मुस्लिम समाज से कैसे दूर हो जहालत का अंधेरा? : डॉ. राहत इंदौरी

मशहूर शायर राहत इंदौरी का 11 अगस्त को निधन हो गया। कोरोना संक्रमण के चलते राहत को अरबिन्दो अस्पताल में भर्ती कराया था, जहां 4 बजे उन्हें दिल का दौरा पड़ा था। अप्रैल 2020 में मशहूर डॉ. राहत इंदौरी ने वेबदुनिया के लिए शकील अख्तर से बात की थी। प्रसंगवश इसे हम जस का तस प्रस्तुत कर रहे हैं....

जाहिल..जाहिल..जाहिल..। बहुत चर्चा में रहा इन दिनों यह शब्द। सुना था..काला अक्षर भैंस बराबर होने की वजह से कुछ लोग जाहिल होते हैं और कुछ पढ़े-लिखे होकर भी जाहिल बने रहते हैं। कोरोना संकट ने ऐसे कुछ जाहिलों को बेपरदा कर दिया। सड़कों से लेकर सोशल मीडिया तक कुछ पढ़े-लिखे अपनी जहालत दिखाते रहे। कुछ मेडिकल टीम पर हमले या बीमारी को छिपाकर इस महासंकट को बढ़ाते रहे। इस बीच कुछ इल्म वालों ने कहा, अगर किसी समाज में जहालत के ऐसे विषाणु या जरासिम आ जाएं तो उन्हें पहले खुद अपने घर की सफ़ाई करना चाहिए। बात एकदम सही लगी। चूंकि जहालत दिखाने वाले दूसरे कुछ समुदायों की तरह मुस्लिम समाज के लोग भी रहे, इसलिए इस विषय में मशहूर शायर और शिक्षाविद् डॉ. राहत इंदौरी से बात की गई। बरसों तक कॉलेज में प्रोफेसर रहे डॉ. राहत इंदौरी ने क्या कहा, बता रहे हैं शकील अख़्तर...
राहत साहब से मुस्लिम समाज को लेकर बात से पहले उनकी लिखी एक बहुत पुरानी ग़ज़ल के 2 शेर भी याद आ गए।

वो पांच वक्त नज़र आता है नमाज़ों में
मगर सुना है शब को जुआ चलाता है

ये लोग पांव से नहीं ज़हन से अपाहिज हैं
उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है

मेरा पहला सवाल था…संकट के समय भी जहालत? यह जहालत कैसे दूर होगी?
डॉ. राहत इंदौरी कहने लगे, समाज से जहालत को दूर करने का काम फटाफट क्रिकेट की तरह नहीं है, जो 20 ओवर में ख़त्म हो जाएगा। यह तो बरसों पुराने जरासिम हैं। मुआशरा आज जिस अंधेरे में पहुंचा है। उस जहालत के पीछे बहुत सी वजहे हैं। अगर अपने अंदर झांकें तो हम समझ सकते हैं कि ऐसा क्यों हुआ? यह गुमराह होने और अच्छी बातों को न समझने की सलाहियत का भी मामला है।

बरसों तक इस मामले में ध्यान ना दिए जाने की वजह से ऐसा हुआ है। बेशक इसमें हमारे रहनुमाओं की भी बड़ी भूल है या उनकी तंग-नज़र खुदगर्ज़ी है। मगर जैसे मैंने कहा, यह फटाफट क्रिकेट नहीं है कि मैच ख़त्म होते ही काम हो जाएगा। यह लगातार किया जाने वाला काम है। यह काम तो समाज और इसके ज़िम्मेदार लोगों को हर दिन करना पड़ेगा। ताकि हम जिस तरह के समाज की कल्पना करते हैं, वो सही मायनों में साकार हो सके।

मगर हम एक अच्छे समाज के रूप में अपना आचरण कब बदलेंगे?
देखिए अचानक आई आपदाओं या महामारियों के वक्त भी इंसानी सुलूक बदल जाता है। आप पहले की महामारियों यानी प्लेग (ब्लैक डेथ) या इन्फ्लुएंजा के दौर को भी देख लीजिए..तब शासन फिरंगियों का था..मगर उस वक्त भी अवाम और निज़ाम में एक किस्म की रस्साकशी और तनातनी थी। उस वक्त भी आज के डॉक्टर्स, नर्सेस, मेडिकल स्टाफ़, पुलिस और समाजसेवियों की तरह समाज के सच्चे हीरो लोगों की मदद में जुटे थे। जबकि माहौल खऱाब करने वाले ग़ैर ज़िम्मेदार लोग अफवाहें फैलाने या समाज को दिग्भ्रमित करने का काम कर रहे थे। अपने दिमाग़ का संतुलन खो बैठे थे। बेशक हम अब पढ़े-लिखे समाज हैं। मुस्लिमों में भी शिक्षा का जबरदस्त प्रचार हुआ है। प्रतिशत बढ़ा है।

हम अब पहले जैसी स्थिति में नहीं हैं। फिर भी हमें ज़्यादा सजग और सावधान रहने की ज़रूरत है। सीखते रहने की ज़रूरत है। हमें एक राष्ट्र के रूप में भी बहुत सी बातों को जानने, समझने और सीखने की ज़रूरत है। वैसा ही आचरण की ज़रूरत है। हालात के हिसाब से अपने किरदार का सही रूप पेश करना हम सभी की ज़िम्मेदारी है। जानकारी ना होने पर भी कुछ लोग असंयमित व्यवहार करने लगते हैं। उस समय उन्हें सही मार्गदर्शन देने की ज़रूरत है। माहौल को भड़काना ठीक नहीं है। ऐसे मामलों में समझदार लोगों और पढ़े-लिखे लोगों की ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है।

क्या हमारे ग़ैर ज़िम्मेदार होने में कोई मज़हबी रूकावट है? क्या तालीम में कुछ कमी रह गई है?
बच्चा पैदा होते ही हम उसके कान में आज़ान दे देते हैं। मज़हबी लिहाज से यह अच्छी बात है। परंतु इसके साथ-साथ हमारा मज़हब इल्म और तालीम (ज्ञान और शिक्षा) की बात भी कहता है। तालीम हमारे मज़हब में हर औरत और मर्द पर फर्ज़ है। मतलब जैसे कि नमाज़ फर्ज़ है। उसी तरह से इल्म फर्ज़ है। सभी जानते हैं कि पवित्र कुरआन में कहा गया है कि इल्म हासिल करने के लिए अगर आपको चीन जाना पड़े तो ज़रूर जाइए।

बच्चों को हम रोज़ा, नमाज़, हज, ज़कात जैसे अरकान के बारे में तो बता देते हैं, पर यह क्यों भूल जाते हैं कि भाई इल्म भी उसमें एक बुनियादी चीज़ है। मगर दुनियावी इल्म को हम भूल जाते हैं। दीनी इल्म पर ही सारा ध्यान देने लगते हैं। अगर ऐसा न हो तब दुनियावी जानकारी से महरूम एक जाहिल नस्ल पैदा हो जाती है। आप परेशान हो जाते हैं उन्हें अपने बीच देखकर जो कोरोना संकट के दौरान डॉक्टरों पर पत्थर फेंकने लगते हैं। बदसुलूकी करते हैं।

शुक्र इस बात का है कि हमारी सोसाइटी में जाहिल या गुमराह हुए लोगों की संख्या ऐसी नहीं है कि जिन्हें कंट्रोल ना किया जा सके। समाज को आगे बढ़ाने और अच्छा काम करने वाले लोग ऐसे लोगों से बहुत ज़्यादा हैं। मगर जिनमें कहीं कोई कमी या ख़राबी है। उनमें सुधार लाना और इसकी कोशिशें ज़रूरी हैं। ऐसे लोगों के लिए क़ानून अपनी जगह तो है ही। राहत साहब समाज को इल्म की हैसियत बताते हुए कहते हैं...

तूफ़ानों से आंख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के दरिया पार करो


वे कहते हैं, जब हम खुद ही जागरूक हो जाएंगे, रोशन हो जाएंगे तो फिर हमारे किरदार की खुशबू भी अलग होगी। उसमें गलतियों की गुंजाइश नहीं होगी क्योंकि जब किसी भी सोसाइटी में एक बार रोशनी पैदा हो जाती है तब अंधेरों का ठहरना मुश्किल हो जाता है। मेरी तो एक ही सलाह है खूब पढ़िए, इल्म हासिल की कीजिए। अपने समाज, अपने वतन का नाम रोशन कीजिए। अपनी सलाहियतों की एक मिसाल पेश कीजिए। कई क्षेत्रों में भारत के मुस्लिमों ने यह मिसाल कायम की है।

आपने कहा, अक्सर महामारियों या अचानक आई आपदाओं के वक्त इंसान का दिमाग़ी संतुलन खो जाता है। ऐसे में क्या करना चाहिए?

एक ग़ज़ल में मैंने कहा है...
आंख में पानी रखो, होठों पर चिंगारी रखो
ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो


हमें जैसे भी हालात हों उसके हिसाब से खुद को ढालना आना चाहिए। हालात चाहें दुख के हों या सुख के। उसका इस्तकबाल करना चाहिए। आज हम कितने खुशनसीब हैं, हमें कोरोना संकट के वक्त हिदायतें दी जा रही हैं। शासन-प्रशासन की तरफ से बेहतरीन कदम उठाए जा रहे हैं। तमाम एक्सपर्ट्स और डॉक्टर हमें सलाह दे रहे हैं। तब भी हम चीज़ों को हलके में ले रहे हैं। हम आज भी कोशिश कर रहे हैं कि किसी तरह घर से बाहर निकलकर अपने पसंद की कोई चीज़ ले आएं या बहार का एक चक्कर लगा लें यानी ऐसे वक्त में जब हर इंसान के संक्रमित होने का उसके परिवार और समाज पर असर पड़ सकता है।

जैसा कि हम जानते हैं एक आदमी अकेला 400 से अधिक लोगों को कोविड 19 का इंफेक्शन दे सकता है। हाल ही में खरगोन और आंध्र प्रदेश से भी ऐसी ख़बरें सामने आईं हैं। तब भी हम महामारी के प्रति सजग नहीं हैं या लॉकडाउन का पालन नहीं करते हैं तो यह बहुत शर्म की बात है। भाई इतना तो समझिए, अपनी वजह से किसी भी इंसान की ज़िदंगी ख़तरे में क्यों डालते हैं। सबसे पहले आप अपने घर के लोगों या दोस्तों को संक्रमित करते हैं। इस महामारी से मुकाबला किसी एक के बस की बात नहीं है। इसके खिलाफ सभी समुदायों, समाजों, सियासी दलों को मिलकर लड़ाई लड़ना होगी। समझबूझ से काम लेना होगा। तभी हम इस महामारी को शिकस्त दे पाएंगे।

(शकील अख़्तर सीनियर टीवी जर्नलिस्ट और रायटर हैं। बच्चों के रंगमंच के लिए लेखन करते रहे हैं। महात्मा गांधी के बचपन पर आधारित नाटक- 'मोनिया दि ग्रेट' समेत 4 नाटकों का लेखन किया है। उनके 2 नाटकों के मंचन नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, नई दिल्ली में हुए हैं।)

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