संतानहीनता कलंक नहीं है, बदल दीजिए अपनी सोच को

आज सुबह जैसे ही खबर मिली कि शोभा मौसी नहीं रहीं। उनकी पूरी जिन्दगी आंखों के सामने से गुजरने लगी। मौसी-मौसियाजी हमारे ननिहाल के सूत्रधार रहे। वे सबसे छोटी थीं। रौबदार, दबंग, स्पष्टवादी। साथ ही बड़ी प्रेमिल भी पर अनुशासन पसंद। उन्हें अपने कोई बालक नहीं थे। पर सभी बच्चों को उन्होंने अपने बालकों की तरह ही स्नेह पूर्वक प्यार दिया।
दोनों सरकारी नौकरी में थे। ईश्वर की कृपा से लक्ष्मी कृपा भी असीम थी।अब यहीं से जिंदगी की कहानी में एक काला मोड़ हर ऐसी दंपत्ति को रूबरू होता है। ससुराल पक्ष, पीहर पक्ष, जाति, समाज सब के सब संदिग्ध, बेचारगी और कुछ लोग तो लालची नजरों से भी उनकी ओर देखने लगते हैं। वे भी कभी इधर कभी उधर का झूला झूलते अपने जीवन के सहारे तलाशते रह जाते।
कई लोगों पर उन्होंने पैसा लुटाया, सहायता की, पढ़ाया लिखाया, पर फिर वही ढाक  के तीन पात। उन्हें अधिकतर केवल बुराइयां, अपमान मिलता। स्वार्थपूर्ति के साधन के रूप में लोगों, रिश्तेदारों ने उनको इस्तेमाल किया।सोच यह कि ‘इत्ता कमाते हैं, करेंगे क्या?’यदि कोई सेवा कर रहा है तो उसे न केवल मेवा चाहिए बल्कि मेवों का पूरा बाग चाहिए। निस्वार्थ भाव से उनसे कोई जुड़ा हो ऐसा मुझे याद नहीं आता।आखिर ऐसा क्यों है? क्या इस इक्कीसवीं सदी में भी हमारी मानसिकता नहीं बदली? क्यों?
प्राचीन इतिहास के यदि पन्ने पलटें तो पता लगता है कि संतानहीनता को तब से लेकर आज तक अच्छी दृष्टि से नहीं देखा गया। कई ग्रंथों में संतानहीन को शुभ कार्यों से दूर रखने के भी वर्णन प्राप्त होते हैं। लेकिन ऋषियों ने इस समस्या का समाधान भी सोचा तथा संतान प्राप्ति हेतु जहां धार्मिक दृष्टि से जप-तप-पूजा व यज्ञ किए जाते थे वहीं दत्तक पुत्र और ख़रीदे हुए पुत्रों का भी वर्णन प्राप्त होता है। कोशिश ये की जाती थी की किसी की गोद सूनी न रहे, कोई वंश नष्ट न हो, उत्तराधिकार की परम्परा  कायम रहे।
इसका उद्देश्य धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक भी था।गोद लेने की परम्पराएं  ईस्ट इण्डिया कंपनी के आने तक जारी रहीं व कंपनी ने भी उसे मान्यता दी। सन 1848 में जब डलहौजी कंपनी का गवर्नर जनरल बन कर भारत आया तो उसने आश्रित राज्यों के लिए हड़पनीति लागू कर दी। इसके अनुसार गोद की प्रथा को अमान्य कर दिया गया और कंपनी के आश्रित जिन राज्यों के राजाओं की कोई संतान नहीं थी उनका राज्य कंपनी ने ले लिया। सतारा, संभल, जैतपुर, नागपुर, उदयपुर, झांसी की रियासतें इसी नीति के कारण कंपनी ने हड़प लीं।झांसी की रानी लक्ष्मी बाई का बलिदान किसे याद नहीं?
‘अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च’
– पुत्र हीन की गति नहीं होती. गरुड़ पुराण/ मार्कंडेय पुराण
 
यह सोच भी एक जड़ है, जो इतनी गहरी पैठी हुई है कि किसी भी तरीके से इस सोच को उखाड़ फेंकना उतना ही कठिन है जितना दिन में तारे गिनने की कोशिश करना। यदि बेटी है तो भी। मतलब निसंतानता का कलंक इनकी घटिया सोच में केवल पुत्र पैदा करने से ही जाएगा। हालांकि इस मुद्दे में जरुर आज थोडा बदलाव आया है। बेटियां अब सहारा बनने के साथ अंतिम संस्कार करने का दायित्व भी पूरी जिम्मेदारी व निष्ठा से निभा रहीं हैं।
शोभा मौसी सत्तर साल की थी तब भी यही था। आज भी यही है। अंतर इतना आया है कि अब औरतें जो पढ़ी-लिखीं, समझदार, सुलझे विचारों की हैं उन्होंने अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीना शुरू की है। परिवार, जाति, समाज की घटिया सोच के विरुद्ध जा कर। पर उन्हें आसानी से सहन नहीं किया जा रहा है। 
इसका उदाहरण मेरी एक सखी रोशनी भाभी हैं। उनके पति जीवित रहे तब तक पूरे परिवार का लंगर उनके घर चलता रहा।सारे त्यौहारों पर जमघट भी, सारे लेनदेन का बोझा भी उनके ही हिस्से आता। परिवार में होने वाली शादियां व अन्य कार्यक्रमों के खर्चे भी उन्ही के सर आते। पर उनके पति के स्वर्ग वासी होते ही पूरा ससुराल उनकी सम्पति के पीछे पड़ गया। उनकी जिंदगी में जहर घोल दिया। 
साम, दाम, दंड, भेद की नीतियां भी शर्मिंदा होने लगीं। जिनके मुंह तारीफ करते नहीं थकते थे आज उन्हें बदनाम करने में तुली हुईं है। इसका दुखद पक्ष यह है कि घर की सभी महिलाएं भी उनके खिलाफ षडयंत्र व दुष्प्रचार करने में पीछे नहीं है। वो बेहद सदमे में इस बदले हुए परिदृश्य से जूझ रहीं हैं। कितना खौफनाक है यह सब.... कितना भयानक...पति का बिछोह का दर्द उस पर घर, परिवार, जाति, समाज के ये जहरीले बिच्छू ...उफ्फ...सोच कर ही दिल कांप उठता है।
हम कितना ही स्वतंत्रता का ढोल पीटें आज भी हमारे घरों में ही डलहौजी अजर अमर हो प्रेत की तरह साथ रहते हैं। समाज में सबके अंदर अमर बेल से बसे पड़े हैं। औरतों का निसंतान होना उनको अपमानित करना व गाली देने के सामान व्यवहार में लाया जाता है। 
 
बांझ, बांझड़ी जैसे शब्दों से उसे प्रताड़ित किया जाता है। ऐसे कई कोढ़ हैं समाज में हमारे सामने, जिनका इलाज अभी बाकी है। हम औरतों को ही लड़ना होगा। ऐसे लालची, खोटी नीयत वाले, स्वार्थी, मौका परस्त लोगों से बचें, उन्हें पहचानें, मुंहतोड़ जवाब दें जरुरत पड़ने पर कानून का सहारा लेने से भी न हिचकें। ये हमारी जिन्दगी है।

इसके फैसले भी हमारे ही होने चाहिए। क्योंकि इस दशा में पति-पत्नी दोनों ही शिकार होते है। यह प्रकृति के हाथ में है। किसी इंसान के नहीं। न हीं यह अभिशाप/श्राप है। यदि समस्या है तो निराकरण भी जरुर हैं... कहीं न कहीं... जरा ढूंढिए तो सही।

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