धर्म, आस्था और न्यायपालिका : क्या जरूरी है कि परंपरा को तोड़ा जाए, इससे हासिल क्या होगा

विगत कुछ दिनों में देश की न्यायपालिका से कुछ ऐसे फ़ैसले आए जिन्हें स्वीकारने में समाज के एक बड़े वर्ग ने झिझक महसूस की। कुछ फ़ैसले सामाजिक सरोकारों से जुड़े थे, वहीं कुछ धार्मिक क्षेत्र से। इन फ़ैसलों ने देश में चिन्तन का एक नया अध्याय प्रारंभ किया। समाज का प्रत्येक वर्ग इन फ़ैसलों को अपनी बुद्धिमत्ता के अनुसार अपनी तर्कसारणी की कसौटी पर कसकर जांचने-परखने लगा और इन फ़ैसलों के पक्ष व विपक्ष में खड़ा होने लगा। 
 
अब प्रश्न यह उठता है कि लैंगिक समानता, अभिव्यक्ति की आज़ादी और निजता के अधिकार की ढाल के पीछे छिपकर अपनी सनातन संस्कृति पर प्रहार करना कहां तक उचित व स्वीकार्य है। भारतीय मनीषा को इस यक्ष प्रश्न का उत्तर खोजना ही होगा। ईश्वर ने सभी व्यक्तियों को समान बनाया है यह बात सत्य है लेकिन इस समानता का आधार क्या है। क्या इस तथ्य को जानने व समझने का प्रयास कभी किया गया है? 
 
ईश्वर की बनाई समानता और इस समानता का तर्क देकर प्रकृति प्रदत्त विभेद को मिटाने का प्रयास दो विपरीत बातें हैं। जैसे ईश्वर ने प्रत्येक स्त्री-पुरुष को आत्मा व सात चक्रों के आधार पर समानता प्रदान की है किन्तु प्रकृति ने स्त्री-पुरुषों में शारीरिक भेद भी किया है। प्रकृति द्वारा किया गया यह भेद किसी भी प्रकार से नहीं मिटाया जा सकता। जो लैंगिक समानता की बातें करते हैं वे मूलरूप में अपने अहंकार को तुष्ट करने की बात करते हैं क्योंकि हमारे सनातन धर्म में कहीं भी स्त्री-पुरुषों में श्रेष्ठ व निकृष्ट का कोई भेद नहीं किया गया है। 
 
जिसे कुछ लोग असमानता समझने की भूल करते हैं वास्तविक रूप में वह स्त्री-पुरुष की विशिष्टताएं हैं जो एक-दूसरे के समान नहीं हो सकती। स्त्री को जो विशिष्टताएं प्राप्त हैं वह पुरुषों में नहीं हो सकती जैसे गर्भधारण व संतान को जन्म एवं उसे पोषण देना, ठीक पुरुषों में कुछ विशिष्टताएं हैं जो स्त्री में नहीं हो सकती। हमारे सनातन धर्म में कई ऐसे कर्मकांड हैं जिनमें स्त्रियों को वरीयता प्राप्त है इसका जीवंत उदाहरण है- नवरात्रि में कन्या पूजन। हिन्दू देवी-देवताओं के नामों में भी अक्सर प्रथम नाम स्त्रीसूचक ही होता है जैसे राधाकृष्ण, लक्ष्मीनारायण, सीताराम आदि। इन बातों को श्रेष्ठ व निकृष्ट में बांटकर सामाजिक सौहार्द को विखंडित करना सर्वथा अनुचित है। अब बात करें लोक परम्पराओं व मान्यताओं की, तो हर देश, हर समाज; हर वर्ग एवं हर क्षेत्र की कुछ अपनी मान्यताएं होती हैं जिनसे सामाजिक ताना-बाना सुदृढ़ होता है। 
 
देश-काल-परिस्थिति के अनुसार समय-समय पर इन मान्यताओं व परम्पराओं की समीक्षा होकर इनमें परिवर्तन भी होता रहता है किंतु लोक-परम्पराओं व मान्यताओं में होने वाला यह परिवर्तन यदि जागरूकता के आधार पर होता है तब यह अधिक सुदृढ़ व ग्राह्य होता है। यदि यह परिवर्तन बलपूर्वक एक-दूसरे को नीचा दिखाकर जय-पराजय के उद्देश्य से किया जाता है तब यह सामाजिक विद्वेष का कारण बनता है। 
 
हमारे मतानुसार धर्म एक व्यवस्था है जो व्यवस्था बनाने में सहायक होता है वही धार्मिक है और जो व्यवस्था बिगाड़ता है वह अधार्मिक है। ईश्वर तो सभी प्राणियों को जन्म से ही प्राप्त है, साधना तो केवल उस जन्म से प्राप्त ईश्वर के अंश को अनुभूत करने मात्र की है। जब श्रद्धा से कहीं पर भी शीश झुका दिया जाता है तत्क्षण वहीं परमात्मा अवतरित हो जाता है और वह स्थल मंदिर बन जाता है। 
 
भक्त और भगवान के मध्य ना तो मंदिर की आवश्यकता है और ना ही किसी विशिष्ट कर्मकाण्ड या पूजा-पद्धति की। भक्त और भगवान के मध्य यदि कुछ अनिवार्य है तो वह है-प्रेम। अब इस प्रेम को श्रद्धा कहें, भक्ति कहें, भाव कहें, पूजा-पद्धति कहें, या फ़िर लोकमान्यता कहें, जो भी नाम देना चाहें कोई फ़र्क नहीं पड़ता। जब भक्त का भाव ईश्वरानुराग में लग जाता है तब उसे किसी बाहरी वस्तु की कोई आवश्यकता नहीं होती। लोक परंपराओं व मान्यताओं के मध्य खींचतान अहंकार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। अत: सामाजिक सौहार्द के लिए यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इन क्षेत्रों में हस्तक्षेप यदि आवश्यक हो तो वह जागरूकता के आधार पर हो, न कि बल के आधार पर। तभी हम हमारी आने वाली पीढ़ियों को एक स्वस्थ समाज दे पाएंगे।
 
 
-ज्योतिर्विद् पं. हेमंत रिछारिया
प्रारब्ध ज्योतिष परामर्श केंद्र 
संपर्क: [email protected]

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