बेटी की बिदाई- मां के लिए चुनौती

*  बिटिया को दें शिक्षा के साथ संस्कार
 
स्त्री जीवन की यह सबसे बड़ी विडंबना है कि उसका जन्म किसी एक परिवार में होता है, जहां वह कोई 22-25 साल परवरिश पाती है और फिर 7 फेरों के साथ ही वह नितांत अजनबी परिवार में जीवन बिताने को अग्रसर होती है। ऐसे में उसे ही नए परिवार व परिवेश को अपनाना होता है, अपनी आदतों को उस परिवार के अनुसार बदलना होता है। 
 
आधुनिक सुसंस्कृत परिवारों में बदलाव की पहल दोनों ओर से होती है लेकिन नई बहू को ही सबसे ज्यादा समझौता करना होता है। ऐसे में मायके के संस्कार व स्वयं को परिस्थितियों के अनुरूप ढालने की मानसिकता ही सब कुछ सहज-सरल बनाती है व प्यारी बिटिया धीरे-धीरे लाड़ली बहू बन जाती है।
 
बच्चों की परवरिश में मां की भूमिका अहम होती है। विशेषकर बेटी की मां की, क्योंकि उसे अपने जिगर का टुकड़ा, नाजों से पली लाड़ो को, प्यारी-सी गुड़िया को नितांत ही अजनबी परिवार को सौंपना होता है। शिक्षा देकर ही कर्तव्य की इतिश्री नहीं होती बल्कि व्यावहारिक समझ, रिश्तों की नाजुकता व संबंधों की नजाकत को समझने के संस्कार देने होते हैं, साथ ही कैसे अपना आत्मविश्वास व आत्मसम्मान बनाए रखते हुए नए परिवार के साथ खुद को आत्मसात कर सबसे अपनत्व व स्नेह-बंध निर्मित करना- यह सिखाना होता है। पति ही नहीं, परिवार से बंधने व उन्हें बांधकर रखने का गुर बताना होता है।

 
बिटिया को बचपन व किशोरावस्था से ही ससुराल के प्रति न तो अत्यधिक भय दिखाया जाए, न ही आवश्यकता से अधिक अपेक्षाओं के सपने दिखाए जाएं तो ही स्वाभाविकता बनी रह सकती है। वह घर भी हमारे ही घर की तरह सामान्य होगा। वहां भी मां की तरह सास लाड़ भी करेगी व गलती होने पर उसे सुधारने के लिए डांट भी लगाएगी। पिता की तरह ससुर प्यारभरा संरक्षण भी देंगे व भूल होने पर अनुशासन तोड़ने पर सख्ती से कठोर बोल भी बोलेंगे। देवर, ननद भी भाई-बहनों व दोस्तों-सा स्नेह देंगे तो रूठेंगे भी, लड़ेंगे भी, तकरार भी करेंगे। ऐसी मानसिकता, ऐसी 'मेंटल प्रिप्रेशन' के साथ बेटी की बिदाई होगी तो वह सहजता व सहनशीलता से नए परिवार में आसानी से 'एडजस्ट' हो ही जाएगी।

 
बिटिया के बचपन से उसकी शादी के लिए एक-एक रुपया जोड़ दहेज एकत्रित करने की बजाए उसे अपनी हैसियत से बढ़-चढ़कर कपड़े-गहनों से लदाकर भेजने में अपनी शान समझने की बजाए और वार-त्योहार महंगे उपहारों से उसे नवाज अपने प्रेम का इजहार करने की बजाए उसे उच्च शिक्षित बना, स्वावलंबन की चुनरी ओढ़ा, संस्कारों के गहनों से सजा बिदा कीजिए। इससे न केवल उसका जीवन सुख-समृद्धि से भरा होगा बल्कि आपके संस्कार जब उसके व्यवहार में परिलक्षित होंगे, तो वह मायके से भी ज्यादा लाड़-प्यार ससुराल में पाएगी। उसके लिए कुछ बातों को तौलकर देखिए कि क्या आपने बिटिया को यह सिखलाया है? या शादी तय करने से पहले कुछ ऐहतियात बरती हैं?
 
 
बिटिया का रिश्ता करने से पहले इन बातों का ध्यान रखें-
 
1. रिश्ता बराबरी वालों से या अपनी हैसियत से या थोड़ी-सी ही अधिक हैसियत वालों से ही करें।
2. पढ़ा-लिखा वर ढूंढें।
3. लड़के व परिवार वालों की अच्छी तरह जांच-पड़ताल हो।
4. लड़के के व उसके परिवार की स्वास्थ्य संबंधी जानकारी प्राप्त करें (जैसे कोई आनुवांशिक बीमारी तो नहीं है?)
5. ब्लड ग्रुप इत्यादि परख लें। (मेडिकल कुंडली का मिलान अवश्य करें)
6. दो-चार मुलाकातों में ही विचार परख लें।
7. बाहर गांव के हों तो घर-बार अवश्य देखें।
8. वर की नौकरी, डिग्री व कमाई की पूर्ण खात्री करें।
9. वर के व्यसनों व खान-पान के बारे में अच्छी तरह जान लें।
10. विवाह पूर्व संबंधों के बारे में भी पता लगाएं।

 
बेटी को सावधानी, सतर्कता व स्नेह से समझाएं-
 
1. ससुराल के प्रति कोई डर, पूर्वाग्रह न रखें।
2. ससुराल को प्राथमिकता देना साथ ही मायके के कर्तव्यों को न भूलना।
3. पति से ही नहीं संपूर्ण परिवार से जुड़ना।
4. शालीनता व मर्यादा के दायरे में रहते हुए वस्त्रों का चुनाव करना।
5. सभ्य व शालीन व्यवहार करना साथ ही स्वयं के साथ भी शालीन व्यवहार रहे, यह आग्रह बनाना।
6. हमेशा संयत स्वर व सुसंस्कृत भाषा का प्रयोग।
7. स्नेहभाव विकसित करना।
8. समझौतावादी दृष्टिकोण रखते हुए आत्मसम्मान बनाए रखना। अपनी सही बात को स्पष्ट लेकिन संयत स्वर में कहना।
9. पूर्ण समर्पित भाव से रीति-रिवाजों व परंपराओं का पालन कर नए परिवेश में ढलने की कोशिश।
10. अहं को त्याग गलती हुई है तो उसे स्वीकारने का बड़प्पन रखना लेकिन सहनशीलता को कायरता न बनने देना।
11. 'मेरा-तुम्हारा' का भाव त्याग 'हमारा' होने का भाव उत्पन्न करना जिससे कि दोनों तरफ के संबंध बने रहें।
12. प्रेम व विश्वास को सर्वोपरि समझ पति व उसके परिवार के हर सुख-दु:ख में साझेदारी दिखाना। प्रेम व रिश्तों का मोल समझना।

 
अगर हर मां की तरह आप भी चाहती हैं कि आपकी प्यारी बिटिया ससुराल में सच्चे अर्थों में सुखी रहे, तो उसे मायके के मोह से धीरे-धीरे दूर करें। उसे प्यार व विश्वास दें कि मायका तो उसका जन्मसिद्ध अधिकार है लेकिन नए घर की मान-मर्यादा सम्मान ही उसका सम्मान है।

वह घर चाहे जैसा है, उसका है। उसे ही अपनाकर धीरे-धीरे अपने अनुसार ढालकर, कुछ स्वयं बदलकर, कुछ लोगों को स्नेह से बदलने को मजबूर करने से ही जीवन की राह सुखद सफर बनेगी और वह यह भूल ही जाएगी कि कभी मैं यहां ब्याहकर आई थी, क्योंकि तब तक वह खुद बेटी ब्याहने या बहू ब्याहकर लाने को उद्धृत होगी। यही जीवन है।

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