चाँद चुरा के लाया हूँ

जब चारों तरफ शोर और नकली दृश्यों, बिम्बों और रंगों का हमला हो तब किसी संवेदनशील संगत में हमें कहीं कोई बहुत प्यारी सी धुन, कोई कोमल सा शब्द और अपने में ही मुग्ध कोई दृश्य या बिम्ब की संगत हमें जीवन का सच्चा अनुभव दे जाती है। इसी संगत में आप जान पाते हैं कि जीवन का सच्चा सुख या दुख, कोई धुन या अपने में खोया दृश्य आपके ही जीवन को कितना नए मानी दे जाती है। संगत इसी तरह का एक नया कॉलम है जिसमें कोई गीत, ग़ज़ल,नज़्म या गद्य के किसी टुकड़े पर आप रंगों की संगत पाएँगे। वेबदुनिया के इस नए साप्ताहिक कॉलम में आप हर सप्ताह शनिवार को किसी नज़्म पर किसी पेंटिंग से रूबरू हो सकेंगे। इस खूबसूरत कॉलम में रंग,तूलिका और कलम का संगम लेकर आपके साथ होंगे चित्रकार रवीन्द्र व्यास ।

Ravindra VyasWD
चोरी, चोर और चुराना। किस्सा बहुत पुराना है। और यदि थोड़ा पीछे जाकर गौर करें तो हमारे यहाँ तो चोरी को कला माना गया है।

यानी चौर्य कर्म कहा गया है। यानी यह कर्म है और इसे खूबसूरती से अंजाम दिया जाए तो कलाकारी है। इसी कलाकारी से उसे कला का दर्जा मिला हुआ है। यह सिर्फ शायद हमारे देश में ही संभव हो सकता था कि चोरी को भी कला माना जाए। यकीनन, यह है भी कला।

यदि आपने फिल्म उत्सव देखी हो तो उसमें चोरी को एक कला कर्म की तरह ही बताया गया था। चोरी कई तरह की होती है और इस तरह चोर भी कई तरह के। उनके चोरी करने के तरीके भी कई तरह के। चोरी कुछ बुरी, कुछ अच्छी होती है। हमेशा बुरी नहीं होती।

  गुलजार हमारे लिए कई तरह से चाँद को करीब लाते हैं। चाँद को चुराकर लाते हैं। यूँ तो चुराने को दुनिया में कई चीजें हैं, मगर चाँद को चुराना कुछ अनोखा है। चंद्रमा की कलाएँ हैं, लेकिन चंद्रमा को चुराकर लाना भी चोरी की एक आला दर्जे की कला है....      
यह कभी-कभी इतनी खूबसूरत होती है कि कई बार जीवन को, उसमें धड़कते रिश्तों को नए मानी दे जाती है। लगता है जैसे यह चोरी न की होती तो इस योनि में मिला जीवन कितना अकारथ चला जाता। चोरी ने इसे मायने दे दिए। कुछ रंगत दे दी। कुछ खुशबू दे दी। दिल चुराना, नजरें चुराना, काजल चुराना जैसे मुहावरे तो हमारे यहाँ खूब चलते हैं लेकिन यदि कोई अपनी माशूका के लिए चाँद चुरा के लाए तो क्या कहने।

यूँ तो चाँद और चाँदनी को लेकर हजार गीतों की रचना की गई है लेकिन चाँद को चुराना और उसके बाद माशूका के साथ चर्च के पीछे और किसी पेड़ के नीचे बैठने की बात करना, कुछ नया है। यानी चर्च के पीछे बैठने को, पेड़ के नीचे बैठने को यह चाँद कोई मायने दे रहा है।

सरगोशियों में कुछ रंगत घोल रहा है, जो उसे और भी खूबसूरत बनाती है, और भी मुलायम। जैसे चाँदनी का स्पर्श पाकर ये सरगोशियाँ फूलों की तरह झरती हुईं हमेशा-हमेशा के लिए दिल की गहराइयों में उतर जाएँगी।

और यह चाँद ऐसे ही नहीं आ गया है, उसे आशिक ने हासिल किया है, अपनी नाजुक कल्पना से, वह यूँ ही नहीं चला आया है। यह कहने का एक अंदाजभर नहीं है, आशिक की एक अदा भी है। चाहें तो शरारत कह लें, चाहें तो गुस्ताखी। इसमें मजा भी है।


गुलजार हमारे लिए कई तरह से चाँद को करीब लाते हैं। चाँद को चुराकर लाते हैं। यूँ तो चुराने को दुनिया में कई चीजें हैं, मगर चाँद को चुराना कुछ अनोखा है। चंद्रमा की कलाएँ हैं, लेकिन चंद्रमा को चुराकर लाना भी चोरी की एक आला दर्जे की कला है।

यह अदा भी है और इस पर मन फिदा हो जाता है। यह गीतकार अपनी माशूका के लिए इस कायनात की सबसे खूबसूरत चीज चुराकर लाया है। हमारे यहाँ चंद्रमा को मन का कारक माना गया है। सुंदर मुखड़े का प्रतीक माना गया है।

चाँद-सी मेहबूबा, चाँद-सी दुल्हन, चाँद सी बहू, चाँद-सा मुखड़ा लेकिन यहाँ बात कुछ निराली है। यहाँ कोई उपमा नहीं, कोई मिसाल नहीं, खुद एक पूरा चाँद है। यह चाँद अपने होने से एक जोड़े के होने को, उनके एकांत को, रात की नीरवता को धड़कता हुआ बना रहा है।
गीत इन पंक्तियों से शुरू होता है :

चाँद चुरा के लाया हूँ चल बैठें चर्च के पीछे जरा गौर फरमाइए। पहली लाइन बहुत सादा है और इसमें एक खबर दी जा रही है।

खबर में एक रहस्योद्घाटन है, लेकिन कहने का ढंग चौंकाने का नहीं है बल्कि बात कुछ इस अदा से कही गई है कि यही वक्त है जब इत्मीनान से बैठकर मन की बातें की जा सकें। राहत के पल बिताए जा सकें।

कोई नहीं, शोर नहीं, बस रात है और मैं जिसे चुराकर लाया हूँ, वह चाँद है। दूसरी पंक्ति में चर्च के पीछे बैठने की बात है। इस पर भी थोड़ा ध्यान दें। मंदिर नहीं, मस्जिद नहीं, चल बैठें चर्च के पीछे। आज की तारीख में यह कल्पना करना ही एक दहशत से भर देता है कि कोई प्रेमी जोड़ा रात में मंदिर के पीछे, पेड़ के नीचे बैठकर बात कर सके।

   चाँद-सी मेहबूबा, चाँद-सी दुल्हन, चाँद सी बहू, चाँद-सा मुखड़ा लेकिन यहाँ बात कुछ निराली है। यहाँ कोई उपमा नहीं, कोई मिसाल नहीं, खुद एक पूरा चाँद है। यह चाँद अपने होने से एक जोड़े के होने को, उनके एकांत को, रात की नीरवता को.....      
उन्हें वहाँ से धकेला जा सकता है, भगाया जा सकता है, पीटा जा सकता है और मुँह काला किया जा सकता है। और मस्जिद के पीछे बैठना भी मुश्किल - लाहौलविलाकुवत। इसलिए शायर चर्च के पीछे बैठने की बात करता है।

एक तो चर्च प्रेमियों के लिए वह स्पेस है जहाँ वे अपने हाथ में हाथ पकड़े, निगाहों से एक-दूसरे को थामते हुए चलते हैं, आते हैं और बुदबुदाते हुए प्रार्थना करते हैं। मोहब्बत का इजहार करते हैं, कन्फेशन करते हैं। (हिंदी फिल्मों के ऐसे कई सीन और प्रसंग आप यहाँ याद कर सकते हैं) फिर चर्च एक तरह के एकांत का, नीरवता का स्थापत्य बनाते हैं। एकदम शांत।

  यह सिर्फ गुलजार के बूते की बात है कि वे चाँद चुरा के लाते हैं और हमें सौंप जाते हैं। एक हसीन रात हमारे जीवन में उस चाँद के साथ हमेशा के लिए ठहर जाती है...      
वहाँ चारों तरफ एक सात्विक खामोशी पसरी रहती है। प्रकृति की छोटी सी गोदी में धड़कती यह स्पेस प्रेमियों के लिए एक निरपेक्ष जगह हो सकती है। वहाँ पेड़ है जिसके नीचे बैठकर दिल से दिल की बात की जा सकती है। और फिर वहाँ न कोई देखने वाला है और न ही पहचानने वाला। इसीलिए ये पंक्तियाँ हैं- न कोई देखे, न पहचाने
बैठें पेड़ के नीचे
इसके ठीक बाद माशूका की आवाज आती है और लगता है कि यहाँ बातचीत का एक सिलसिला शुरू हो चुका है। इस हसीन सिलसिले में माशूका एक आशंका व्यक्त कर रही है और लापरवाह प्रेमी से कहा जा रहा है कि- कल बापू जाग गए थे मेरी लाज की सोचो इस गीत में बापू ही जाग सकते थे क्योंकि शायर यह जानता है कि इस भारतीय समाज में बापू को ही अपनी बेटियों की सबसे ज्यादा चिंता होती है कि बेटी जवान हो गई है।

उसका ब्याह करना है, कहीं उसे किसी से मोहब्बत न हो जाए और आखिर में वह दारूण आशंका भी कि कहीं बेटी किसी के साथ भाग न जाए लेकिन प्रेमी में बेपरवाही है और कल की चिंता न करने की और इस इक पल के बारे में, इस पल को जी लेने के बारे में मस्ती से कहता है कि अरे, जो होना था कल हुआ था आज तो आज की सोचो ( यहाँ गुलजार साहब का एक और गीत भी याद किया जा सकता है जिसके बोल हैं- आने वाला पल जाने वाला है, हो सके तो इसमें जिंदगी बिता तो, वरना ये पल जाने वाला है।)

इस गीत में जब प्रेमिका अपने प्रेमी की बेपरवाह और प्रेम का इसरार करती आवाज सुनती है तो आशंका के बादल छँटते हैं और वह प्रेमी की बात को दोहराती है चाँद चुरा के लाई हूँ चल बैठें चर्च के पीछ

लेकिन दोनों की ख्वाहिश कुछ ज्यादा है, कुछ ज्यादा हसीन है, कुछ ज्यादा रोमांटिक है। वे बस्ती से कहीं दूर निकल जाना चाहते हैं, जहाँ सिर्फ वे दोनों हों। एक दरिया, एक कश्ती, रात और प्रेम करते हुए अपने धड़कते दो दिल। ये एक माहौल है जिसमें दो दिल रहना चाहते हैं। लेकिन यह सब एक ख्वाहिश ही है फिर भी कितनी खूबसूरत।

गुलजार जो चाँद लाते हैं, जो दरिया और कश्ती की बात करते हैं, ख्वाहिश की बात करते हैं, वे सब हमारी ही ख्वाहिशें हैं।
इस तरह वे चाँद को चुराकर हमारी ख्वाहिशें पूरी करते हैं।

यह सिर्फ गुलजार के बूते की बात है कि वे चाँद चुरा के लाते हैं और हमें सौंप जाते हैं। एक हसीन रात हमारे जीवन में उस चाँद के साथ हमेशा के लिए ठहर जाती है।

उसी एक रात में, किसी पेड़ के नीचे बैठकर मैंने उस चाँद को एकटक निहारा है। बस उसे ही इस पेंटिंग में चुराकर लाने की एक कोशिश की है। मैं इसे वापस गुलजार साहब को सौंपता हूँ।