कविता : हर एक ग़म को हर्फ़ में ढाला था

हर एक ग़म को हर्फ़ में ढाला था
किसे कहां पता भीतर हाला था
 
लब की शोख हंसी चेहरे का नूर
ख़ुद को तपा कर उसने ढाला था
 
जिस्म की ज़रूरत जानते हैं सब
रूह की चाह को उसने पाला था
 
तुम नाम देते हो हुनर का जनाब
दर्द को आंसुओं में संभाला था
 
मीना ने मय में बहा दी ज़िंदगी
सलीका मुहब्बत का आला था
 

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