पकौड़े पर ओछी राजनीति से बाज आए विपक्ष

- सुयश मिश्र
 
तिल का ताड़ कैसे बनता है और किसी बयान को नेतागण किस प्रकार तोड़-मरोड़कर अपने हित में प्रचारित करते हैं। इसका ताजा उदाहरण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हाल ही में दिया गया पकौड़े बेचकर रोजगार पाने वाला बयान है। माननीय प्रधानमंत्रीजी ने लोकसभा चुनाव के समय युवाओं को रोजगार देने का बड़ा प्रलोभन दिया था और इसका राजनीतिक लाभ भी उनके दल को मिला किन्तु चुनाव के बाद की स्थितियां स्पष्ट करती हैं कि उनका रोजगार संबंधी वादा दूर-दूर तक पूरा नहीं हुआ है और इसी की बौखलाहट उनके इस बयान में जाहिर हो रही है।
 
 
व्यावहारिक स्तर पर रोजगार के अन्तर्गत सरकारी-गैर सरकारी नौकरियों सहित व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर पर किए जाने वाले समस्त व्यवसाय आते हैं, किन्तु आज का युवा रोजगार के रूप में किसी देशी-विदेशी कंपनी की नौकरी अथवा सरकारी-गैरसरकारी संस्था की नौकरी को ही रोजगार समझता है। इसी अर्थ में उसने वर्तमान प्रधानमंत्री के वायदे को ग्रहण किया था किन्तु जब उसे उसकी पूर्वधारणा के विपरीत पकौड़ा व्यवसाय जैसी सस्ती और पारम्परिक व्यवस्था की सलाह दी गई तो बेरोजगार युवा वर्ग का आक्रोशित होना स्वाभाविक ही है।
 
 
प्रश्न यह भी है कि मूंगफली, चाट, पकौड़ा, भेलपुरी, खिलौने, फल, मिठाई जैसे व्यवसाय करने के लिए विद्यालयों-विश्वविद्यालयों की बड़ी-बड़ी डिग्रियां प्राप्त करने की क्या आवश्यकता है? ये कार्य तो बिना डिग्रियों के भी भलीभांति किए जा सकते हैं। फिर हमारी सरकारें इन डिग्रियों को प्रोत्साहन क्यों देती हैं? उच्च शिक्षा के नाम पर करोड़ों रुपए क्यों खर्च किए जाते हैं? उच्च शिक्षित बेरोजगार डॉक्टरों, इंजीनियरों और अन्य डिग्री धारकों को ऐसे व्यवसायों की सलाह दी जाना कहां तक उचित है? निश्चय ही ऐसा बयान प्रधानमंत्रीजी की गरिमा के अनुरूप नहीं कहा जा सकता।
 
 
यह रोचक है कि होटल मैनेजमेंट, कैटरिंग जैसे बड़े व्यवसायों में तो खाने-पीने की चीजें बनाने-बेचने को तो सम्मानजनक समझा जाता है जबकि छोटे स्तर पर स्टाल या ठेले पर यही व्यवसाय तुच्छ माना जा रहा है और विपक्षी दलों के नेता प्रधानमंत्री के बयान को गलत दिशा में व्याख्यायित करके सियासी रोटियां सेंकने में लगे हैं। यह दुखद है, क्योंकि ईमानदारी से रोजी-रोटी कमाने का कोई भी काम कभी छोटा नहीं कहा जा सकता। बड़े-बड़े पदों पर बैठकर भ्रष्टाचार करके मोटी रकम डकारने वालों से तो इस देश के ठेले वाले, बूट पालिश वाले, रिक्शा चालक और मेहनतकश मजदूर-किसान लाख दर्जा अच्छे हैं। उनके छोटे समझे जाने वाले व्यवसाय निश्चय ही महान हैं, क्योंकि उनमें मेहनत का रंग और ईमानदारी की खुशबू है। इसलिए पकौड़े बेचकर उनका उपहास करने की ओछी राजनीति की जितनी निन्दा की जाए कम है।
 
 
चुनावी घोषणा पत्र में किए गए वायदों को पूरा करना सत्ताधारी दल की नैतिक जिम्मेदारी होती है और इस दृष्टि से रोजगार देने का कार्य वर्तमान सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। इससे इनकार नहीं किया जा सकता किन्तु कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दल रोजगार के वायदे को लेकर जिस प्रकार सरकार की टांग खींच रहे हैं, वह शर्मनाक है, क्योंकि ऐसे चुनावी वादे इन दलों ने भी सत्ता में आने पर कभी पूरे नहीं किए हैं। जिनके अपने चेहरे पूरी तरह काले हैं वे दूसरों के दाग दिखा रहे हैं। ऐसी ओछी राजनीति से बाज आना चाहिए।

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