कुंभ में विभिन्न संस्कृतियां अनेकता में एकता को करती हैं परिभाषित

संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) द्वारा 'मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर' मान्यता प्राप्त कुंभ मेले में जहां बाबाओं की अलग-अलग वेशभूषा लोगों को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर रही है वहीं नागा संन्यासियों की मढ़ियों पर 'सुट्टा' के लिए बैठे देशी-विदेशी लोगों का मिलाप  अनेकता में एकता के साथ 'विश्व बंधुत्व' को चरितार्थ कर रहा है।
 
कोई बाबा यहां अपनी अध्यात्म साधना को बल दे रहा है, कोई 'सुट्टा' से दम ले रहा है तो कोई शरीर पर भस्म लपेटे और कोई कांटों पर लेटकर लोगों का आश्चर्यचकित कर आनंद ले रहा है। कोई अपनी सनातनी परंपरा का निर्वाह कर रहा है, तो कोई अपनी अन्य संस्कृति को लोगों में परोस रहा है। सभी को परमानंद की अनुभूति हो रही है।
 
यहां विभिन्न संस्कृतियां एक ही प्लेटफॉर्म पर संगम करती हैं। वह प्लेटफॉर्म पतित पावनी गंगा, श्यामल यमुना और अदृश्य सरस्वती की विस्तीर्ण त्रिवेणी की रेती है। इस प्लेटफॉर्म की विशेषता है कि भले ही लोग एक-दूसरे की भाषा नहीं समझे, पर उनकी भावनाओं को आसानी से समझते हैं। कई बार त्रिवेणी मार्ग पर ऐसे रोमांचकारी दृश्य परिलक्षित होते हैं, जब कोई विदेशी किसी साधारण व्यक्ति से कोई जानकारी मांगता है। वह कुछ समझ नहीं पाता, पर अपने भाव को उसके भाव से जोड़कर हाथ के इशारे से संगम नोज की तरफ इशारा करता है। विदेशी धन्य होकर 'थैंक्यू' कह आगे बढ़ जाता है। यह व्यावहारिकता की संस्कृति को प्रकट करता है।
 
मेले में अलग-अलग वेशभूषा वाले बाबाओं की कमी नहीं है। दुनिया के कोने-कोने से पतित पावनी गंगा, श्यामल यमुना और अदृश्य सरस्वती के त्रिवेणी में आस्था की डुबकी लगाने पहुंचे श्रद्धालुओं में किसी बाबा का 70 किलो के रुद्राक्ष की टोपी और उसी का वस्त्र रूप में धारण, किसी के गले में मुंड माला तो किसी की बड़ी जटाओं का आकर्षण अपनी ओर आकर्षित कर रहा है।
 
तीर्थराज प्रयाग की विस्तीर्ण रेती पर बसे विहंगम कुंभ में जहां विभिन्न वेशभूषा वाले बाबा लोगों के आकर्षण का केंद्र बन रहे हैं, वहीं छोटे-छोटे बच्चे भी उनसे पीछे नहीं हैं। संगम का किनारा हो या मेले का वृहद क्षेत्र, अलग-अलग देवी-देवताओं का मुखौटा लगाए बच्चे नजर आते हैं। किसी ने मृगक्षाला धारण किया है, तो कोई काली का मुखौटा पहन, हाथ में खड्ग और खप्पर लेकर लोगों को आकर्षित कर रहा है।
 
मेले में कुछ बाबा ऐसे मिलेंगे, जो कुटिया में मोटी लकड़ी लगाकर धूनी रमाए बैठे हैं। उनके अगल-बगल कुछ विदेशी पर्यटक और अन्य लोगों का घेरा बैठा रहता है। यहां लगातार 'सुट्टा' चिलम का दौर चलता रहता है। एक छोटी-सी मिट्टी की चिलम होती है जिसमें गांजा भरा होता है। एक किनारे से शुरू होता है सुट्टा मारने का क्रम तो दूसरे किनारे जाकर ही रुकता है।
 
मेले में कोई अकेला नहीं। यहां हर किसी के साथ कोई-न-कोई जुड़ा है। अनेकता में एकता का प्रतीक और विश्व बंधुत्व की भावना लिए हुए है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण गंगा में राजा-रंक, अमीर-गरीब, महिला-पुरुष, दिव्यांग जहां एकसाथ त्रिवेणी में आस्था की डुबकी लगाकर अनेकता में एकता को दर्शाते हैं, वहीं बाबाओं की मढ़ी में गोलाकार में बैठे देश-विदेश के अलग-अलग स्थानों से आए पर्यटक और स्थानीय जिसमें शामिल पास में काम करने वाले मजदूर हैं, वे सुट्टा मारने के साथ 'विश्व बंधुत्व' को दर्शाते हैं।
 
सेक्टर 16 में जूना अखाड़े के बाहर कई नागा संन्यासी और झूंसी में गंगा तीरे कुटिया में धूनी रमाए बैठे हैं। इनके अगल-बगल विदेशी और स्थानीय लोग भी अपनी बारी आने का इंतजार करते शांत चित्त बैठे रहते हैं। एक व्यक्ति दम मारने के बाद दूसरे की तरफ चिलम बढ़ा देता है। यह क्रम बारी-बारी से आगे बढ़ता रहता है। सुट्टा मारने के बाद सभी अपनी-अपनी अलग-अगल दिशाओं में बढ़ जाते हैं। खूबी यह कि यहां अधिकांश एक-दूसरे को जानते-पहचानते तक ही नहीं हैं, लेकिन सम्मान सबको एक बराबर। यहां 'नशेड़ी यार किसके, दम लगाए खिसके' कहावत को चरितार्थ करती है।
 
मढ़ी में बैठे यूएसए के टूटी-फूटी हिन्दी बोलने वाले विलियम ने बताया कि उसे चिलम का 'सुट्टा' बहुत अच्छा लगता है। कुछ समय के लिए वह सब कुछ भूल जाता है। उसने कहा कि 'हम जानटा है नशा खराब होता है लेकिन जीने का कोई सहारा तो चाहिए।' उसने बताया कि वह एक अच्छा स्कॉलर था लेकिन कुछ ऐसी परिस्थितयां उसके सामने ऐसी आईं कि उसका सारा क्रेज खत्म हो गया। उसने बताया कि 'लोग हिन्दुस्तान के बारे में बोलटा कि वहां बहुत धोका होता है, लेकिन यहां बहुट अच्छा लोग है। हम कभी-कभी इधर आटा है। हमको यहां बहुट अच्छा लगता है।' (वार्ता)

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