नागरिक होने का अर्थ

रमेशचंद्र लाहोट
(उच्चतम न्यायालय के पूर्व प्रधान न्यायाधीश)

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भारत के लोगों ने 20 जनवरी, 1949 को भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्ना लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए एक संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मसमर्पित किया। भारत के लोगों ने इस लोकतंत्रात्मक गणराज्य और संविधान से अपेक्षा की कि वह भारतवर्ष केसमस्त नागरिकों को न्याय, अभिव्यक्ति, स्वतंत्रता और समता प्राप्त कराएगा और बंधुता बढ़ाएगा। न्याय की अवधारणा में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की त्रिधारा समाहित है। बंधुता का उद्देश्य है कि व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित हो। प्रजातंत्र की उक्त अवधारणा उस संविधान की उद्देशिका से प्रतिध्वनित होती है, जो संविधान विश्व का सबसे बड़ा संविधान है और एक बेशकीमती दस्तावेज है। स्वतंत्र भारत के रूप में इस देश के उन कोटि-कोटि लोगों का वह स्वप्न साकार हुआ है जिसके लिए लक्ष्य-लक्ष्य लोगों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया, लाठियाँ, गोलियाँ खाईं, जेल में चक्की और कोल्हू पीसे और न जाने कितने त्याग किए।

यही वह स्वप्न है जिसे देखकर अशफाक उल्ला खाँ जैसे शहीदों ने कहा था-

कभी वो दिन भी आएगा
जब अपना राज देखेंगे
जब अपनी ही जमीं होगी
जब अपना आसमाँ होगा।

क्या यह स्वप्न साकार हो सकता है? क्या भारतवर्ष के प्रत्येक नागरिक को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय मिल सका है? क्या प्रत्येक भारतवासी को वह स्वतंत्रता प्राप्त है, जिसमें वह अपने विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना के अधिकार का मुक्त प्रयोग कर सके? क्या भारतवर्ष के नागरिकों के बीच ऐसी बंधुता का प्रादुर्भाव हो चुका है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा सुप्रतिष्ठित है और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित है।


एक आदर्श कल्याणकारी राज्य व्यवस्था का लक्ष्य होना चाहिए कि राज्य में प्रत्येक व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताएँ रोटी, कपड़ा और मकान पूरी हो चुकी हों, रहन-सहन का स्तर धीरे-धीरे ऊपर उठे, लोगों को निजी व्यापार-व्यवसाय का स्वातंत्र्य हो और शासन केवल उचित करकी वसूली न्याय व्यवस्था के लिए करे। शासन स्वयं कोई व्यापार-व्यवसाय तभी करे, जहाँ निजी क्षेत्र विफल हो गया हो, अन्यथा भ्रष्टाचार बढ़ेगा।

कल्याणकारी राज्य में आदर्श नागरिकों की रचना करना भी शासन का उत्तरदायित्व है, उनका उत्तरदायित्व जो सत्ता में है, जिन्हें जनता ने अपना प्रतिनिधि, अपना भाग्यविधाता चुना है। इस परिवर्तन का माध्यम होते हैं शिक्षा और चरित्र। वह शिक्षण पद्धति जो विदेशी शासक भारतवासियों को अपने उद्देश्य अथवा स्वार्थपूर्ति के लिए प्रयोग में लाते थे, अब अप्रासंगिक हो जाती है

नवीन शिक्षा पद्धति का लक्ष्य देशवासियों के चरित्र का निर्माण और उन्हें स्वावलंबी बनाने की दिशा में होना चाहिए। वही शिक्षा एक स्वतंत्र देश के लिए प्रासंगिक होगी, जो व्यक्ति में अंतर्निहित गुणों और क्षमता को जागृत एवं सम्पुष्ट करे। कल्याणकारी राज्य में शासकों का उद्देश्य केवल शासन करना नहीं है। निर्वाचित शासकों को यह नहीं भूलना चाहिए कि वे देशवासियों के प्रति उत्तरदायी हैं और स्वतंत्र देश में मतदाता शासकों का शासक होता है। प्रभुसत्ता के अंगों (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) को यह नहीं भूलना चाहिए कि उन सभीका लक्ष्य देशवासियों की सेवा करना है और उनके द्वारा उठाया गया प्रत्येक कदम और लिया गया निर्णय देशवासियों के उत्थान का मार्ग प्रशस्त करने वाला होना चाहिए। नागरिकों को भी नहीं भूलना चाहिए कि अब वे विदेशी सत्ता से संघर्ष नहीं कर रहे हैं, बल्कि उन्हें अपने हीद्वारा चुने गए जनप्रतिनिधियों के साथ सहयोग कर उनके हाथ मजबूत करने हैं ताकि वे देश की रक्षा कर सकें और देशवासियों की सेवा के लिए निरंतर ऊर्जा अर्जित कर सकें। संविधान के रचयिता दूरदृष्टि संपन्ना थे। संविधान के पाठ में मूल अधिकारों का समावेश तो किया गया, किंतु नागरिकों के मूल कर्तव्य भी होने चाहिए, इस पर या तो किसी का ध्यान नहीं गया या इसे आवश्यक नहीं समझा गया। कदाचित उन्होंने सोचा था कि भारत के लोग और उन्हीं में से चुने गए उनके नेता भारतीय तो बने ही रहेंगे, पर यह अवधारणा भ्रांत निकली। लगभग ढाईदशक के उपरांत 42वें संशोधन के माध्यम से संविधान में भाग 4क, अनुच्छेद 51क का समावेश करना ही पड़ा जिसमें स्वतंत्र भारत के नागरिकों के मूल कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है।

अनुच्छेद 51क स्वतंत्र देश के प्रत्येक नागरिक की आदर्श आचार संहिता है। इस पाठ का समावेश माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा के पाठ्यक्रम में किया जाना चाहिए और उच्च एवं उच्चतर माध्यमिक स्तर पर इनमें से प्रत्येक कर्तव्य पर कुछ गहन गंभीर चिंतन महाविद्यालयीन शिक्षा का अनिवार्य अंग होना चाहिए।

किसी भी देश को अपने मूलाधार से विलग नहीं होना चाहिए। हमारे अपने सांस्कृतिक मूल्य और हमारे अपने महापुरुषों की जीवन गाथाएँ आधुनिकता में बाधक नहीं हैं। स्वामी विवेकानंद के अनुसार, 'एक ओजस्वी भारत के लिए हमें अपने ऋषियों द्वारा प्रदर्शित पथ पर चलना होगाऔर सदियों की दासता के फलस्वरूप प्राप्त अपनी जड़ता को उखाड़ फेंकना होगा। हमें आगे बढ़ना ही चाहिए, अपने स्वयं के भाव के अनुसार, अपने स्वयं के पथ से। प्रत्येक राष्ट्र के जीवन में एक मुख्य प्रवाह रहता है, भारत में वह धर्म है

वर्तमान भारतीय चिंतन में कुछ परिवर्तन आवश्यक है। पंथनिरपेक्ष शासन धर्मनिरपेक्ष नहीं होता। धर्म का विरोध नहीं बल्कि सर्वधर्मों में सामंजस्य की स्थापना कर सारे धर्मों के मूल सार से निःसृत होने वाले गुण प्रत्येक भारतीय के व्यक्तित्व को सुशोभित करें, यह शासन की नीति होनी चाहिए। शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। नागरिकों को केवल अपने अधिकारों को ही नहीं, कर्तव्यों के निर्वाह को भी प्राथमिकता देनी चाहिए।

शासन कल्याणकारहो और देश के नागरिक कर्तव्य-पथ पर आरूढ़। आधार हो हमारी अपनी संस्कृति और मार्गदर्शक हों, दोनों के ही हमारे अपने सांस्कृतिक मूल्य। तभी देश में सुख-शांति का सृजन होगा, विधि के शासन की स्थापना हो सकेगी और भारत दूसरे देशों के लिए अनुकरणीय आदर्श बन सकेगा।