एक कॉलम और 50 शब्दों में सिमट गई 147 मौतें

-ब्रजमोहन सिंह

कीनिया में मारे गए 147 छात्रों के लिए न हमने मोमबत्तियां जलाईं, न ही हमारी आँखों से दो बूँद आंसू के छलके, न ही इस हत्या के विरोध में किसी ने मुज़ाहिरा ही किया।
 
हमारे टीवी चैनल्स पर महज़ कुछ ब्रेकिंग न्यूज़ के स्क्रॉल चले। दिल्ली के एक बड़े राष्ट्रीय अग्रेज़ी दैनिक में महज़ एक कॉलम की 50 शब्दों की ख़बर में सिमट गई 147 लोगों की मौत की ख़बर। 
 
दिल्ली में जब खबर मिली, तो मौत का आंकड़ा 20 के आसपास था और 500 के आसपास छात्रों के ग़ायब होने की खबर थी। आधी रात होते-होते यह आंकड़ा बढ़कर 100 को पार गया। कायदे से यह एक बड़ी खबर थी, हिंदुस्तान के अख़बारों के लिए और टीवी चैनल्स के लिए भी। लेकिन अगले दिन के अख़बारों, टीवी चैनल्स को देखकर मायूसी ही हाथ लगी। 
 
घर आकर मैं देर रात तक बीबीसी, सीएनएन और अल-जज़ीरा पर कीनिया से आ रही खौफ़नाक तबाही के मंज़र को देखता रहा।
 
हमारे चैनलों पर “गैर मुद्दों” को लेकर बुद्धिजीवियों की पंचायत लगाने वाले चुप थे। शायद कीनिया में 147 छात्रों के क़त्ल का इनके लिए कोई अहमियत नहीं। मैं यह सोच रहा था कि अगर यह घटना न्यूयॉर्क में होती, लंदन में होती, या पेरिस में होती, तो हमारी प्रतिक्रिया क्या यही होती? बिल्कुल नहीं। सारी दुनिया से फ़ोनों होते, स्पेशल बुलेटिन खोले जाते। अफ़सोस भारतीय मीडिया ने इसे कुछ बुलेटिन में समेट दिया।
 
मुझे शक है कि मारे गए लोग एक ख़ास रंग के थे, क्या इसलिए हमारी ख़बरों में उनको जगह नहीं मिली? यह सवाल भारत में बहुत कम लोगों ने उठाया होगा। हिंदुस्तान में क्या रंग के आधार पर अब खबरें तय होंगी, जो खुद रंगभेद का सालों तक शिकार रहा है। यह एक व्यापक बहस का विषय हो सकता है।
 
कीनिया को अल-शबाब के आतंकियों ने इसलिए अपना निशाना बनाया था क्योंकि कीनिया ने सोमालिया में अपने सैनिकों को अलकायदा के खिलाफ लड़ने के लिए भेजा। क्योंकि केन्या के लोग इस्लामिक राज्य के खिलाफ़ हैं। वहीं अल-शबाब, जो कि अलकायदा का यूथ विंग हैं, नैरोबी की सड़कों को खून से रंग देना चाहता है।
 
रवांडा, कांगो, नाइजीरिया, सोमालिया, सीरिया से लेकर लेकर तमाम मध्य-पूर्व और पाकिस्तान तक हर रोज़ क़त्लेआम हो रहा है। इस्लाम के नाम पर इस्लाम धर्म पालन करने वालों की हत्या हो रही है, उन गैर इस्लामी शहरियों की भी हत्या हो रही है, जो उनके हिसाब “आदर्श इस्लामी राज्य” बनाने की राह में सबसे बड़ी रुकावट हैं। चाहे वह पेशावर के स्कूल हों, या कीनिया के विश्वविद्याल, इनको बैरकों में तब्दील नहीं किया जा सकता।
 
पेशावर में सैकड़ों बच्चों के क़त्ल ने पूरी दुनिया को झकझोर दिया था। वह दर्द बच्चों के मां-बाप के ज़ेहन में पूरी ज़िन्दगी मौजूद रहेगा। लेकिन क्या कीनिया की घटना हमारी तन्द्रा को झकझोर नहीं पाई?
 
उम्मीद थी कि गेरिसा में कीनियाई छात्रों की सामूहिक हत्या के बाद पूरी दुनिया में इसका विरोध होगा, ग़मो-गुस्सा का इज़हार होगा, दुनियाभर के लोग आतंक को ख़त्म के लिए कोई ठोस कदम उठाएंगे। लेकिन टुकड़ों में किए जा रहे प्रयास का नतीज़ा निकलेगा, इसकी उम्मीद बहुत कम है। आज आतंक की कोई सरहद नहीं है। आतंक एक अंतरराष्ट्रीय परिकल्पना है।
 
आप यह नहीं कह सकते कि कीनिया तो बहुत दूर है। हमें क्या।

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