इतिहास और परंपरा का सूत्र

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रक्षाबंधन भाई-बहनों के स्नेह और उल्लास का पर्व माना जाता है। भारत के प्रमुख पर्वों में राखी भी प्रमुखता से मनाई जाती है। यह एकमात्र ऐसा पर्व है, जिस दिन लड़कियों का अत्यधिक महत्व होता है। देश के हर क्षेत्र में यह मनाया जाता है, लेकिन उसे मनाने का तरीका और उसके नाम भी अलग-अलग हैं। उत्तर भारत में जहाँ यह ‘कजरी-पूर्णिम’ के नाम से मनाया जाता है, वहीं पश्चिमी भारत में इसे ‘नारियल-पूर्णिम’ कहते हैं।

इतिहास- ऐसा माना जाता है कि स्वर्ग देवता इंद्र जब असुरों से पराजित हए थे, तो उनके हाथ पर उनकी पत्नी इंद्राणी ने रक्षा-सूत्र बाँधा था, ताकि वह दुश्मनों का डटकर सामना कर सकें। एक बार की बात है। भगवान कृष्ण की उँगली से रक्त बह रहा था। पांडवों की पत्नी द्रौपदी ने अपनी साड़ी का किनारा फाड़कर उनकी उँगली पर बाँध दिया। भगवान कृष्ण ने उनकी रक्षा करने का संकल्प लिया और आजीवन उसे निभाते रहे।

जब राजा पोरस और महान योद्धा सिकंदर के बीच युद्ध हुआ तो सिकंदर की पत्नी ने पोरस की रक्षा के लिए उसकी कलाई पर धागा बाँधा था। इसे भी रक्षा-बंधन का एक स्वरूप ही माना जाता है

भारतीय इतिहास में ऐसा ही एक और उदाहरण मिलता है, जब चित्तौड़ की रानी कर्मावती ने बहादुरशाह से अपनी रक्षा के लिए हुमायूँ को राखी बाँधी थी। हुमायूँ उसकी रक्षा की पूरी कोशिश करता है, लेकिन दुश्मनों के बढ़ते कदम को रोक नहीं पाता और अन्तत: रानी कर्मावती जौहर व्रत धारण कर लेती है

आधुनिक इतिहास में भी इसका उदाहरण मिलता है, जब नोबल पुरस्कार विजेता रविंद्रनाथ टैगोर ने बंगाल विभाजन के बाद हिंदुओं और मुसलमानों से एकजुट होने का आग्रह किया था और दोनों समुदायों से एक-दूसरे की कलाई पर रक्षा-सूत्र बाँधने का निवेदन किया था।

पौराणिक कथाओं के साथ-साथ भारतीय इतिहास में भी रक्षाबंधन के अलग-अल
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स्वरूपों की झलकियाँ मिलती हैंलेकिन समय के साथ- साथ उनमें भी काफी परिर्वतन आए हैं। अब यह पर्व पूरी तरह से भाई-बहनों के प्यार और स्नेह के बंधन का पर्व है, जिसमें बहन अपने भाई की कलाई पर राखी बाँधती है और भाई उनकी रक्षा का दायित्व उठाने का वादा करता है। यह केवल वर्ष में एक दिन मनाया जाने वाला पर्व नहीं है, बल्कि भाई आजीवन अपनी बहन की रक्षा के दायित्व का निर्वाह करता है।

बदली परंपराएँ - जब देश में साधनों की कमी थी तो उसका प्रभाव हमारे रिश्तों पर भी पड़ता था। पहले जहाँ अवागमन के लिए इतनी साररेलें नहीं थीं और सड़क-मार्ग द्वारा लोगों का आना-जाना भी काफी दुर्गम होता था। यही वजह थी कि जब बहन ब्याहकर अपने ससुराल चली जाती थी तो सालों-साल अपने भाइयों से मिल नहीं पाती थी। न ही ससुराल में उन्हें इतनी आजादी थी कि वे हर रक्षाबंधन पर अपने भाई को राखी बाँधने जा सकें। ऐसे में नेह का यह बंधन बंदिशों में बँधकर रह जाता था। लेकिन ज्यों-ज्यों वक्त बदला और हम आधुनिकता की ओर अग्रसर होते गए, भाई-बहनों के रिश्तों के बीच मानो सेतु बन गया हो। भाई देश के किसी भी कोने में हो या फिर विदेश में ही क्यों न हो, रक्षाबंधन के दिन अपनी प्यारी बहना के पास पहुँच ही जाता है।

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अब तो बहनें भी ससुराल में बैठी-बैठी मातम नहीं मनातीं कि उन्हें उनके भाईयों से नहीं मिलने दिया जाएगा, बल्कि खुद ही भागी-भागी अपने भाई के पास पहुँच जाती हैं। आधुनिकता ने जहाँ हमारे जीवन को आसान बनाया है, वहीं रिश्तों को भी नया रूप दिया है। अगर बहनें अपने भाई तक नहीं पहुँच पातीं तो ई-राखी के जरिए अपने भाई तक अपना नेह पहुँचा देती हैं और भाई भी अपनी बहन को प्यार भरा संदेश भेजते हैं।

वक्त के साथ परंपराएँ भले ही बदली हों, लेकिन उसकी सजीवता और सुंदरता आज भी बरकरार है