बचपन को संवारने की जरूरत

भारत में प्रत्येक वर्ष 14 नवंबर को पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। जो सपने चाचा नेहरू ने बच्चों के खुशहाल जीवन को लेकर देखें थे, वे आज कई धूमिल होते नजर आ रहे हैं। आज भी देश के करोड़ों बच्चे दो जून की रोटी के लिए मोहताज हैं। जिस उम्र में बच्चों के हाथों में स्कूल जाने के लिए किताबों से भरा बस्ता होना चाहिए, उस उम्र में वे मजदूरी करने को मजबूर हैं। ये विषम हालात ही हैं जो इन बच्चों को उम्र से पहले बड़ा बना रहे हैं। कहा जाता है कि बच्चे किसी देश का वर्तमान ही नहीं, बल्कि भविष्य भी होते हैं। जिस देश के बच्चे वर्तमान में जितने महफूज व सुविधा संपन्न होंगे, जाहिर है कि उस देश का भविष्य भी उतना ही उज्ज्वल होगा। 
 
लेकिन, इसके विपरीत भारत में 'बाल' का 'हाल' किसी से छिपा नहीं है। देश में बाल श्रम अधिनियम (14 वर्ष से कम बच्चों को मजदूरी व जोखिम वाला काम करवाना अपराध है) व बाल मजदूरी कानून होने के बाद भी कोई न कोई 'छोटू' आपको किसी न किसी होटल या ढाबे पर बर्तन धोता या टेबल पर चाय परोसता मिल ही जाएगा। गौरतलब है कि भारत में 60 मिलियन बच्चे बाल मजदूरी में संलग्न हैं। देश की सड़कों पर आए दिन आपको कोई न कोई बच्चा फटे कपड़ों में भीख मांगता, छब्बीस जनवरी व पंद्रह अगस्त जैसे राष्ट्रीय पर्वों पर झंडा बेचता और ट्रैफिक सिग्नल पर सलाम करता मिल ही जाएगा। यूनिसेफ ने तो इन बच्चों को स्ट्रीट चिल्ड्रेन के नाम पर दो भागों में वगीकृत किया है। एक तो वे बच्चे जो सड़कों पर भीख मांगते हैं और दूसरे वे बच्चे जो सामान बेचते हैं। मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक 1 करोड़ 80 बच्चे सड़कों पर रहते हैं और काम करते हैं।
 
ऐसे में जिस देश के बच्चे पढ़ नहीं पा रहे हैं। उस देश के विकसित होने का सपना देखना बेमानी ही होगी। हालांकि देश में सर्व शिक्षा अभियान के तहत हर बच्चे को शिक्षा देने का दावा सरकार करती तो है, लेकिन सरकारी शिक्षा की गुणता न के बराबर है। यही कारण है कि सरकारी स्कूल के बच्चों व निजी स्कूलों के बच्चों के शिक्षा के स्तर में रात दिन का अंतर नजर आता है। सरकारी स्कूलों में प्रवेश के लिए मिड डे मील, निःशुल्क किताबें व कम फीस का ऑफर देकर सरकार केवल और केवल खानापूर्ति ही कर रही है। दीगर, यह भी सच है कि आज संपन्न अभिभावक तो अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ने के लिए भेज ही रहे हैं। साथ ही, आर्थिक रूप से कमजोर अभिभावक भी अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए उनका दाखिला निजी स्कूल में करवा रहे हैं। फिर भले ही इसके लिए उन्हें रात को भूखा ही क्यों न सोना पड़े। तो वहीं दूसरी ओर देश में हर दिन किसी न किसी बच्चे को यौन शोषण का शिकार होना पड़ रहा है। रिपोर्ट तो यह कहती है कि हर तीन घंटे में एक बच्चे को बाल यौन शोषण का शिकार होना पड़ता है। सच्चाई यह भी है कि बच्चों को अपनी हवस का शिकार बनाने वाले अधिकत्तर इनके परिजन ही होते हैं। हालांकि बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए सरकार ने 2012 में पोक्सो (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस) एक्ट बनाया था। लेकिन यह बेअसर साबित हो रहा है। 
 
यह भी चौंकाने वाला सच है कि देश में हर साल 5 साल से कम उम्र के 10 लाख बच्चे कुपोषण के कारण मर जाते हैं। भारत कुपोषण की श्रेणी में दक्षिण एशिया का अग्रणी देश है। भारत में राजस्थान व मध्यप्रदेश का हाल तो ओर भी बुरा है। इन हालातों में केवल एक दिन बच्चों के विकास और स्वर्णिम भविष्य को लेकर चर्चा करना कितना वाजिब है? क्या अब भी बच्चों की दुर्दशा व इस भयावह स्थिति को लेकर हमें सचेत होने की आवश्यकता नहीं हैं? वहीं गृह मंत्रालय ने एक आरटीआई के जवाब में यह साफ किया है कि देश में प्रतिवर्ष 90 हजार बच्चे गुम हो जाते हैं। एक गैर-सरकारी संगठन की रिपोर्ट के अनुसार एक घंटे में करीबन ग्यारह बच्चे लापता हो जाते हैं। लापता हुए बच्चों में से अधिकत्तर बच्चे शोषण के शिकार हो जाते हैं। इनमें से ज्यादातर बच्चे अपने घर लौट ही नहीं पाते। 
 
इन सब के बाद यह सोचनीय है कि अब बचपन बचा कहां है? गलियां सुनसान हैं और मैदान जितने भी बचे हैं, वे वीरान हैं। दरअसल गलियों में धमा-चौकड़ी करने वाला बचपन आज इंटरनेट के मकड़जाल में फंसता जा रहा है। यही कारण है कि बच्चों को अपने होमवर्क के बाद जो समय मिल रहा है, उस समय को वे सोशल साइट्स व गेम्स खेलने में गंवा रहे हैं। जिसके कारण उनके आंखों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है तथा वे चिड़चिड़ेपन का शिकार हो रहे हैं। हाल ही में मोबाइल के एक गेम ब्लू व्हेल के कारण भारत में एक के बाद एक बच्चे के आत्महत्या की खबर ने सबको हैरत में डाल दिया। आखिर ऐसी नौबत क्यों आई? क्योंकि बच्चों को कभी भी अभिभावक ने मैदान में खेलने के लिए प्रोत्साहित किया ही नहीं। कभी मैदान में खेले जाने वाले खेलों के प्रति उनकी जिज्ञासा उत्पन्न करने की कोशिश की ही नहीं। जिसका कारण धनोपार्जन की अंधी दौड़ में अभिभावक का अपने बच्चों व परिवार से कट जाना है। 
 
कहते है कि बच्चे भगवान का रूप होते हैं। चंचलता, मासूमियत, भोलापन, सादगी व सच कहने की गजब शक्ति बच्चों में होती हैं। लेकिन आज उसी निर्भीक बचपन को अत्याधुनिकता की नजर लग गई है। यहां फिर अभिभावक की बच्चों को शीघ्र बड़ा बनाने की तलब ने कई न कई उनके बचपन को छिनने का प्रयास किया है। अगर यह स्थिति रही तो फिर बचपन और बुढ़ापे में क्या अंतर रह जाएगा? हमें इस बाल दिवस पर इन समस्याओं को लेकर गंभीरतापूर्वक चिंतन-मनन व मंथन करने की महती आवश्यकता है।
 

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