नमी

Ravindra VyasWD
अपनी कोई महीन बात को कहने के लिए गुलज़ार अक्सर कुदरत का कोई हसीन दृश्य चुनते हैं। कोई दिलकश दृश्य खींचते हैं, बनाते हैं। कोई एक दृश्य जिसमें पहाड़ है, कोहरा है, दरिया है या पेड़ या फिर धुँध में लिपटा कोई खूबसूरत नजारा।

उनकी नज्म किसी बिम्ब या दृश्य से शुरू होती है। इसमें रमने का भाव है। मुग्ध होने का भाव है, लेकिन यह सब शुरुआत में है। बाद की किन्हीं पंक्तियों में स्मृति से भीगी कोई मानीखेज बात हौले से आकर उस दृश्य में एक दूसरी जान फूँक देती है। यह बहुत सहज-सरल ढंग से होता है।

  अपनी कोई महीन बात को कहने के लिए गुलज़ार अक्सर कुदरत का कोई हसीन दृश्य चुनते हैं। कोई दिलकश दृश्य खींचते हैं, बनाते हैं। कोई एक दृश्य जिसमें पहाड़ है, कोहरा है, दरिया है या पेड़ या फिर धुँध में लिपटा कोई खूबसूरत नजारा ...      
बाद की पंक्तियों में आई कोई बात उस दृश्य से हमारा एक नया संबंध बनाती है। इसमें उनकी संवेदना थरथराती है। हमारी संवेदनाओं को थरथराती हुई। और हम एक बार फिर अपने देखे हुए किसी दृश्य या बिम्ब से नए सिरे से परिचित होते हैं।

यह परिचय ज्यादा आत्मीय होता है। ज्यादा गीला। हमें भी भीतर से गीला करता हुआ।
हमारी ही अपनी नमी से फिर से नए ढंग से पहचान करता हुआ। यह लगभग चुपचाप ढंग से होता है। ओस के बेआवाज गिरने की तरह, हौले से तितली के बैठने की तरह, आँसू के चुपचाप टपकने की तरह।

मौसम उनकी ऐसी ही नज्म है। इसकी शुरुआती पाँच पंक्तियाँ ये हैं जो एक दृश्य खींचती हैं-

बर्फ पिघलेगी जब पहाड़ों से
और वादी से कोहरा सिमटेग
बीज अँगड़ाई लेके जागेंग
अपनी अलसाई आँखें खोलेंग
सब्जा बह निकलेगा ढलानों पर

यह अतीत में देखे गए दृश्यों का भविष्य में फिर से घटित होने का एक कवियोचित पूर्वानुमान है। यह किसी दृश्य पर फिसलती लेकिन एक सचेत निगाह है कि एक ठंडे और महीनों कोहरे से लिपटे होने के बाद मौसम के करवट लेने का एक नैसर्गिक चक्र है।

लगभग सूचनात्मक ढंग से लेकिन इस सूचना में एक खास गुलजारीय अंदाज है। अंदाज देखिए कि बीज अँगड़ाई लेके जागेंगे, अपनी अलसाई आँखें खोलेंगे, सब्जा बह निकलेगा ढलानों पर। इसमें अँगड़ाई लेकर जागने का एक अंदाज है। अलसाई आँखें खोलने की बारीक सूचना है।

और फिर पूरे दृश्य पर एक मखमली, ताजा-ताजा सब्जा है। वह भी बहता हुआ। बहता हुआ, वह भी ढलानों से। यानी एक गतिमान दृश्य है जो अपनी ताजगी, हरेपन और कोमल रोशनी में पूरी तरह खुलता है। विस्तारित होता हुआ। ढलान पर। लयात्मक। तो यह एक दृश्य है। अपने टटकेपन में मन मोहता हुआ।

लेकिन रुकिए। इसके बाद जो पंक्तियाँ शुरू होती हैं वे बताती हैं कि ढलानों से बहते इस सब्जे में आप भी बह मत जाइए। खो मत जाइए। इन बहारों को गौर से देखने की बात है।

गुलज़ार फरमाते हैं-
गौर से देखना बहारों में
पिछले मौसम के भी निशाँ होंगे।

  बर्फ पिघलेगी जब पहाड़ों से और वादी से कोहरा सिमटेगा बीज अँगड़ाई लेके जागेंगे अपनी अलसाई आँखें खोलेंगे सब्जा बह निकलेगा ढलानों पर ...      
यह एक सचेत निगाह है। होशमंद, जो कहती है कि उन निशाँ को देखो जो पिछले मौसम के हैं। और ये निशाँ क्या हैं? ये गुलज़ार बताते हैं-अपनी उसी नाजुक निगाह से।

कोंपलों की उदास आँखों में
आँसुओं की नमी बची होगी

  आओ इस मौसम को फिर निहारें और अपने भीतर के मौसम में किसी पगडंडी पर, किसी पहाड़ पर, किसी कोंपल के करीब जाकर कुछ धड़कता महसूस करें ...      
ये किसी दुःख को, किसी आँसू को देखने की खास निगाह है। अमूमन कोपलों में ताजापन, हरेपन की कोई उम्मीद, आशा की कोई किरण देखी जाती है। यहाँ इसके ठीक उलट है। यहाँ कोपलों की आँख है। ये आँखें उदास हैं। आँखों में आँसू हैं। और ये पिछले मौसम के निशाँ हैं।

यानी पिछले मौसम में कुछ ऐसा हुआ है जिसके कारण इस करवट लेते और नए होते मौसम में भी बीते की नमी, आँसू की नमी बची रह गई है। जाहिर है इसमें एक दृश्य को देखने का एक सिलसिला है

एक दृश्य को माजी में देखे गए दृश्य से जोड़ना है। यह जोड़ना संवेदना से जोड़ना भी है। माजी से जोड़ना भी है। मानी से जोड़ना भी है। इस तरह गुलजार कुदरत के किसी मारू दृश्य को सिर्फ दृश्यभर की तरह नहीं देखते।

वे अपनी निगाह से उसे एक मानी देते हैं। तब यह देखा गया या देखे जाने वाला या देखा जा रहा दृश्य ज्यादा मानीखेज हो जाता है। इसलिए गुलज़ार दृश्य को मानी देते हैं। ये मानी हमारे जीवन को मानीखेज बनाते हैं।

और मौसम में छिपे पुराने मौसम के निशाँ से हमारी नई पहचान कराते हैं। ये ज्यादा आत्मीय है। इस तरह गुलज़ार के इस मौसम को देखते-महसूस करते हमें अपने ही भीतर के मौसम की नमी का अहसास होता है।

यही अहसास हमें अधिक मानवीय बनाता है। यानी जो हो चुका उसकी एक भीगी-सी याद बनी रहती है। नए को देखने में पुराना भी छिपा रहता है। जो नए को ज्यादा नया बनाता है। यही हमारे जीवन का भीगा मौसम है। बाहर का उतना नहीं, जितना भीतर का।

आओ इस मौसम को फिर निहारें और अपने भीतर के मौसम में किसी पगडंडी पर, किसी पहाड़ पर, किसी कोंपल के करीब जाकर कुछ धड़कता महसूस करें। उस भीतरी मौसम में कुछ देर गहरी साँसे लें और अपनी नमी को फिर से हासिल कर लें।

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