न जाने कौन ये आवाज देता है...

- अजातशत्रु

अब इसे दुःखद विडंबना ही कहा जाए कि हिन्दी सिने संसार के महान गीतों जैसे आएगा आने वाला/ ऐ दिल रुबा नजरें मिला/ ऐ दिल नादाँ आरजू क्या है/ आजा कहीं से आजा/ कुछ दिल ने कहा, कुछ दिल ने सुना/ ये महफिल सितारों की/ कहाँ ले चले हो बता दो मुसाफिर/ ये बहारों का समाँ/ किस जगह जाएँ/ ये जिन्दगी उसी की है/ रोए जिया ओ जिया आन मिलो मोरे पिया/ तेरे ख्यालों में हम/ बहार आई खिली कलियाँ/ और मेरे महबूब न जा वगैरह को टक्कर का होते भी यह गीत गुमनाम होकर रह गया।

इसके विश्लेषण में उतरा जाए। यह अलौकिक, अतीन्द्रिय गीतों की परंपरा में आता है और और मौत की सीमा के पार ले जाता है। और कौन विश्वास करेगा कि इस लखटकिया गीत की विलक्षण धुन को ऐसे संगीतकार ने बाँधा था जिसके पल्ले पूरे जीवन में सफलता के नाम पर एक सी-ग्रेड फिल्म पड़ी, जिसने रिकॉर्ड तोड़ धंधा किया?

जी हाँ, आशाजी के इस बेहद हसीन गीत को फिल्म ‘जय संतोषी माँ’ के सी. अर्जुन ने तैयार किया था। यह अर्जुनजी की बदनसीबी थी कि मीठी धुनों के असरदार बुलंद गीत देकर भी वे नौशाद/ रोशन/ मदनमोहन की तरह नोट नहीं हुए।

जरा याद करें इन गीतों को 'गम की अंधेरी रात में/ पास बैठो तबीयत बहल जाएगी/ मैं अभी गैर हूँ मुझे अपना न कहो/ इन प्यार की राहों में तेरा ही सहारा है और पूनम की प्यारी-प्यारी रात, ये सब सी. अर्जुन की बंदिशें हैं- हालाँकि इस नाम पर आपने गौर नहीं किया होगा।

देखा जाए तो सी. अर्जुन मात्र इस एक गीत के कारण कालजयी माने जा सकते हैं, जिसका मुखड़ा हमने इस आलेख के शीर्षक के रूप में दिया है। ऐसा बहुत कम होता है कि किसी गीत में काव्यात्मक गुणवत्ता, धुन की मिठास और विलक्षणता, संगीत की उदात्त योजना और गायन की खपसूरती सभी कुछ अव्वल दर्जे का हो।

इस गीत में इंदीवर की कलम जो चमत्कार करती है। वैसा ही चमत्कार अर्जुन की धुन और आशा का गायन भी करते हैं। सब तरफ से पुष्ट, परिपूर्ण और अनोखेपन की हद को छूता गीत है यह!

इससे जमीन मिट जाती है और मरकर जिंदा हुए रसिकों का आसमान और बादलों की सैर अपनी जगह बना लेते हैं। इस गीत को बिना पुलक और पीड़ा के सुना ही नहीं जा सकता।

इस गीत की रहस्यवादी छायावादी संपन्नता को ठीक-ठीक पकड़ना हो तो इंदीवर की शायरी और उनके मतलबों पर गौर कीजिए- 'न जाने कौन', क्यों,किसने, कोई, क्या, कहीं जैसे अल्फाज जिस किस्म की धुंध को रचते हैं, जैसे मोहक अस्पष्टता को सिरजते हैं वह हमें पथरीले, नीरस यथार्थ के परे परा सुख और अनश्वरचा की सुरक्षाबोधक अनुभूति में ले जाता है, हम यहाँ उठते हैं। सुसंस्कृत होते हैं और अस्तित्व के अनछुए कौमार्य का स्पर्श करते हैं।

इस अलौकिक उत्थान को संभव बनाता है अंतरों का झटकेदार आरंभ जैसे कोई शहनाईवादक दौड़ते हुए ढलान पर शहनाई बजा गया। ऐसा अहसास होता है जैसे सपने में हम पर फूल बरस रहे हैं और जुबान पर हरा काँटा चुभ रहा है।

अंतरों की धुन इतनी प्यारी और विलक्षण है कि फूलों पर सिर रखकर मर जाने को जी करता है। और जी करता है कि इतना विकट, तरसानेवाला अलौकिक सुख देने के लिए आशाजी को श्राप दे दिया जाए।

अफसोस यह है कि अर्जुन साहब की यह उम्दा रचना मैंने उनकी मौत के बाद सुनी और आधी रात को उन्हें बधाई का पोस्टकार्ड लिखने के लिए तरस गया। अब आइए और जरा घुसिए इंदीवर साहब के इस नीम रूहानी कलम में-

न जाने कौन ये आवाज देता है
मेरे दिल को धड़कने के नए अंदाज देता है
न जाने कौन!

कोई आहट कहीं से आ रही है
किसी को पास लाती जा रही है
ये किसने छू लिया है मेरे मन को
मेरी हर साँस महकी जा रही है
न जाने कौन

नया है रंग पर दामन वही है
नई उट्ठी, घटा, सावन वही है
लड़कपन जा चुका है कब से मेरा
मगर दिल का अभी बचपन वही है
न जाने कौन

मेरे क्यूँ पाँव रुकते जा रहे हैं
मेरे क्यूँ नैन झुकते जा रहे हैं
मुझे क्या बात कहनी है किसी से
मेरे सब क्यूँ लरजते जा रहे हैं
न जाने कौन ये आवाज देता है,
मेरे दिल को धड़कने के अंदाज देता है
न जाने कौन!

चिरयुवा, मादक बैरागन आशा से फिल्म पुनर्मिलन (1964) के इस गीत को ऐसी मिस्टिक मासलता के साथ गाया है कि ठंडी रात में आग लगती है और गीले बदन पर चाशनी में डूबे कोड़े पड़ते हैं। जी होता है मर जाएँ! पर इससे भी तो बात बनने वाली नहीं है। हश्र बस यही है कि बर्फ पड़ती हुई रात में अपने जिस्म की आग में जलते जाइए और खुशी से कराह पड़िए। मौत भी सुख का इलाज नहीं।

पाठक कहते हैं स्तंभकार, तू अतिशयोक्तियाँ गढ़ता है। पर हर बार इस अभागे का जवाब यही है कौन कितना संवेदनशील है और गीत की आत्मा में घुसकर उसका चौंधियानेवाला उजेला देख आता है।

झेले अर्जुन साहब के इस्तकबाल में यह फूल-
वादे फना भी कम न हुई बेकरारियाँ-
लाशा! न था मेरा कोई बिजली कफन में थी!
(लाशा यानी लाश)

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