गांवों में आज भी देखने को मिलती है देवउठनी एकादशी मनाने की विचित्र परंपराएं

आज पूरी दुनिया में तरक्‍की के नाम पर लोग कम्‍प्‍यूटर और मोबाइल को अपनी अंगुलियों में नचाते हुए दुनिया को अपनी मुटठी में मानते है जबकि वे भारतीय संस्‍कार, परंपराओं, धर्म और रिश्‍तों से कोसों दूर हो गए है। एक समय था जब गांवों में बसने वाले हमारे पूर्वज सहज, सरल और आत्‍मीयता को अपनी जमा पूंजी मानते थे। आज समय बदला है तो सोच भी बदली है लेकिन जिन धार्मिक त्‍योहारों को यथोचित मनाने और पूजा पाठ करने की परंपरा की बात की जाए तो आज भी इतनी तरक्‍की के बाद लोग सदियों पुरानी इन्‍हीं मान्‍यताओं में जीने और परिवार सहित उसका आनंद उठाने को नहीं भुला सके है। 
 
एकादशी का व्रत और उसके माहात्म्य से सभी बखूबी परिचित है जिनमें चिरकाल से भारतीय परंपरा में देव प्रबोधिनी एकादशी को मनाने की विचित्र परंपराएं देखने को मिलती है। गांवों में हर घर देव प्रबोधिनी एकादशी मनाने का यह उत्‍सव अब शहरी रहन-सहन में भी रच बस गया है।

उत्‍तर भारत, पश्चिम भारत सहित मध्‍य भारत के गांवों, शहरों में इस देव प्रबोधिनी ग्‍यारस की विशेष तैयारी होती है और प्रतीक में लोग भगवान के देवशयनी ग्‍यारस से देवउठनी ग्‍यारस तक क्षीरसागर में शेषशैया पर चातुर्मास में नींद से जागने की खुशी मनाते है और इस देवउठनी ग्‍यारस की सुबह से ही हर घर के आंगन, देव स्‍थान के चबूतरे, चौपालों को गाय के गोबर से लीपने पोतने के बाद सफेद, गेरूए रंग से चौक बनाने तथा रंग के लाइननुमा रोये बनाने सहित आकर्षक तरीके से चौक बनाया जाता है। घर के उस हिस्‍से में जिसमें लोग परिवार सहित पूजा करते है, उस पूजा घर में चौकी को विशेष रूप से सजाया जाकर पूजा की तैयारी की जाती है।
 
शाम से ही हर घरों में गृहणियां पूजा के लिए पकवान बनाना शुरू करती है। घरों में आटे को गुड़ के पानी में गूंथकर छोटे-छोटे गोल दीये बनाकर उन्‍हें कड़ाही में पकाकर निकाला जाता है और पूजा की पूरी सामग्री को घर के पूजा घर में रखा जाता है। पूजा घर में दीप प्रज्ज्‍वलित कर उसके आगे जले हुए गाय के ओपले जिन्‍हें कंडे भी कहते है, रखकर उस पर घर में पूज्‍य कुल देवता और देवी के नाम से धूप छोड़ी जाती है। फिर गेहूं के आटे को मीठा गूंथ कर पकाए दीपकों पर रूई की बाती रखकर उन्‍हें एक-एक कर प्रज्ज्‍वलित किया जाता है।

पूजा का महत्‍वपूर्ण अंश होता है कि इन दीपकों से जिस घर में भी पूजा की जा रही है उस घर के व्‍यक्ति द्वारा हर दीपक को प्रज्ज्‍वलित करते समय अपने मूल खेड़े को याद किया जाता है। खेड़े से तात्‍पर्य व्‍यक्ति के पूर्वज सबसे पहले जहां निवास करते है, को इंगित किया जाता है। खेड़े के बाद अपने-अपने उन पूर्वजों को जो वहां निवास करते थे तथा उस खेड़े के बाद वे या उनकी पीढ़ी आगे कहां-कहां बसती गई, उन स्‍थानों तथा उन स्‍थानों पर बसने वाले पूर्वजों को नाम, स्‍थान सहित याद करके उनके नाम से दीप जलाने की परंपरा है और यह अंतिम दीपक परिवार के उस सदस्‍य के लिए होता है जो सबको छोड़कर परलोकगमन को चला गया है।

देव जागरण की इस परंपरा में पूर्वजों को याद करने के साथ-साथ जहां जिसे जिस भाव से पूजा गया, उसे भी याद किया जाता है और यह सारा रिकार्ड हर उस घर में संजोकर रखा जाता है जो देवउठनी ग्‍यारस पर पूजा करता है। यह सारा रिकार्ड भाट कहे जाने वाले महानुभावों की पोथियों से लिया जाता है जो प्रत्येक समाज व गोत्र में सदियों से उसका वाचन करने आते है और जिस घर में जो भी खाना परोसा जाता है, दक्षिणा दी जाती है, वह भी पोथी में अंकित होती है जो आने वाली पीढ़ी के सामने रखी जाती है। 
 
घर के पूजा घर में दीपों का अंबार लग जाता है, आधे अधूरे दीपक जले होते है, कुछ बुझ जाते है, कुछ जलते रहते है, तब पूजा को पूर्णाहूति देने सभी दीपों से जली, अधजली बातियां एक दीपक में एकत्र की जाती है और उसमें बातियों के बूझने पर जलाया जाता है, जिन्‍हें परिवार का एक सदस्‍य घर से बाहर लेकर जाता है तब उसके हाथ में दूसरा खाली दीया होता है।

घर में पूजा संपन्‍न करा रहा परिवार का मुखिया तब घर के बाहर दीपक ले जाने वालेे सदस्‍य को आवाज लगाकर कहता है कि चुगलखोर का मुंह बंद कर दो और वह अग्नि पर पानी फेरता है वही जलते हुए दीपकों को दूसरे दीपक से बुझाकर परिवार का सदस्‍य उसे घर की छत पर फेंककर घर में मुखिया को बताता है कि मैंने चुगलखोर का मुंह बंद कर दिया और वह बिना पीछे देखे पूजा घर में आता है। परलोकवासी हुए अपने-अपने पूर्वजों के नाम से दीपक रखकर उन्‍हें स्‍मरण करने का यह क्रम हर घर में देव प्रबोधिनी एकादशी की पूजा के रूप में पारंपरिक आयोजन संपन्‍न होता है जिसमें देव प्रबोधिनी एकादशी पर देव जागरण की भव्‍य तैयारी इनकी प्रतीक्षा कर रही होती है जिसके लिए वे यह पूजा संपन्‍न कर अपने-अपने घरों के आंगन में पहुंच जाते है।
 
आंगन में जहां घर की कन्‍याओं ने चौक पूरे है वहां एक चौकी पर नया वस्‍त्र बिछाकर भगवान को स्‍थान दिया जाता है, जिसमें घर के पूजा घर में रखी लड्‍डू गोपाल, राधाकृष्‍ण, शिवपार्वती, लक्ष्‍मी-गणेश आदि जो भी प्रतिमा है को सिंहासन के साथ या पृथक से विराजित कर उनके समक्ष घर में बने सभी पकवान रखे जाते है तथा फलों में बेर, सीताफल, अमरूद, भटे, चने की साग, सिंघाड़े, गेंदा के फूल, बताशे, चावल की लाई, आदि सजा कर रखी जाती है। विशेष आकर्षण का केंद्र होता है भगवान के लिए बनाया गया मंडप, यह मंडप गन्‍नों का होता है, परिवार सहित सभी लोग यहां भगवान से यथायोग्‍य प्रार्थना कर पूजा-अर्चना करते है तथा पूजा संपन्‍न करने के पूर्व मंडप की प्रदक्षिणा की जाती है। प्रदक्षिणा करते समय लोकगीतों में लोग गाते जाते है-
 
उठो देवा, बैठो देवा, पैजनिया चटकावो देवा।
 
आप उठोगे कार्तिक में, हां कार्तिक में
 
हम जाएंगे खेतों में, हां खेतों में
 
गन्‍ना हम खाएंगे, सीताफल हम खाएंगे
 
चना की साग और बेर खाने बेरवन जाएंगे
 
सिंघाड़े हम खाएंगे, खेतों में भटे लेने जाएंगे
 
उठो देवा, बैठो देवा, पैजनिया चटकावो देवा।
 
उक्‍त लोकगीत गाते हुए भगवान के मंडप की प्रदक्षिणा की जाती है और हाथों में चावल की लाइयां, बताशे, फूल आदि एक-एक प्रदक्षिणा के पूर्ण होते ही भगवान पर अर्पित करते जाते हैं और जैसे ही पांच परिक्रमा पूर्ण होती है वैसे ही गन्‍ने लूटने की परंपरा के तहत भगवान का वह मंडप लूटकर लोग ले जाते है और उसी गन्‍ने को प्रसाद रूप में परिवार के साथ खाकर देवउठनी ग्‍यारस पर्व मनाया जाता है।

यह क्रम कई सदियों से देश के अनेक हिस्‍सों में आज भी देखने को मिल जाता है जिसके आनंद को जीने का रस स्‍वादन जो चखता है वह आधुनिकता की सारी चकिया चौंध को भूलकर इसमें रच बस जाता है।

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