ट्री-ट्रांसप्लांटेशन पर्यावरण संरक्षण के कितने हित में

DW

सोमवार, 12 अक्टूबर 2020 (20:47 IST)
दिल्ली सरकार ने वृक्ष-प्रत्यारोपण यानी ट्री प्लांटेशन नीति को मंजूरी दी है। इससे पहले मुंबई जैसे शहरों में यह प्रयोग नाकाम हो चुका है, तो क्या हरियाली बचाने की यह नीति सिर्फ सरकार का इमेज मेकओवर है? दिल्ली सरकार ने राजधानी में पेड़ बचाने के उद्देश्य से पिछले हफ्ते ‘ट्री ट्रासप्लांटेशन पॉलिसी' यानी वृक्ष प्रत्यारोपण नीति का ऐलान किया। अभी सरकार ने इस नीति को नोटिफाई नहीं किया है लेकिन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि किसी भी डेवलपमेंट प्रोजेक्ट की जद में आने वाले कम से कम 80% पेड़ों को ट्रांसप्लांट किया जाएगा और इन ट्रासप्लांट किए गए पेड़ों में 80% को बचना चाहिए।

ट्रांसप्लांट या प्रत्यारोपण का अर्थ है कि किसी भी पेड़ को काटने के बजाय उसे जड़ समेत मशीनों द्वारा उखाड़कर किसी दूसरी जगह लगाया जाए। दिल्ली सरकार ने ऐलान किया है कि इस काम के लिए संबंधित एजेंसियों का पैनल बनेगा और ट्रांसप्लांट किए गए पेड़ों की निगरानी के लिए एक ट्री-ट्रांसप्लांटेशन सेल होगी जिसमें सरकारी कर्मचारियों के साथ नागरिक शामिल होंगे। जहां सरकार इस नीति को युद्ध–प्रदूषण के विरुद्ध नारे के साथ प्रचारित कर रही है वहीं कई जानकारों का कहना है दिल्ली सरकार की यह घोषणा सिर्फ सरकार का ‘इमेज मेकओवर' है। 

क्या अंधेरे में तीर चला रही है सरकार?
पर्यावरणविद और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सीआर बाबू कहते हैं, पेड़ों को ट्रांसप्लांट करने का विचार ही बताता है कि नीति निर्धारकों को पर्यावरण की सही समझ नहीं है। उनके मुताबिक ऊष्ण कटिबंधीय इलाकों में तो पेड़ों को इस तरह प्रत्यारोपित नहीं किया जा सकता। प्रोफेसर बाबू कहते हैं, सरकार 80% पेड़ों को ट्रांसप्लांट करने और उनमें से 80% पेड़ों के बचने की बात कर रही है लेकिन सबसे पहले आपको यह समझना होगा कि दिल्ली में ज्यादातर पेड़ काफी पुराने हैं जिनकी उम्र सौ साल से अधिक है। ऐसे पेड़ों को ट्रांसप्लांट करने के लिए आप उन्हें कैसे निकालेंगे जिनकी जड़ें काफी फैली हों? फिर आपको उनकी विशाल शाखाओं को काटना होगा। उसके बाद आप इन पेड़ों को ले जाकर कहीं लगाएंगे तो क्या वह बचेंगे?

बाबू पिछले कई दशकों से जीर्णशीर्ण हो चुके इलाकों में हरियाली और पर्यावरण को फिर से जिंदा करने का काम कर रहे हैं। वह कहते हैं, ऊष्ण-कटिबंधीय जलवायु में उगने वाले पेड़ काफी संवेदनशील होते हैं। ट्रांसप्लांट जैसी तकनीक 10 या 15 साल पुराने पेड़ों पर तो कारगर हो सकती है लेकिन आपको बहुत पुराने पेड़ों पर इसे  नहीं आजमाना चाहिए क्योंकि वो पेड़ नई जगह पर बचेंगे ही नहीं। क्या आप दिल्ली में नीम और जामुन जैसे पुराने दरख्तों को उखाड़कर कहीं बो सकते हैं?

उधर 2011 में दक्षिण दिल्ली में पेड़ों की गिनती करवा चुकी पद्मावती द्विवेदी कहती हैं, ट्रांसप्लांटेशन को लेकर पहले कोई स्टडी नहीं की गई है और जहां तक हमें मालूम है यह प्रयोग अब तक कामयाब नहीं हुआ है। उनके मुताबिक, सरकार द्वारा पेड़ों को बचाने का विचार और नीयत बहुत अच्छी है लेकिन यह नीति कितनी कारगर होगी यह जानने के लिए हमें पहले ट्रांसप्लांटेशन किए गए पेड़ों का अध्ययन करना जरूरी है। बहुत जरूरी ये भी है कि यह प्राथमिकता तय करे कि पेड़ों को बचाने के लिए जो पैसा खर्च कर रही है उसे वह कहां लगाएगी? हमें यह जानना जरूरी है कि जो पैसा और श्रम हम पेड़ों के पुनरारोपण में खर्च कर रहे हैं उसके मुताबिक परिणाम कुछ नहीं मिलता।

सोशल मीडिया पर फिक्र और गुस्सा
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा ट्री-ट्रांसप्लांटेशन नीति के ऐलान के साथ ही दिल्ली के पर्यावरण कार्यकर्ताओं में फिक्र और गुस्सा दिख रहा है और वह सरकार ने इस नीति पर फिर से विचार करने को कह रहे हैं। कई लोगों ने दिल्ली के द्वारका एक्सप्रेस-वे से हटाकर प्रत्यारोपित किए गए पेड़ों की तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया में लगाए और सरकार को चेताया है कि यह नीति कामयाब नहीं हो रही। ऐसी ही एक पर्यावरण प्रेमी और ट्री-एक्टिविस्ट भंवरीन कंधारी ने कहा, मैंने द्वारका के सेक्टर-24 में जाकर ट्रांसप्लांट किए गए पेड़ों का हाल देखा है। वह पेड़ों का कब्रिस्तान सा दिख रहा है। हम सरकार को सच दिखाने के लिए फोटो और वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट कर रहे हैं। उम्मीद है कि मुख्यमंत्री केजरीवाल हमारी बात समझेंगे।

इससे पहले मुंबई में मेट्रो रेल लाइन बिछाने के लिए जिन पेड़ों को ट्रांसप्लांट किया गया उनमें से ज्यादातर पेड़ नहीं बचे। खुद मुंबई मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन ने अदालत में माना है कि साल 2019 में प्रत्यारोपित किए गए 1,500 पेड़ों में से करीब 64% नहीं बच पाए। हालांकि पर्यावरण कार्यकर्ता कहते हैं कि आंकड़ा कहीं अधिक भयावह है। वनशक्ति संगठन के प्रमुख डी स्टालिन का कहना है कि मुंबई मेट्रो के लिए अब तक कुल करीब 4,000 पेड़ निकालकर ट्रांसप्लांट किए गए लेकिन उनमें से 3,500 मर गए। अदालत ने भी पिछले साल मुंबई मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन के अधिकारियों को बेहतर ट्रांसप्लांट तकनीक और जानकारों को इस्तेमाल न करने के लिए फटकार लगाई थी।

स्टालिन के मुताबिक, मुंबई में जिस तरह ट्रांसप्लांटेशन हो रहा है वह कभी कामयाब नहीं हो सकता लेकिन अगर दिल्ली में केजरीवाल सरकार यह करना चाहती है तो उसे वैज्ञानिक तरीकों और रिसर्च के साथ आधुनिक मशीनों का इस्तेमाल करना होगा। इससे 70% तक पेड़ बच सकते हैं लेकिन इसमें काफी पैसा खर्च होगा। सरकार को चाहिए कि वह वह हर पेड़ की ट्रांसप्लांटेशन की कीमत तय करे। स्टालिन इस नीति को अच्छा बताते हुए कहते हैं कि उनके हिसाब से हर एक पेड़ को ट्रांसप्लांट करने में कम से कम 50 हजार से 1 लाख का खर्च होगा। उनको भरोसा है कि अगर प्रोजेक्ट डेवलपर को पहले ही इतने भारी खर्च के बारे में बता दिया जाए तो वह वृक्ष काटने के बजाय उसे बचाने की सोचेगा।

धूल झोंक रही है सरकार
प्रोफेसर बाबू बताते हैं कि ट्री ट्रांसप्लांट की तकनीक उम्दा मशीनों के साथ आई लेकिन हर जलवायु और हर उम्र के पेड़ पर इसे लागू नहीं किया जा सकता। वह कहते हैं, यह ट्रांसप्लांट की कल्पना शहरी सोच है और सबसे पहले यह ऑस्ट्रेलिया से आई। यह यूरोप में बहुत प्रचलित नहीं है। ऑस्ट्रेलिया में बड़े बड़े माइनिंग प्रोजेक्ट्स की वजह से यह प्रचलित हुआ होगा। फिर यह शब्द दुनिया के कई देशों में गया। भारत में कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान यह प्रयोग किया गया लेकिन पूरी तरह असफल रहा। बाबू के मुताबिक ट्रांसप्लांट केवल 10-15 साल उम्र के नन्हें और युवा पेड़ों का ही हो सकता है। उधर स्टालिन कहते हैं कि अमेरिका और सिंगापुर जैसे देशों ने इस क्षेत्र में कामयाबी हासिल की है और यह प्रयोग केवल भारी खर्च और उम्दा टेक्नोलॉजी से किया जा सकता है।

मुख्यमंत्री केजरीवाल ने अपने बयान में कहा है दिल्ली में 400-500 साल पुराने पेड़ हैं। उनके मुताबिक काटे गए पेड़ की जगह लगाई गई नई पौध इन पेड़ों की जगह नहीं ले सकते। दिल्ली सरकार काटे गए एक पेड़ की जगह 10 पेड़ लगाने की नीति को जारी रखते हुए ट्री-ट्रांसप्लांटेशन की नीति ला रही है और ऐसा करने वाली वह पहली राज्य सरकार है। लेकिन एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि इतने पेड़ों को लगाने के लिए उपयुक्त जगह राजधानी में कहां है। पर्यावरण कार्यकर्ता राजीव सूरी ने दिल्ली की डिफेंस कॉलोनी में एक बर्बाद हो चुके  हिस्से को ग्रीन बेल्ट में तब्दील किया है। वह कहते हैं कि ट्रांसप्लांट किए गए पांच प्रतिशत पेड़ भी नहीं लग पाते और हमें यह समझना होगा कि अगर हमें अपने बच्चों को साफ हवा देनी है तो विकास के चक्र को कहीं न कहीं नियंत्रित करना होगा।

राजीव सूरी के मुताबिक, ट्रांसप्लांटेशन की बात करना हमारी आंखों में धूल झोंकने वाली बात है कि देखो हम पेड़ों को काट नहीं रहे हैं क्योंकि अगर वह सीधे पेड़ काटेंगे तो जनता तीखा विरोध करेगी। इसलिए वह इसे ट्रांसप्लांट करने की बात कर रहे हैं। ट्रांसप्लांट तो नन्हें पौधों को किया जाता है, इस तरह के विकराल वृक्षों को नहीं। हमें विकास के मॉडल पर भी सोचना चाहिए। जब हम डेवलपमेंट की बात करते हैं तो हमें सोचना चाहिए कि हम कहां उसकी सीमा रेखा तय करें। जिस तरह से शहर फैल रहा है और लगातार बढ़ता जा रहा है वैसे तो एक दिन हमारे घर पर भी हाइवे बन जाएगा।
रिपोर्ट : हृदयेश जोशी

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