जानिए शिर्डी के साईं बाबा के बारे में 12 तथ्य...

* साईं बाबा के बारे में वह 12 तथ्य जब वे शिर्डी में नहीं रहते थे... 
 
- जैसे पर्वतों में हिमालय श्रेष्ठ है वैसे ही संतों में श्रेष्ठ हैं सांई। सांई नाम के आगे 'थे' लगाना उचित नहीं, क्योंकि सांई आज भी हमारे बीच हैं। बस, एक बार उनकी शरण में होना जरूरी है, तब वे आपके आसपास होंगे। यह अनुभूत सत्य है। आजो जानते हैं सांई बाबा के बारे में 12 ऐसा तथ्‍य जो आप जानना चाहते हैं।
 
 
1. साईं के जीवन चरित्र पर पुस्तक : सांईंबाबा के बारे में अधिकांश जानकारी श्रीगोविंदराव रघुनाथ दाभोलकर द्वारा लिखित ‘श्री सांईं सच्चरित्र’ से मिलती है। मराठी में लिखित इस मूल ग्रंथ का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। यह सांईं सच्चरित्र सांईंबाबा के जिंदा रहते ही 1910 से शुरू की जाकर 1918 में उनके समाधिस्थ होने तक इसका लेखन चला।
 
2. साईं चाहते थे श्रीकृष्ण मंदिर बनवाना : आज शिर्डी में जहां सांईं बाबा का भव्य मंदिर बना हुआ है, कभी वहां श्रीकृष्‍ण का मंदिर बनाने की योजना थी। लेकिन तात्या की जगह बाबा ने अचानक देह त्याग दी। अचानक देह त्याग के बाद भक्तों को समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करें। तब भक्तों ने निर्णय लेकर बूटी साहिब द्वारा बनवाया गया वाड़ा (भवन) में स्थित मूर्ति स्थापना के लिए स्थापित जगह जगह पर बाबा को समाधि दे दी। बाद में भक्तों ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया कि इस जगह पर श्रीकृष्ण की मूर्ति स्थापना करने की योजना थी और इसकी आज्ञा स्वयं बाबा ने दी थी। सांईं के समाधि स्थल पर सांईं प्रतिमा का अनावरण बाबा की 36वीं पुण्यतिथि पर 7 अक्टूबर 1954 को किया गया।
 
 
3. साई का जन्म स्थान : महाराष्ट्र के पाथरी (पातरी) गांव में साईंबाबा का जन्म 27 सितंबर 1830 को हुआ था। साई के जन्म स्थान पाथरी (पातरी) पर एक मंदिर बना है। मंदिर के अंदर साई की आकर्षक मूर्ति रखी हुई है। यह बाबा का निवास स्थान है, जहां पुरानी वस्तुएं जैसे बर्तन, घट्टी और देवी-देवताओं की मूर्तियां रखी हुई हैं।
 
 
4. साईं के माता पिता : शशिकांत शांताराम गडकरी की किताब 'सद्‍गुरु सांई दर्शन' (एक बैरागी की स्मरण गाथा) अनुसार  साई के पिता का नाम गोविंद भाऊ और माता का नाम देवकी अम्मा है जो पाथरी में ही रहते थे। कुछ लोग उनके पिता का नाम गंगाभाऊ बताते हैं और माता का नाम देवगिरी अम्मा। कुछ हिन्दू परिवारों में जन्म के समय तीन नाम रखे जाते थे इसीलिए बीड़ इलाके में उनके माता-पिता को भगवंत राव और अनुसूया अम्मा भी कहा जाता है। वे यजुर्वेदी ब्राह्मण होकर कश्यप गोत्र के थे। कुछ इन्हें भारद्वाज गोत्र का मानते हैं। साई के चले जाने और पिता के देहांत के बाद उनके परिवार के लोग हैदराबाद चले गए थे और फिर उनका कोई अता-पता नहीं चला।
 
 
5. साईं हिन्दू या मुस्लिम : दरअसल यह विवाद व्यर्थ है कोई संत हिन्दू या मुस्लिम नहीं होता वह सिर्फ इंसानीयत के रास्ते पर होता है। साईं बाबा सभी धर्मों को मानते थे। उनकी नजर में इंसान सिर्फ इंसान था। उनका पहनावा मुस्लिम फकीरों जैसा था लेकिन वे नाथपंथियों की तरह धूनी रमाते और वैष्णवों की तरह सिर पर तिलक लगाते थे। 
 
6. साई बाबा का असली नाम : शशिकांत शांताराम गडकरी की किताब 'सद्‍गुरु सांई दर्शन' (एक बैरागी की स्मरण गाथा) अनुसार सांई के पिता का नाम गंगाभाऊ और माता का नाम देवकीगिरी था। दे‍वकिगिरी के पांच पुत्र थे। पहला पुत्र रघुपत भुसारी, दूसरा दादा भूसारी, तीसरा हरिबाबू भुसारी, चौथा अम्बादास भुसारी और पांचवें बालवंत भुसारी थे। सांई बाबा गंगाभाऊ और देवकी के तीसरे नंबर के पुत्र थे। उनका नाम था हरिबाबू भूसारी था।
 
 
7. साईं की शिक्षा : सांई बाबा की पढ़ाई की शुरुआत घर से ही हुई। उनके पिता वेदपाठी ब्राह्मण थे। उनके सान्निध्य में हरिबाबू (सांई) ने बहुत तेजी से वेद-पुराण पढ़े और वे कम उम्र में ही पढ़ने-लिखने लगे। 7-8 वर्ष की उम्र में सांई को पाथरी के गुरुकुल में उनके पिता ने भर्ती किया ताकि यह कर्मकांड सीख ले और कुछ गुजर-बसर हो। यहां ब्राह्मणों को वेद- पुराण आदि पाठ पढ़ाया जाता था। जब सांई 7-8 वर्ष के थे तो अपने गुरुकुल के गुरु से शास्त्रार्थ करते थे। गुरुकुल में सांई को वेदों की बातें पसंद आईं, लेकिन वे पुराणों से सहमत नहीं थे और वे अपने गुरु से इस बारे में बहस करते थे। अंत में हारकर गुरु ने कहा- एक दिन तुम गुरुओं के भी गुरु बनोगे। सांई ने वह गुरुकुल छोड़ दिया। गुरुकुल छोड़कर वे हनुमान मंदिर में ही अपना समय व्यतीत करने लगे, जहां वे हनुमान पूजा-अर्चना करते और सत्संगियों के साथ रहते। उन्होंने 8 वर्ष की उम्र में ही संस्कृत बोलना और पढ़ना सीख लिया था। उन्होंने चारों वेद और 18 पुराणों का अध्ययन कर लिया था।
 
 
8. चांद मिया नहीं थे सांई : जैसा की साईं बाबा के विरोधी मानते हैं कि उनका असली नाम चांद मिया था जो कि गलत है। दरअसल, साईं बाबा के घर के पास ही मुस्लिम परिवार रहता था। उनका नाम चांद मिया था और उनकी पत्नी चांद बी थी। उन्हें कोई संतान नहीं थी। हरिबाबू (साई) उनके ही घर में अपना ज्यादा समय व्यतीत करते थे। चांद बी हरिबाबू को पुत्रवत ही मानती थीं।
 
 
9. पिता की मौत के बदल गया साई का जीवन : साई के माता-पिता जैसे-तैसे भिक्षा मांगकर, मजदूरी करके पांचों बच्चों का पेट पाल रहे थे। सांई के पिता जिस इलाके में रहते थे वह हैदराबाद निजामशाही का एक भाग था। उनकी राजशाही में मुस्लिमों का एक हथियारबंद संगठन था जिसे रजाकार कहा जाता था। रजाकारों का जुल्म बढ़ा तो उनके पिता ने वह स्थान छोड़ने का मन बनाया। एक बार गंगाभाऊ अपने परिवार के साथ पंढरपुर गए। भीमा नदी पंढरपुर के पास से बहती है। गंगाभाऊ का परिवार नाव में बैठकर नदी पार कर रहा था तभी दुर्भाग्य से नाव पलटी और परिवार डूबने लगा। किनारे खड़े एक सूफी फकीर और तीर्थयात्रियों ने जैसे-तैसे सभी को बचाया लेकिन वे गंगाभाऊ को नहीं बचा सके।
 
 
जिस फकीर के प्रयास से यह परिवार बच गया उसका नाम था वली फकीर। उसने ही सभी अंतिम कार्य संपन्न कराए और देवगिरी सहित पांचों लड़कों के भोजन आदि की व्यवस्था की। मुस्लिम फकीर के साथ देवगिरी के रहने के कारण लोग उन्हें बदनाम करने लगे तो वली फकीर देवगिरी को समझा-बुझाकर हरिबाबू को अपने साथ ले गए। देवगिरी के दोनों बड़े पुत्र रोजी-रोटी की तलाश में हैदराबाद चले गए और खुद देवगिरी अपने दो पुत्रों के साथ अपनी माता के गांव चली गईं। इस तरह पिता की मौत के बाद पूरा परिवार बिखर गया।
 
 
10. फकीरों की के बीच बाबा : 8 वर्ष की उम्र में पिता की मृत्यु के बाद बाबा को सूफी वली फकीर ने पाला, जो उन्हें एक दिन ख्वाजा शमशुद्दीन गाजी की दरगाह पर इस्लामाबाद ले गए। यहां वे कुछ दिन रहे, जहां एक सूफी फकीर आए जिनका नाम था रोशनशाह फकीर। रोशनशाह हरिबाबू (सांई) को लेकर अजमेर आ गए। अजमेर में सांई बाबा ने इस्लाम के अलावा कई देशी दवाओं की जानकारी हासिल की। कुरआन को उन्होंने मुखाग्र कर लिया था। रोशनशाह एक बार धार्मिक प्रचार के लिए इलाहाबाद गए, जहां हृदयाघात से उनका निधन हो गए। रोशनशाह के जाने के बार हरिबाबू (सांई) एक बार फिर अनाथ हो गए। जब इलाहाबाद में थे बाबा, तब संतों का सम्मेलन चल रहा था जिसमें नाथ संप्रदाय के संत भी थे। बाबा का झुकाव नाथ संप्रदाय और उनके रीति-रिवाजों की ओर हुआ। वे नाथ संप्रदाय के प्रमुख से मिले और उनके साथ ही संत समागम और सत्संग किया। अयोध्या पहुंचने पर नाथ पंथ के संत ने उन्हें सरयू में स्नान कराया और उनको एक चिमटा (सटाका) भेंट किया। यह नाथ संप्रदाय का हर योगी अपने पास रखता है। फिर नाथ संत प्रमुख ने उनके कपाल पर चंदन का तिलक लागाकर कहा कि वे हर समय इसका धारण करके रखें। जीवनपर्यंत बाबा ने तिलक धारण करके रखा लेकिन सटाका उन्होंने हाजी बाबा को भेंट कर दिया था। अयोध्या यात्रा के बाद नाथपंथी तो अपने डेरे चले गए लेकिन हरिबाबू फिर अकेले रह गए।
 
 
11. बाबा भी कई जगह घूमते हुए पुन: पाथरी पहुंचे अपने जन्म स्थान पर। वहां पहुंचने के बाद पता चला कि वहां कोई नहीं है। अंत में वे पड़ोस में रहने वाली चांद बी से मिले। चांद बी ने उनको सारा किस्सा बताया। चांद मियां को मरे बहुत दिन हो गए थे। हरिबाबू को देखकर चांद बी प्रसन्न हुईं। चांद बी हरिबाबू (बाबा) के रहने-खाने की व्यवस्था के लिए उन्हें नजदीक के गांव सेलू (सेल्यु) के वैंकुशा आश्रम में ले गई। उस वक्त बाबा की उम्र 15 वर्ष रही होगी। साईं बाबा से कुछ सवाल-जवाब करने के बाद वैकुंशा उनके उत्तरों से संतुष्ट हो गए और उन्होंने अपने आश्रम में उनको प्रवेश दिया। वे बाबा के उत्तरों से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने हरिबाबू को गले लगाकर अपना शिष्य बनाया। एक दिन वैकुंशा ने अपनी मृत्यु के पूर्व बाबा को अपनी सारी दिव्य शक्तियां दे दीं। 
 
 
एक दिन वैकुंश बाबा को एक जंगल में ले गए, जहां उन्होंने पंचाग्नि तपस्या की। वहां से लौटते वक्त कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी लोग हरिबाबू (सांई बाबा) पर ईंट-पत्थर फेंकने लगे। बाबा को बचाने के लिए वैंकुशा सामने आ गए तो उनके सिर पर एक ईंट लगी। वैंकुशा के सिर से खून निकलने लगा। बाबा ने तुरंत ही कपड़े से उस खून को साफ किया। वैंकुशा ने वही कपड़ा बाबा के सिर पर तीन लपेटे लेकर बांध दिया और कहा कि ये तीन लपेटे संसार से मुक्त होने और ज्ञान व सुरक्षा के हैं। जिस ईंट से चोट लगी थी बाबा ने उसे उठाकर अपनी झोली में रख लिया। इसके बाद बाबा ने जीवनभर इस ईंट को ही अपना सिरहाना बनाए रखा।
 
 
आश्रम पहुंचने के बाद दोनों ने स्नान किया और फिर वैंकुशा ने बताया कि 80 वर्ष पूर्व वे स्वामी समर्थ रामदास की चरण पादुका के दर्शन करने के लिए सज्जनगढ़ गए थे, वापसी में वे शिर्डी में रुके थे। उन्होंने वहां एक मस्जिद के पास नीम के पेड़ के नीचे ध्यान किया और उसी वक्त गुरु रामदास के दर्शन हुए और उन्होंने कहा कि तुम्हारे शिष्यों में से ही कोई एक यहां रहेगा और उसके कारण यह स्थान तीर्थ क्षेत्र बनेगा। वैकुंशा ने आगे कहा कि वहीं मैंने रामदास की स्मृति में एक दीपक जलाया है, जो नीम के पेड़ के पास नीचे एक शिला की आड़ में रखा है।
 
 
इस वार्तालाप के बाद वैकुंशा ने बाबा को तीन बार सिद्ध किया हुआ दूध पिलाया। इस दूध को पीने के बाद बाबा को चमत्कारिक रूप से अष्टसिद्धि शक्ति प्राप्त हुई और वे एक दिव्य पुरुष बन गए। उन्हें परमहंस होने की अनुभूति हुई। इसके बाद वैकुंशा ने देह छोड़ दी। वैंकुशा के जाने के बाद सांई बाबा का आश्रम में रुकने का कोई महत्व नहीं रहा। इस आश्रम में बाबा करीब 8 वर्ष रहे यानी उस वक्त उनकी उम्र 22-23 वर्ष रही होगी।
 
 
12. शिर्डी में साईं : वैंकुशा की आज्ञा से सांई बाबा घूमते-फिरते शिर्डी पहुंचे। तब शिर्डी गांव में कुल 450 परिवारों के घर होंगे। शिर्डी के आसपास घने जंगल थे। वहां बाबा ने सबसे पहले खंडोबा मंदिर के दर्शन किए फिर वे वैकुंशा के बताए उस नीम के पेड़ के पास पहुंच गए। नीम के पेड़ के नीचे उसके आसपास एक चबूतरा बना था, जहां बैठकर बाबा ने कुछ देर ध्यान किया और फिर वे गांव में भिक्षा मांगने के लिए निकल पड़े।
 
 
ग्रामीणों ने उन्हें भिक्षा में काफी अन्न दिया। उसे ग्रहण कर वे बाकी बचा भोजन पीछे- पीछे चल रहे श्वान को खिलाते गए और पुन: नीम के झाड़ के पास आ बैठे। उनका प्रतिदिन का यह नियम बन गया था। नीम के झाड़ के नीचे ही सोना-उठना, बैठना-ध्यान करना और फिर गांव में भिक्षा मांगने के लिए निकल पड़ना।
 
कुछ लोगों ने उत्सुकतावश पूछा कि आप यहां नीम के वृक्ष के नीचे ही क्यों रहते हैं? इस पर बाबा ने कहा कि यहां मेरे गुरु ने ध्यान किया था इसलिए मैं यहीं विश्राम करता हूं। कुछ लोगों ने उनकी इस बात का उपहास उड़ाया, तब बाबा ने कहा कि यदि उन्हें शक है तो वे इस स्थान पर खुदाई करें। ग्रामीणों ने उस स्थान पर खुदाई की, जहां उन्हें एक शिला नजर आई। 
 
शिला को हटाते ही एक द्वार दिखा, जहां चार दीप जल रहे थे। उन दरवाजों का मार्ग एक गुफा में जाता था, जहां गौमुखी आकार की इमारत, लकड़ी के तख्ते, मालाएं आदि दिखाई पड़े। इस घटना के बाद लोगों में बाबा के प्रति श्रद्धा जाग्रत हो गई। बाबा ने उनके झोले से वही ईंट निकाली और उस दीपक के पास रख दी और ग्रामीणों से कहा कि इसे पुन: बंद कर दें।
 
म्हालसापति, श्यामा तथा शिर्डी के अन्य भक्त इस स्थान को बाबा के गुरु का समाधि-स्थान मानकर सदैव नमन किया करते थे। प्रमुख ग्रामीणों में म्हालसापति और श्यामा बाबा के अनुयायी बन गए। वायजा माई नामक एक महिला थी, जो बाबा को प्रतिदिन भिक्षा देती थी। यदि बाबा किसी कारणवश भिक्षा लेने नहीं आते तो वे खुद नीम के वृक्ष के नीचे उनको भिक्षा देने पहुंच जाती थी। गांव के हिन्दू और मुसलमानों के बीच इसको लेकर चर्चा होती रहती थी कि बाबा हिन्दू हैं या मुसलमान? तीन महीने बाद बाबा किसी को भी बताए बगैर शिर्डी छोड़कर चले गए। लोगों ने उन्हें बहुत ढूंढा लेकिन वे नहीं मिले।

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