हिन्दू धर्मग्रंथ वेद और शूद्र

वेदों के बारे में फैलाई गई भ्रांतियों में से एक यह भी है कि वे ब्राह्मणवादी ग्रंथ हैं और शूद्रों को अछूत मानते हैं। जातिवाद की जड़ भी वेदों में बताई जा रही है और इन्हीं विषैले विचारों पर दलित आंदोलन इस देश में चलाया जा रहा है। लेकिन इन विषैले विचार की उत्पत्ति कहां से हुई?
 
सबसे पहले बौद्धकाल में वेदों के विरुद्ध आंदोलन चला। जब संपूर्ण भारत पर बौद्धों का शासन था तब वैदिक ग्रंथों के कई मूलपाठों को परिवर्तित कर समाज में भ्रम फैलाकर हिन्दू समाज को तोड़ा गया। इसके बाद मुगलकाल में हिन्दुओं में कई तरह की जातियों का विकास किया गया और संपूर्ण भारत के हिन्दुओं को हजारों जातियों में बांट दिया गया। फिर आए अंग्रेज तो उनके लिए यह फायदेमंद साबित हुआ कि यहां का हिन्दू ही नहीं मुसलमान भी कई जातियों में बंटा हुआ है।
 
अंग्रेज काल में पाश्चात्य विद्वानों जैसे मेक्समूलर, ग्रिफ्फिथ, ब्लूमफिल्ड आदि का वेदों का अंग्रेजी में अनुवाद करते समय हर संभव प्रयास था कि किसी भी प्रकार से वेदों को इतना भ्रामक सिद्ध कर दिया जाए कि फिर हिन्दू समाज का वेदों से विश्वास ही उठ जाए और वे खुद भी वेदों का विरोध करने लगे ताकि इससे ईसाई मत के प्रचार-प्रसार में अध्यात्मिक रूप से कोई कठिनाई नहीं आए। बौद्ध, मुगल और अंग्रेज तीनों ही अपने इस कार्य में 100 प्रतिशत सफल भी हुए और आज हम देखते हैं कि हिन्दू अब बौद्ध भी हैं, बड़ी संख्या में मुसलमान हैं और ईसाई भी।
 
अंग्रेज काल में वेदों को जातिवाद का पोषक घोषित कर दिया गया जिससे बड़ी संख्या में हिन्दू समाज के अभिन्न अंग, जिन्हें दलित समझा जाता है, को आसानी से ईसाई मत में किया गया। केरल, तमिलनाडु और पश्‍चिम बंगाल में गरीब और दलित हिन्दुओं के मन में वेद और ब्राह्मणों के प्रति नफरत भरी गई और यह बताया गया कि आज जो तुम्हारी दुर्दशा है उसमें तुम्हारे धर्म और शासन का ही दोष है। लेकिन ऐसा कहते वक्त वे ये भूल गए कि पिछले 200 साल से तो आप ही का राज था। फिर उसके पूर्व मुगलों का राज था और उससे पूर्व तो बौद्धों का शासन था। हमारी दुर्दशा सुधारने वाला कौन था? 
 
सवाल यह उठता है कि शूद्र कौन? ब्राह्मण कौन? क्षत्रिय कौन? और वैश्य कौन? यदि हम आज के संदर्भ में शूद्र की परिभाषा करें तो महाभारत के रचयिता वेद व्यास शूद्र थे। रामायण के रचयिता वाल्मीकि भी शूद्र ही थे। भगवान कृष्ण अहीर यादव समाज से थे तो उन्हें भी शूद्र ही मान लिया जाना चाहिए। वेदों के ऋषियों की जाति पता करेंगे तो सभी शूद्र ही निकलेंगे। 
 
स्वामी दयानंद ने वेदों का अनुशीलन करते हुए पाया कि वेद सभी मनुष्यों और सभी वर्णों के लोगों के लिए वेद पढ़ने के अधिकार का समर्थन करते हैं। स्वामीजी के काल में शूद्रों का जो वेद अध्ययन का निषेध था उसके विपरीत वेदों में स्पष्ट रूप से पाया गया कि शूद्रों को वेद अध्ययन का अधिकार स्वयं वेद ही देते हैं।
 
यजुर्वेद 26.2 के अनुसार हे मनुष्यों! जैसे मैं परमात्मा सबका कल्याण करने वाली ऋग्वेद आदि रूप वाणी का सब जनों के लिए उपदेश कर रहा हूं, जैसे मैं इस वाणी का ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए उपदेश कर रहा हूं, शूद्रों और वैश्यों के लिए जैसे मैं इसका उपदेश कर रहा हूं और जिन्हें तुम अपना आत्मीय समझते हो, उन सबके लिए इसका उपदेश कर रहा हूं और जिसे ‘अरण’ अर्थात पराया समझते हो, उसके लिए भी मैं इसका उपदेश कर रहा हूं, वैसे ही तुम भी आगे-आगे सब लोगों के लिए इस वाणी के उपदेश का क्रम चलाते रहो।
 
दरअसल, शूद्र किसी जाति विशेष का नाम नहीं था। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य भी किसी जाति विशेष का नाम नहीं होता था। ये तो सभी बौद्धकाल और मध्यकाल की विकृतियां हैं, जो समाज में प्रचलित हो चलीं। वर्ण को जाति सिद्ध किया गया।
 
अथर्ववेद 19.62.1 में प्रार्थना है कि हे परमात्मा! आप मुझे ब्राह्मणों का, क्षत्रियों का, शूद्रों का और वैश्यों का प्यारा बना दें। इस मंत्र का भावार्थ यह है कि हे परमात्मा! आप मेरा स्वभाव और आचरण ऐसा बना दें जिसके कारण ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और वैश्य सभी मुझे प्यार करें। अब यहां समझने वाली बात यह है कि यह मंत्रकर्ता कौन था?
 
यजुर्वेद 18.48 में प्रार्थना है कि हे परमात्मन! आप हमारी रुचि ब्राह्मणों के प्रति उत्पन्न कीजिए, क्षत्रियों के प्रति उत्पन्न कीजिए, विषयों के प्रति उत्पन्न कीजिए और शूद्रों के प्रति उत्पन्न कीजिए।
 
मंत्र का भाव यह है कि हे परमात्मन! आपकी कृपा से हमारा स्वभाव और मन ऐसा हो जाए कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारी रुचि हो। सभी वर्णों के लोग हमें अच्छे लगें। सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारा बर्ताव सदा प्रेम और प्रीति का रहे।
 
प्राचीनकाल में 'जन्मना जायते शूद्र' अर्थात जन्म से हर कोई गुणरहित अर्थात शूद्र हैं ऐसा मानते थे और शिक्षा प्राप्ति के पश्चात गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर वर्ण का निश्चय होता था। ऐसा समाज में हर व्यक्ति अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार समाज के उत्थान में अपना-अपना योगदान कर सके इसलिए किया गया था। मध्यकाल में यह व्यवस्था जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गई।
 
यदि जाति के मान से आज देखें तो एक ब्राह्मण का बालक दुराचारी, कामी, व्यसनी, मांसाहारी और अनपढ़ होते हुए भी ब्राह्मण कहलाने लगा जबकि एक शूद्र का बालक चरित्रवान, शाकाहारी, उच्च शिक्षित होते हुए भी शूद्र कहलाने लगा। होना इसका उल्टा चाहिए था।
 
इस जातिवाद ने देश को तोड़ दिया। परंतु आज समाज में योग्यता के आधार पर ही वर्ण की स्थापना होने लगी है। एक चिकित्सक का पुत्र तभी चिकित्सक कहलाता है, जब वह सही प्रकार से शिक्षा ग्रहण न कर ले। एक इंजीनियर का पुत्र भी उसी प्रकार से शिक्षा प्राप्ति के पश्चात ही इंजीनियर कहलाता है और एक ब्राह्मण के पुत्र को अगर अनपढ़ है तो उसकी योग्यता के अनुसार किसी दफ्तर में चतुर्थ श्रेणी से ज्यादा की नौकरी नहीं मिलती। यही तो वर्ण व्यवस्था है।
 
दरअसल, वेद और पुराणों के संस्कृत श्लोकों का हिन्दी और अंग्रेजी में गलत अनुवा‍द ही नहीं किया गया, बल्कि उसके गलत अर्थ भी जान-बूझकर निकाले गए। अंग्रेज विद्वान जो काम करने गए थे उसे ही आज हमारे यहां के वे लोग कर रहे हैं, जो अब या तो वामपंथी हैं या वे हिन्दू नहीं हैं।
 
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वेदों के शत्रु विशेष रूप से पुरुष सूक्त को जातिवाद की उत्पत्ति का समर्थक मानते हैं। पुरुष सूक्त 16 मंत्रों का सूक्त है, जो चारों वेदों में मामूली अंतर में मिलता है।
 
पुरुष सूक्त जातिवाद के नहीं, अपितु वर्ण व्यवस्था के आधारभूत मंत्र हैं जिसमें 'ब्राह्मणोस्य मुखमासीत' ऋग्वेद 10.90 में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को शरीर के मुख, भुजा, मध्य भाग और पैरों से उपमा दी गई है। इस उपमा से यह सिद्ध होता है कि जिस प्रकार शरीर के ये चारों अंग मिलकर एक शरीर बनाते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण आदि चारों वर्ण मिलकर एक समाज बनाते हैं।
 
जिस प्रकार शरीर के ये चारों अंग एक-दूसरे के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख अनुभव करते हैं, उसी प्रकार समाज के ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के लोगों को एक-दूसरे के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझना चाहिए।
 
यदि पैर में कांटा लग जाए तो मुख से दर्द की ध्वनि निकलती है और हाथ सहायता के लिए पहुंचते हैं, उसी प्रकार समाज में जब शूद्र को कोई कठिनाई पहुंचती है तो ब्राह्मण भी और क्षत्रिय भी उसकी सहायता के लिए आगे आएं। सब वर्णों में परस्पर पूर्ण सहानुभूति, सहयोग और प्रेम-प्रीति का बर्ताव होना चाहिए। इस सूक्त में शूद्रों के प्रति कहीं भी भेदभाव की बात नहीं कही गई है।
 
इस सूक्त का एक और अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है कि जब कोई भी व्यक्ति किसी भी जाति का हो यदि वह समाज में धर्म ज्ञान का संदेश प्रचार-प्रसार करने में योगदान दे रहा है तो वह ब्राह्मण अर्थात समाज का शीश है। यदि कोई व्यक्ति समाज की रक्षा अथवा नेतृत्व कर रहा है तो वह क्षत्रिय अर्थात समाज की भुजा है। यदि कोई व्यक्ति देश को व्यापार, धन आदि से समृद्ध कर रहा है तो वह वैश्य अर्थात समाज की जंघा है और यदि कोई व्यक्ति गुणों से रहित है अर्थात तीनों तरह के कार्य करने में अक्षम है तो वह इन तीनों वर्णों को अपने-अपने कार्य करने में सहायता करे अर्थात इन तीनों के लिए मजबूत आधार बने।
 
लेकिन आज के आधुनिक युग में इन विशेषणों की कोई आवश्‍यकता नहीं है। फिर भी अपने राजनीतिक हित के लिए जातिवाद को कभी समाप्त किए जाने की दिशा में आजादी के बाद भी कोई काम नहीं हुआ बल्कि हमारे राजनीतिज्ञों ने भी मुगलों और अंग्रेजों के कार्य को आगे ही बढ़ाया है। आज यदि स्कूल, कॉलेज या मूल निवासी का फॉर्म भरते हैं तो विशेष रूप से जाति का उल्लेख करना होता है। इस तरह अब धीरे-धीरे जातियों में भी उपजातियां ढूंढ ली गई हैं और अब तो दलितों में भी अगड़े-पिछड़े ढूंढे जाने लगे हैं।
 
- वेबदुनिया संदर्भ ग्रंथालय

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