ऐसे 9 राजनीतिक दल, जो एक ही परिवार की हैं 'बपौती'

कांग्रेस है जिस पर वंशवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया जाता है, लेकिन कांग्रेस में एक ही वंश के अलावा ऐसे कई नेता हुए हैं जिन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष पद को ग्रहण किया और कांग्रेस ने ऐसे कई नेताओं को पीएम बनाया जो कि नेहरू-गांधी परिवार से नहीं थे। हालांकि वंशवाद का आरोप तो भाजपा पर भी लगता रहा है। भाजपा में ऐसे कई नेता है जिन्होंने अपने लोकसभा या विधानसभा क्षेत्र से अपने बेटे या बेटी को टिकट दिलवाकर परिवार का कब्जा बरकरार रखा है। लेकिन सवाल सबसे महत्वपूर्ण है कि क्या देश में ऐसी भी पार्टियां है जो कि किसी एक ही परिवार की बपौती है, जिन्होंने कभी भी किसी दूसरे को अपनी पार्टी का मुखिया नहीं बनने दिया? आओ जानते हैं ऐसी ही कुछ पारिवारिक पार्टियों के बारे में।
 
 
1.समाजवादी पार्टी- उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इस पार्टी की स्थापना मुलायम सिंह यादव ने 1092 में की थी। इस पार्टी में अधिकतर यादव परिवार के लोग ही मुख्‍य पदों पर हैं। जब पार्टी में नंबर दो शिवपाल यादव को मुख्‍यमंत्री बनाने की बात चली तो मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे अखिलेश को कूटनीतिक तरीके से आगे कर दिया और बहुत ही नाटकीय घटनाक्रम के बाद पूरी पार्टी उसे सौंप दी। शिवपाल यादव को एक अलग पार्टी बनाना पड़ी। ऐसा आरोप लगाया जाता रहा है कि इस पार्टी ने हमेशा मुस्लिम और हिन्दू यादवों के वोट की ही परवाह की बाकी की नहीं। इस पार्टी को आगे बढ़ाने में अमर सिंह का सबसे बड़ा योगदान रहा लेकिन मुलायम ने बाद में उन्हें दरकिनार कर दिया। आज यह पार्टी मुलायम परिवार की एक संपत्ति की तरह है जिन्होंने उत्तर प्रदेश पर कई सालों तक राज किया।
 
 
मुलायम सिंह अपने आधे से ज्यादा रिश्तेदारों को राजनीति में ले आए हैं और उन्हें राज्य में कई महत्वपूर्ण विभाग और पद सौंपे हैं। वहीं, वर्तमान में उनके पुत्र अखिलेश ने भी अपनी पत्नी डिंपल यादव को फिर से कन्नौज लोकसभा क्षेत्र का प्रत्याशी घोषित कर दिया है।
 
2.जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस- इस पार्टी का वजूद जम्मू और कश्मीर में है। शेख अब्दुल्ला ने चौधरी गुलाम अब्बास के साथ मिलकर आल जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के नाम से 15 अक्टूबर 1932 में पार्टी का गठन किया। बाद में यह पार्टी जम्मू कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस के नाम से पहचानी जाने लगी। सितंबर 1951 में नेशनल कॉन्फ्रेंस सभी 75 सीटों पर जीत हासिल की और शेख अब्दुल्ला कश्मीर के मुखिया बने। 1977 के चुनाव के बाद शेख अब्दुल्ला फिर से कश्मीर के मुख्‍यमंत्री बने।
 
 
1982 में शेख की मौत के बाद उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला ने राज्य के मुख्‍यमंत्री बने और पार्टी के प्रमुख भी। फारूक के नेतृत्व में 1983 में पार्टी फिर चुनाव जीती और वे एक बार फिर राज्य के मुख्‍यमंत्री बने। 1987 के चुनाव के बाद फारूक अब्दुल्ला एक बार फिर राज्य के मुख्‍यमंत्री बने। 1996 के चुनाव में अब्दुल्ला ने 87 में से 57 विधानसभा सीटें जीतीं। वर्ष 2000 में फारूक ने कुर्सी छोड़ दी और उनके स्थान पर उनके बेटे उमर अब्दुल्ला मुख्‍यमंत्री बन गए। 2008 राज्य विधानसभा चुनाव में नेकां को 28 सीटें ही मिलीं, मगर उसने कांग्रेस (17) के सहयोग से सरकार बनाई। वर्तमान में फारूक अब्दुल्ला के बेटे ही पार्टी के सर्वेसर्वा हैं। इन पर आरोप लगता रहा है कि उन्होंने कभी भी देश की राजनीति नहीं की और ना ही पाटीं में किसी को नंबर दो बनने दिया। यह उनके परिवार की पार्टी बनकर रह गई।
 
 
3.राष्ट्रीय जनता दाल- लालू प्रसाद यादव ने 5 जुलाई 1997 को जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल (राजद या आरजेडी) के नाम से नए दल का गठन किया और लालू यादव लगातार कई वर्षों तक बिहार के मुख्यमंत्री बने रहे। चारा घोटाले में आरोप पत्र दाखिल होने के बाद लालू ने मुख्‍यमंत्री पद से इस्तीफा देकर पत्नी राबड़ी देवी को राज्य का मुख्‍यमंत्री बना दिया। इसके बाद राज्य और पार्टी में बहुत उठा पटक हुआ। बाद में लालू ने जेल जाने के बाद पार्टी की कमान अपने पुत्र तेजस्वी यादवी और तेज प्रताप यादव को सौंप दी जबकि उन्होंने अपने परिवार के अन्य वरिष्ठ सदस्यों को दरकिनार कर दिया। लालू की बेटी मीसा को 2016  में राज्यसभा का सदस्य बनी थी। उन्होंने अपने चाचा को दरकिनार कर यह पद हथियाया था।
 
 
4.जनता दल सेक्युलर- यह पार्टी कर्नाटक में अपना वर्चस्व रखती है। देश के पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा ने जुलाई 1999 में जनता दल सेक्युलर की स्थापना की। वर्ष 2004 में जदएस ने भाजपा के सहयोग से सरकार बनाई और देवेगौड़ा के पुत्र एचडी कुमारस्वामी राज्य के मुख्‍यमंत्री बने। बाद में यह सरकार 20 महीने ही चल पाई। विधानसभा के लिए वर्ष 2018 में हुए चुनाव में भाजपा 104 सीटें हासिल कर सबसे बड़ी पार्टी बनी, लेकिन किस्मत कुमारस्वामी के साथ रही और वे कांग्रेस के सहयोग से फिर राज्य के मुख्‍यमंत्री बने। इस चुनाव में जदएस को 38 और कांग्रेस को 78 सीटें मिली थीं।
 
 
देवेगौड़ा अपने पोते निखिल को मांड्या और प्रज्वल को हासन लोकसभा चुनाव क्षेत्रों का प्रत्याशी घोषित कर किया है। देवेगौड़ा परिवार की तीसरी पीढ़ी को भी आगे बढ़ाया जा रहा है। एक तरफ देवेगौड़ा के छोटे बेटे कुमारस्वामी राज्य में मुख्यमंत्री पद संभाले हुए हैं वहीं कुमारस्वामी के बड़े भाई और प्रज्वल के पिता रेवन्ना लोक निर्माण विभाग के मंत्री हैं। कुमारस्वामी ने परिवारवाद की प्रथा को एक कदम और बढ़ाते हुये अपने तीसरे भाई के ससुर डीसी तमन्ना को भी राज्य के परिवहन विभाग की बागडोर थमा दी है। इस परिवार की बहुएं भी आज महत्वपूर्ण पदों पर हैं।
 
 
5.राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी- सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस से अलग होकर महाराष्ट्र के पूर्व मुख्‍यमंत्री और केन्द्रीय मंत्री रहे शरद पवार, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पीए संगमा और तारिक अनवर ने 25 मई 1999 को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा या एनसीपी) के नाम से नई पार्टी बनाई थी। लेकिन अब यह पार्टी पूरी तरह शरद परिवार की पार्टी बन गई है। हालांकि बाद में पवार की सोनिया को लेकर नाराजगी धीरे-धीरे कम हो गई और वे एक बार फिर कांग्रेस के करीब आ गए। वे कांग्रेस में तो शामिल नहीं हुए लेकिन उनकी पार्टी यूपीए-1 और यूपीए-2 सरकार में शामिल रही।
 
 
हाल ही में शरद पवार के भतीजे अजीत पवार और उनके बेटे पार्थ ने मिलकर अब पार्टी में अपने वर्चस्व की लड़ाई छेड़ दी है। हालांकि पवार खानदान की तीसरी पीढ़ी के पार्थ के चुनाव मैदान में उतरने के बाद परिवार अपनी एकजुटता की तस्वीर पेश करने की हरमुमकिन कोशिश कर रहा है। शरद पवार के भाइयों के पोतों- रोहित व पार्थ, पवार की बेटी और अपनी बुआ सुप्रिया सुले आदि सभी रिश्‍तेदार राजनीति में हैं। एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार अपनी पुत्री सुप्रिया सुले को लोकसभा सदस्य बनाने में नहीं चूके।
 
 
6.तेलगुदेशव पार्टी- तेलुगु फिल्मों के सुपर‍ सितारे एनटी रामाराव ने 29 मार्च 1982 को तेलुगुदेशम पार्टी (तेदेपा या टीडीपी) की स्थापना की। रामाराव के चमत्कारी व्यक्तित्व का ही नतीजा था कि पार्टी के गठन के बाद 9 महीने के भीतर हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी ने बहुमत हासिल किया और एनटी रामाराव आंध्रप्रदेश के मुख्‍यमंत्री बने। इस पार्टी का जनाधार मुख्‍य रूप से आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में है। एनटीआर के निधन के बाद पार्टी की कमान उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू के हाथों में आई, जो कि वर्तमान में राज्य के मुख्‍यमंत्री हैं। आंध्रप्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर चंद्रबाबू नायडू ने एनडीए से संबंध तोड़ लिए।
 
 
7.तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस)- आंध्रप्रदेश से तोड़कर अलग तेलंगाना राज्य बनाने की मांग को लेकर कल्वकुंतला चंद्रशेखर राव (केसीआर) ने 27 अप्रैल 2001 को तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) का गठन किया। तेलुगुदेशम पार्टी से अलग हुए राव का पार्टी गठन का एकमात्र एजेंडा तेलंगाना राज्य का गठन था। हैदराबाद को नए राज्य की राजधानी बनाने की मांग भी इसमें शामिल थी।
 
तेलंगाना जब अलग राज्य बना तो वे वहां के मुख्यमंत्री बने जबकि उन्होंने अपने बेटे केटी रामाराव को पार्टी का अध्यक्ष बना दिया। उनका बेटा रामा राव उन्हीं की सरकार में भी मंत्री है। उनकी छोटी छोटी बहन कविता निजामाबाद निर्वाचन क्षेत्र के लिए लोकसभा में संसद सदस्य है।
 
 
8.पीपुल्स डेमोक्रैटिक पार्टी- जम्मू कश्मीर की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (जेकेपीडीपी) के संस्थापक पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री और जम्मू कश्मीर के मुख्‍यमंत्री रहे मुफ्ती मोहम्मद सईद ने 1999 में की थी। वर्तमान में इसकी मुखिया सईद की बेटी मेहबूबा मुफ्ती हैं। सईद का राजनीतिक सफर 1950 में नेशनल कॉन्फ़्रेंस से शुरू हुआ था, लेकिन 1959 में वे नेकां से अलग होकर डेमोक्रेटिक नेशनल कॉन्फ़्रेंस और फिर कांग्रेस में चले गए। वर्ष 1987 में वे कांग्रेस से बाहर चले आए और वीपी सिंह सरकार में गृहमंत्री बने।
 
 
वर्ष 2002 के राज्य विधानसभा चुनाव में पीडीपी ने 16 सीटें जीतकर कांग्रेस के साथ सरकार बनाई, जबकि 2004 के लोकसभा चुनाव में इसे मात्र एक सीट मिली। 2008 के विधानसभा चुनाव में इस पार्टी को 21 सीटें मिलीं। 2014 में इसका प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा। विधानसभा चुनाव में इसे 28 सीटें मिलीं, जबकि 16वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में 3 सीटें मिलीं। पीडीपी ने 2014 की जीत के बाद भाजपा के सहयोग से राज्य में सरकार बनाई, लेकिन यह गठबंधन लंबे समय तक नहीं चल पाया और 2018 में यह सरकार गिर गई। वर्तमान में पीडीपी राज्य हितों को छोड़कर अलगाववाद की राह पर चलने लगी है।
 
 
9.द्रमुक- द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (द्रमुक या डीएमके) एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल है, जिसका जनाधार तमिलनाडु और पुडुचेरी में है। इसकी स्थापना 17 सितंबर 1949 में सीएन अन्नादुराई ने की थी। इसका गठन द्रविड़ कषगम नामक पार्टी के विभाजन के बाद हुआ, जिसके प्रमुख पेरियार ईवी रामास्वामी थे। दिग्गज नेता एम. करुणानिधि 1969 में डीएमके के प्रमुख बने और 7 अगस्त 2018 में अपनी मृत्यु तक वे इस पद पर रहे। अब यह पार्टी पूर्णत: एक परिवार की पार्टी बनकर गई है जिसमें करुणानिधि के वेटे स्टालिन और उनकी बेटी कनिमोझी ही सर्वेसर्वा हैं।
 
 
दिवंगत मुख्यमंत्री करुणानिधि के बेटे स्टालिन के हाथ में डीएमके की कमान है। करुणानिधि ने राज्य में भाषा, जातिवाद और प्रांतवाद की आग भड़कार सत्ता हासिल की थी। करुणानिधि पांच बार राज्य के मुख्‍यमंत्री रहे। एमके और करुणानिधि पर लिट्‍टे से संबंध होने के आरोप के साथ ही परिवारवाद के भी आरोप लगते रहे हैं। वे खुलकर हिन्दू धर्म का विरोध करते रहे हैं। हालांकि वे खुद को नास्तिक बताते थे लेकिन उन पर और उनके परिवार को क्रिश्‍चियन धर्म को बढ़ावा देने के आरोप भी लगते रहे हैं।
 
 
और भी कई पार्टियां हैं जोकि एक व्यक्तिवादी या वंशवादी पार्टी ही बनकर रह गई है। उक्त पार्टियों का कोई राष्ट्रीय एजेंडा नहीं है। यदि यह कहें कि इनका कोई क्षेत्रीय एजेंडा है तो यह भी सोचने वाली बात होगी। इस तरह और भी कई पार्टियां हैं जिन्होंने भिन्न-भिन्न राज्यों में अपना वजूद कायम कर राज्य की सत्ता का सुख भोगा है। इनके कारण राज्य में अलगाववाद, प्रांतवाद, जातिवाद और भाषावाद को ही बढ़ावा मिला है। इन पार्टियों से राज्य और देश का कितना भला हुआ है यह कोई जानने का प्रयास नहीं करता है।

 

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