तीन तलाक के विरुद्ध कानून बनना जरूरी

राष्ट्रपति के अभिभाषण में तीन तलाक और हलाला की स्पष्ट चर्चा का मतलब ही था कि सरकार इसके खिलाफ फिर से विधेयक लाने की तैयारी कर चुकी है। इसलिए विधिमंत्री रविशंकर प्रसाद ने 17वीं लोकसभा में जब अपने पहले विधेयक के रूप में 'मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक 2019' पेश किया तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ।
 
 
लेकिन पूरा दृश्य लगभग दिसंबर 2018 वाला ही था। विपक्ष की ओर से इसके विरोध में वही सारे तर्क दिए गए, जो पहले दिए जा चुके थे। किंतु इस बार सबसे पहले इसे लाए जाने के तरीके का ही विरोध किया गया। अंतत: लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने पेपर स्लिप से वोटिंग कराई और 74 के मुकाबले 186 मतों के समर्थन से विधेयक पेश हुआ।
 
इस स्थिति में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अगर विधेयक पेश करने में ही बाधा आई एवं मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस सहित कई दलों ने इसका तीखा विरोध किया तो फिर इसका भविष्य क्या होगा? क्या इसकी दशा फिर पूर्व की भांति होगी? सरकार के पिछले कार्यकाल में यह लोकसभा में पारित हो गया लेकिन राज्यसभा में लंबित रह गया। इस कारण इसे अध्यादेश के रूप में कायम रखा गया। प्रश्न यह भी है कि क्या इसके विरोध में जो तर्क दिए जा रहे हैं, क्या वे वाकई स्वीकार्य हैं? या केवल राजनीतिक नजरिए से विरोध के लिए विरोध किया जा रहा है?

 
एआईएमएम के सांसद असदुद्दीन ओवैसी का विरोध और तर्क जाना हुआ है। उनका विरोध मुख्यत: 5 पहलुओं पर है- 1. तलाक सिविल मामला है। इसे अपराध बनाना गलत है। 2. अगर उच्चतम न्यायालय ने फैसला दे दिया कि एकसाथ तीन तलाक से तलाक हो नहीं सकता तो फिर कानून क्यों? 3. पति को जेल में डाल देंगे तो महिला को गुजारा भत्ता कौन देगा? 4. यह मौलिक अधिकारों की धारा 14 और 15 का उल्लंघन है। 5. यह हिन्दू और मुसलमानों में भेद करता है। इस बार कांग्रेस के सांसद शशि थरुर ने लोकसभा में पार्टी का मत रखा।

 
थरूर ने कहा कि मैं तीन तलाक को खत्म करने का विरोध नहीं करता लेकिन इस विधेयक का विरोध कर रहा हूं। तीन तलाक को आपराधिक बनाने का विरोध करता हूं। मुस्लिम समुदाय ही क्यों, किसी भी समुदाय की महिला को अगर पति छोड़ता है तो उसे आपराधिक क्यों नहीं बनाया जाना चाहिए? सिर्फ मुस्लिम पतियों को सजा के दायरे में लाना गलत है। यह समुदाय के आधार पर भेदभाव है।
 
कांग्रेस ने पिछली बार लोकसभा में बहिगर्मन किया था। इस बार वह जिस तरह विरोध कर रही है, उसमें कहना कठिन है कि जिस दिन इसे पारित करने के लिए रखा जाएगा तो वह मतदान में भाग लेगी या बहिगर्मन करेगी?

 
इन सारे विरोधों को सच की कसौटी पर कसिए। तलाक अवश्य सिविल मामला है। इस्लाम में तीन तलाक के 2 प्रकार मान्य हैं- तलाक-ए-हसन और तलाक-ए-अहसन। एकसाथ तीन तलाक यानी तलाक-ए-बिद्दत मान्य नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने 23 अगस्त 2017 को 395 पृष्ठों के अपने ऐतिहासिक फैसले में इसके मजहबी, संवैधानिक और सामाजिक सारे पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए इसे गैर मजहबी एवं असंवैधानिक करार दिया था।
 
असदुद्दीन ओवैसी जिस ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का प्रतिनिधित्व करते हैं उसने तथा जमीयत-ए-उलेमा-ए हिन्द ने तलाक-ए-बिद्दत के पक्ष में जितने तर्क दिए, न्यायालय ने सबको खारिज कर दिया। इसने कई तर्क दिए थे, जैसे यह पर्सनल लॉ का हिस्सा है और इसलिए न्यायालय इसमें दखल नहीं दे सकता। तलाक के बाद उस पत्नी के साथ रहना पाप है और सेक्यूलर न्यायालय इस पाप के लिए मजबूर नहीं कर सकता।

 
पर्सनल लॉ को मौलिक अधिकारों की कसौटी पर नहीं परखा जा सकता। यह आस्था का विषय है, संवैधानिक नैतिकता और बराबरी का सिद्धांत इस पर लागू नहीं होगा। पर्सनल लॉ बोर्ड ने तो यह तर्क भी दिया कि इसे इसलिए जारी रखा जाए ताकि कोई पति, पत्नी से गुस्सा होकर उसकी हत्या न कर दे। इसने महिलाओं की कम समझ होने का हास्यास्पद तर्क भी दिया। न्यायालय ने इन सारी दलीलों को ठुकरा दिया तो ये विरोध के लिए अलग कुतर्क ले आए हैं। न्यायालय ने साफ कर दिया कि इस्लाम में इसे कहीं मान्यता ही नहीं है।
 
 
कहने का तात्पर्य यह कि अगर यह इस्लाम में मान्य नहीं है, गैरकानूनी भी है तो फिर यह सिविल मामला नहीं हो सकता। कोई व्यक्ति अपनी सनक, अहं या वासना में एक महिला को क्षणभर में 'तलाक-तलाक-तलाक' कहकर उसे पत्नी के अधिकारों से वंचित करता है तो यह स्पष्ट तौर पर आपराधिक कृत्य है। एक आपराधिक कृत्य के खिलाफ अपराध कानून ही बनाया जा सकता है। हां, अगर इस्लाम में मान्य तरीके से तीन तलाक होता है तो वह सिविल है और उसमें यह कानून लागू नहीं हो सकता।

 
सभी समुदायों को शामिल करने का तर्क हास्यास्पद है। तीन तलाक या तलाक-ए-बिद्दत केवल इस्लाम में है तो इसमें दूसरे समुदाय को कैसे शामिल किया जा सकता है? हिन्दुओं में तलाक लेने के लिए पूरी कानूनी प्रक्रिया है जिसका बिना पालन किए आप पत्नी को उसके अधिकारों से बेदखल करते हैं तो सजा के भागीदार हैं।
 
उच्चतम न्यायालय ने एकसाथ तीन तलाक को अमान्य करार दिया लेकिन उसके बाद भी ऐसा हो रहा है तो क्या किया जाए? परित्यक्त पत्नियां थाने जाती हैं लेकिन पुलिस के पास ऐसा कानून नहीं जिसके तहत वह मुकदमा दर्ज कर कार्रवाई करे।
 
जैसा कि लोकसभा में बताया गया कि 2017 से तीन तलाक के 543 मामले, उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद 239 मामले, अध्यादेश के बाद भी 31 मामले सामने आए। जिस समय उच्चतम न्यायालय का फैसला आया, उस समय सरकार का मत भी यही था कि घरेलू हिंसा कानून से काम चल जाएगा। किंतु अनुभव आया कि यह पर्याप्त नहीं है इसलिए कानून अपरिहार्य है।
 
मौलिक अधिकारों की धारा 14 कानून के समक्ष समानता तथा धारा 15 लिंग, मजहब, नस्ल, जाति आदि के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है। सच कहा जाए तो यह कानून महिलाओं को न्याय दिलाकर इन धाराओं का पालन करने वाला है।
 
यह भी ध्यान रखने की बात है कि विपक्ष के विरोध एवं सुझावों के अनुरूप मूल विधेयक में कुछ बदलाव किए गए। वर्तमान विधेयक के अनुसार प्राथमिकी तभी स्वीकार्य की जाएगी, जब पत्नी या उसके नजदीकी खून वाले रिश्तेदार दर्ज कराएंगे।
 
विपक्ष और कई संगठनों की चिंता थी कि प्राथमिकी का कोई दुरुपयोग कर सकता है। दूसरे, पति और पत्नी के बीच पहल होती है तो मजिस्ट्रेट समझौता करा सकते हैं। तीसरे, तत्काल तीन तलाक गैरजमानती अपराध बना रहेगा लेकिन अब इसमें ऐसी व्यवस्था कर दी गई है कि मजिस्ट्रेट पीड़िता पत्नी का पक्ष सुनने के बाद वाजिब वजहों के आधार पर जमानत दे सकते हैं।

 
विधेयक के अनुसार मुकदमे का फैसला होने तक बच्चा, मां के संरक्षण में ही रहेगा। आरोपी को उसका भी गुजारा देना होगा। यह तर्क विचित्र है कि अगर पति को जेल हो गया तो गुजारा भत्ता कौन देगा? मूल प्रश्न है कि किसी निर्दोष, निरपराध पत्नी के खिलाफ इस्लाम विरोधी अमानवीय कृत्य और अपराध करने वाले व्यक्ति को सजा क्यों नहीं होनी चाहिए?
 
इस्लाम में निकाह बिलकुल पारदर्शी व्यवस्था है जिसमें 2 वयस्कों की सहमति से उपस्थित लोगों और काजी के सामने अनुबंध को साकार किया जाता है। इस तरह के सामाजिक, धार्मिक और विधिक अनुबंध को बिना किसी रस्म के अंत करने का अपराध करने वालों को तो कड़ी से कड़ी सजा होनी चाहिए। इसी से भय पैदा होगा एवं दूसरे सनकी लोग सजा के भय से ऐसा करने से परहेज करेंगे। कड़ा कानून ऐसे सामाजिक-धार्मिक अपराधों में भय निरोधक की भूमिका निभाता है।
 
 
अब प्रश्न है इस विधेयक के भविष्य का। लोकसभा में तो कोई समस्या है ही नहीं। राज्यसभा में इस समय 236 सदस्य हैं। बहुमत के लिए 119 सदस्यों का समर्थन चाहिए। इस समय राजग की संख्या इस प्रकार है- भाजपा 75, अन्नाद्रमुक 13, जदयू 6, अकाली दल-शिवसेना-नामित 3-3, आरपीआई-एजीपी 1-1। इसमें 2 निर्दलीय अमर सिंह और सुभाष चंद्रा को मिलाकर 107 हो जाती है।
 
5 सदस्यों वाले बीजद ने सरकार के साथ रचनात्मक सहयोग की घोषणा की है। 2 सदस्यों वाले वाईएसआर कांग्रेस का समर्थन भी मिल जाएगा। 6 सदस्यों वाले टीआरएस का रुख साफ नहीं है लेकिन सरकार बात कर रही है। 1-1 सदस्यों वाले एनपीएफ और बीपीएफ को साथ लाने में समस्या नहीं है। इस विधेयक के पारित होने के बीच ही होने वाले राज्यसभा चुनावों में भाजपा को 3 सीटें मिलना तय है। जद (यू) सहित विरोध करने वाले कुछ दूसरे दलों का बहिर्गमन कराकर सरकार विधेयक को पारित करा सकती है।

 
तो इस बार एकसाथ तीन तलाक पर उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले को मूर्तरूप देने वाले विधेयक के कानून में परिणत होने की संभावना पहले से ज्यादा प्रबल है। अगर ऐसा हुआ, जिसकी संभावना है तो यह कानून के द्वारा महिलाओं को न्याय दिलाने वाले एक सामाजिक क्रांति का आधार बन जाएगा।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
 

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