आजादी के 61 वर्ष बाद आम आदमी

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आज से साठ साल पहले जब हम आजाद हुए थे, तब से अब तक इस एक शब्द 'आजादी' के मायने काफी बदले हैं। यदि और भी विवेचना करते हुए अपनी बात कहें तो पिछले चार-पाँच सालों में आजादी का अर्थ वह नहीं रहा जो पहले पचपन सालों में था।

वैश्वीकरण ने तो लगभग सभी सीमाएँ तोड़ दी हैं। मौजूदा परिदृश्य में आर्थिक मामलों में सकल विश्व एक 'ग्लोबल विलेज' में बदल गया है और यहाँ कदम-कदम पर आर्थिक स्वतंत्रता के हनन का खतरा है।

'महँगाई की मार' का सीधा असर आम आदमी पर पड़ रहा है। दिनभर मेहनत करके दो जून की रोटी कमाने वाला आम आदमी आज भूखा सोने को विवश है। आज भी आदमी की जरूरतें तो उतनी ही हैं जो आज से पाँच वर्ष पूर्व थीं परंतु आज उन जरूरतों को पूरा करने का सामर्थ्य उसके बूते से बाहर हो गया है जिसका सीधा कारण सुरसा के मुख के समान हर दिन बढ़ती महँगाई है, जो हर रोज हजारों गरीब परिवारों को निगलती जा रही है।

आजादी हमें मिली जरूर पर सही मायने में आज आम आदमी आर्थिक रुप से संपन्न नहीं है। ये आजादी अधूरी है। पिछले दशकों से लेकर अब तक भारत में प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न खपत तो उतनी ही रही मगर महँगाई हर दिन बढ़ती ही गई।

भारत में प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न खपत मात्र 178 किलोग्राम है जो अमेरिका की खाद्यान्न खपत का केवल पाँचवाँ भाग है। सन 1990-91 में प्रति व्यक्ति अन्न की खपत जहाँ 468 ग्राम थी। वह 2005-06 में घटकर मात्र 412 ग्राम रह गई।


राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की जनवरी 2008 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2005-06 में लगभग 19 प्रतिशत आबादी मात्र 12 रुपए प्रतिदिन से भी कम पर गुजारा कर रही थी। म.प्र. में 29 से 34 फीसदी लोगों के पास हर रोज उपभोग पर व्यय करने के लिए लगभग 12 रुपए भी नहीं हैं। शहरी क्षेत्र में 22 प्रतिशत आबादी को जीवनयापन करने के लिए हर माह लगभग 580 रुपए से भी कम की राशि प्राप्त होती है यानी उनकी दैनिक उपभोग पर व्यय शक्ति लगभग 19 रुपए से अधिक नहीं है।

सन 1990 से 2007 के बीच जनसंख्या वृद्धि दर 1.9 प्रतिशत थी। इसी अवधि में खाद्यान्न उत्पादन की दर 1.7 रही अर्थात प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न की खपत भारत में कम हुई है।

सीधे तौर पर लगभग 65 करोड़ भारतीय कृषि पर निर्भर हैं। वर्ष 2005-06 में देश का सकल घरेलू उत्पाद कृषि क्षेत्र में 19.7 प्रतिशत था, जो 2006-07 में घटकर 18.5 प्रतिशत पर आ गया।

उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कृषि क्षेत्र में निर्भर आबादी के अनुपात में कमी नहीं आने से वहाँ औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्र में लगे लोगों की तुलना में गरीबी बढ़ती जा रही है। किसानों की आत्महत्याएँ रुकने का नाम ही नहीं ले रही हैं। इस वर्ष में अब तक करीब 300 किसानों की आत्महत्याओं की खबर है।

* पेट्रोल व डीजल के दाम:-
  महँगाई का दर सूचकांक प्रति सप्ताह बढ़ता ही जा रहा है परंतु मुद्रास्फीति का यह बढ़ता हुआ थोक मूल्य सूचकांक का आँकड़ा तो महँगाई को केवल प्रतीकात्मक रूप में प्रस्तुत करता है परंतु वास्तविक स्थिति तो बहुत अधिक भयावह है।      
यदि पिछले पाँच वर्षों की बात करें तो इन पाँच वर्षों में आठ बार पेट्रोल व डीजल के दामों में वृद्धि हुई। जहाँ मई 2004 में पेट्रोल की कीमत 30.25 रुपए प्रति लीटर थी, जो आज करीब 54.52 रुपए प्रतिलीटर है। उस वक्त 20.49 प्रतिलीटर के दाम से बिकने वाले डीजल की कीमत आज करीब 38.38 रुपए प्रतिलीटर है। यानी पिछले चार वर्षों में इनके दाम दुगुने हो गए हैं। जबकि आम आदमी की आमदनी में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई।

* रसोई गैस व केरोसीन:-
आज रसोई गैस से लेकर ईंधन व केरोसीन के लिए किल्लत मची है। दैनिक उपयोग में आने वाली रसोई गैस सिलेंडर की कीमत जहाँ 375 रुपए हो चुक‍ी है वहीं गरीबों का ईंधन केरोसीन भी महँगा बिक रहा है। यानी यह तो जैसे राशन की दुकानों से चोरी ही हो गया है और रसोई गैस कालाबाजारी की खुराक बन गई है। सरकार गैस की सब‍‍सिडी को कम करने के लिए जान-बूझकर गैस का उत्पादन कम कर रही है।


पेट्रोल व डीजल की कीमतों में अथाह वृद्धि कर सरकार की झोली तो आम आदमी के रुपयों से भर रही है किंतु आम आदमी कहाँ तक इस महँगाई का बोझ सहन कर पाएगा? यह शोध का विषय है। पेट्रोल, डीजल व रसोई गैस के बढ़ते दामों ने आज आम आदमी के जीवन में आग लगा दी है। बिजली और शिक्षा भी बढ़ती कीमतों के कारण आम आदमी की पहुँच से बाहर हैं।

मुद्रास्फीति की लगातार बढ़ती दर इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है कि आज महँगाई नियंत्रणहीन होती जा रही है। 17 मई को समाप्त सप्ताह में महँगाई की दर 8.1 प्रतिशत दर्ज की गई है, जो पिछले चार साल की सर्वाधिक है और अब यह 11 फीसदी तक पहुँचकर सर्वोच्च शिखर पर है।

महँगाई का दर सूचकांक प्रति सप्ताह बढ़ता ही जा रहा है परंतु मुद्रास्फीति का यह बढ़ता हुआ थोक मूल्य सूचकांक का आँकड़ा तो महँगाई को केवल प्रतीकात्मक रूप में प्रस्तुत करता है परंतु वास्तविक स्थिति तो बहुत अधिक भयावह है।

आम आदमी के दैनिक उपयोग की वस्तुओं के दाम पिछले चार-पाँच वर्षों में 50 प्रतिशत से 120 प्रतिशत तक बढ़ना चिंताजनक है। गरीब, मध्यम और निम्न वर्ग के लोगों का नित्य जीवन कठिन हो गया है। यह भी खेद का विषय है कि अप्रैल 2008 से उपभोक्ता मूल्य सूचकांक केंद्रीय सरकार के आदेश के कारण उपलब्ध नहीं है इसलिए आँकड़ों के माध्यम से महँगाई का आकलन नहीं हो पाता है।

निष्कर्ष के तौर पर हम यह कह सकते हैं कि आमदनी उतनी तेजी से नहीं बढ़ी जितनी तेजी से महँगाई व खर्च बढ़ रहे हैं। ऐसे में कर्ज लेकर गुजारा करना आम आदमी की जरूरत बन गई है। देखना यह है कि अब यह महँगाई कहाँ जाकर विराम लेती है और सरकार कब आदमी की सुध लेती है।

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