बदलाव की बयार

उमेश चतुर्वेदी

मंगलवार, 4 अप्रैल 2017 (23:55 IST)
नेहा त्रिपाठी, उनकी नेम प्लेट पर यही लिखा था...मध्यप्रदेश के रायसेन जिले की पुरापाषाणाकालीन भीमबेटका की गुफाओं में दाखिल होने के पहले बनी चेक पोस्ट की वे प्रभारी थीं...विश्व विरासत के तौर पर संरक्षित इन गुफाओं में घुसने से पहले उनकी मर्जी जरूरी है और जरूरी कागजी खानापूरी भी। 
 
हमारी टीम के एक सदस्य कागजी खानापूरी में मशगूल थे, इसमें देर लग रही थी। सूखी चट्टानों और पर्णरहित पेड़ों से घिरे माहौल की चिलचिलाती गर्मी शरीर को चुभ रही थी। गर्मी से बचने और अपना सामान्य ज्ञान बढ़ाने के लिए उनसे पूछ बैठा- 'मैडम, क्या आप एएसआई से हैं..' मेरा आशय ऑर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया यानी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से था। लेकिन पता नहीं, उन्होंने क्या सुना..मेरी ओर तिरछी नजर डाली..चेहरे पर पूरी तरह मुस्कान लाने की कोशिश की और बेहद मासूमियत भरे अंदाज में जवाब दिया- 'हम आईएसआईएस से नहीं हैं सर..'
 
वे शायद शुरुआती एएस की ध्वनि नहीं सुन पाई थीं..अब झेंपने की बारी हमारी थी। हालांकि हमने भी सहज मुस्कान से उन्हें जवाब दिया- 'मैडम, मेरा मतलब एएसआई से था..' उनके चेहरे पर मुस्कान तब भी थी, हालांकि जुबान में प्रतिकार का भाव जारी था। उन्होंने संयत ढंग से ही अपनी बात रखी- 'मुझे तो ऐसा ही लगा।' हालांकि सुनने में हुई अपनी गलती का उन्हें असहसास हुआ। जिस पोस्ट की वे प्रभारी हैं, वह दरअसल वन विभाग का है। संरक्षित वन क्षेत्र और विश्व विरासत होने के चलते वहां की सुरक्षा की जिम्मेदारी वन विभाग की ही है। बहरहाल उन्होंने अपनी गलती लंबी-सी मुस्कान के जरिए सुधारी और हमारे लिए चेक पोस्ट का बैरियर हटाने का आदेश अपने मातहत को सुना डाला।
 
महाभारत के दूसरे पांडव भीम की बैठका की इन चट्टानों और गुफाओं के बारे में कहा जाता है कि यहां भीम ने अज्ञातवास का कुछ वक्त गुजारा था। बोलचाल की भाषा में यह भीमबेटका नाम से मशहूर हो गया है। हालांकि यहां बारह हजार साल पुराने शैल चित्र मिले हैं। इसी की वजह से यहां की करीब पांच सौ गुफाएं विश्व विरासत के तौर पर संरक्षित की गई हैं। शैलचित्रों के अनूठे नमूने यहां की चट्टानों और गुफाओं में हैं। 
 
इन गुफाओं की तरफ बढ़ते वक्त करीब ढाई दशक पुरानी ऐसी ही घटना याद गई। तब दिल्ली के बाल भवन के ग्रीष्मकालीन कैंप में हम रचनात्मक लेखन के गाइड के तौर पर अस्थायी तौर पर तैनात थे। तब साथ में आर्ट के लिए तैनात एक लड़की की तुलना मैंने बिहार की तत्कालीन मुख्यमंत्री राबड़ी देवी से कर दी थी। 
 
हालांकि उसका संदर्भ सकारात्मक था और मकसद यह जताना था कि महिलाएं किस तरह अपनी सीमाओं के बावजूद आगे बढ़ रही हैं और जीवन के उन क्षेत्रों में भी पुरूषों को मात दे रही हैं, जिन्हें अब तक पुरूषों के लिए संरक्षित माना जाता रहा है। लेकिन वह लड़की चिढ़ गई थी। उसका कहना था कि मैंने राबड़ी से उसकी तुलना करके उसका अपमान किया है। राबड़ी के बारे में तब धारणा थी कि वे कामचलाऊ पढ़ी-लिखी हैं और वह लड़की दिल्ली की कान्वेंट शिक्षित थी।
 
नेहा त्रिपाठी को चिढ़ इसलिए होती है कि उन्हें लगता है कि दुनिया में मासूम खून बहाने के लिए बदनाम इस्लामिक आतंकवादी आईएस से उन्हें जोड़ा जा रहा है तो ढाई दशक पहले की लड़की इसलिए नाराज हो रही थी कि उसकी तुलना एक कम पढ़ी-लिखी महिला से की जा रही थी। दोनों उदाहरणों से साफ है कि समाज में बनी अवधारणाओं से इतर सोचने को शायद ही कोई तैयार होता है। 
 
अगर किसी संस्था, व्यक्ति या संगठन का काम नकारात्मक है, उसकी सोच समाज के उलट है तो गलती से भी कोई अपनी तुलना नहीं करने देता। उसका गुस्सा तुरंत सतह पर आ जाता है। वैसे भी आईएस को लेकर दुनिया में कुछ-एक अतिवादियों को छोड़ दें तो किसी को भी सहानुभूति नहीं है। ऐसे में नेहा त्रिपाठी ही क्यों, कोई भी अपनी तुलना आईएस से नहीं करना चाहेगा। इससे यह भी बात साबित होती है कि आईएस को लेकर छोटी-छोटी जगहों तक लोगों में कितना गुस्सा और प्रतिकार है। 
 
भीमबेटका की गुफाओं के पास पथरीली राहों पर बेरस ड्यूटी कर रही कोई लड़की हो या फिर दिल्ली के कॉलेजों में पढ़ रहा युवा, वक्त मिलते ही आईएस के प्रति अपने गुस्से को इजहार करने से नहीं चूकता। ढाई दशक पुराना अनुभव हो या फिर अब का, इससे साफ है कि अब महिलाएं अपनी प्रतिक्रियाएं देने से नहीं हिचकतीं। 
 
कम से कम शहरी लड़कियों और महिलाओं में अपने सम्मान के प्रति जागरूकता बढ़ी है और वे अपनी बात कहने से हिचकती नहीं। महिलाओं में आ रहे इस बदलाव का स्वागत होना ही चाहिए। समाज स्वागत भी कर रहा है। इसका यह भी मतलब नहीं है कि समाज के आखिरी पायदान पर रह रही महिलाओं में ऐसा बदलाव आ चुका है। लेकिन नेहा त्रिपाठी जैसी लड़कियों के उदाहरण से उम्मीद तो बंधती है कि बदलाव की यह बयार निचले पायदान तक जरूर पहुंचेगी।

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