नारी की निर्णय क्षमता पुरुष से कम नहीं, पर...!

- बिंदु त्रिपाठ

ND
यह शायद आधी आबादी से जुड़ा कड़वा सच है। कहने को हम आधुनिक तो हुए लेकिन महिलाओं के लिए हमने अब भी हदें तय कर रखी हैं। कहीं कुछ गलती खुद महिलाओं की भी है। हम 100 में से केवल 2 या 4 अपवादों के बूते पर समूचे नारी वर्ग को स्वतंत्र कैसे परिभाषित कर सकते हैं भला?

पिछले दशकों में नारी शिक्षा और स्वाधीनता ने जो जोर पकड़ा उसके क्रांतिकारी परिणाम सामने आए और घर की चहारदीवारी से बाहर निकलकर महिलाओं ने उच्च शिक्षा प्राप्त करना और विभिन्ना पदों पर आसीन होना प्रारंभ कर दिया है। अब महिलाओं ने देश के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक विकास में भी अपनी महती भूमिका का निर्वहन करना प्रारंभ कर दिया है। फलस्वरूप उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में भी बदलाव आया। नारी चेतना के स्वर मुखरित हुए और नारी स्वातंत्र्य आंदोलनों ने जोर पकड़ा। किंतु प्रश्न उठता है कि क्या इस आंदोलन तथा नारीस्वाधीनता के मायने पूर्णरूपेण सफल हुए?

यदि हम इस प्रश्न पर गौर फरमाएँ तो एक तथ्य सामने आता है कि पुरुष प्रधान समाज में अब भी नारी की स्थिति दोयम दर्जे की ही है। इतना अवश्य है कि शिक्षा एवं नारी जागृति के फलस्वरूप नारी की स्थिति में सुधार हुआ है। किंतु यह सुधार आंशिक ही है। इसे नारी स्वाधीनता का पूर्णरूपेण प्रतीक नहीं माना जा सकता। इसलिए कि नारी उच्च शिक्षित होने के बावजूद आज भी घर-परिवार, समाज और यहाँ तक कि स्वयं अपने मामलों में निर्णय लेने में असमर्थ है। उसकी मानसिक क्षमता आज भी संदिग्ध बनी हुई है। निर्णय केवल पुरुष लेता है और नारी उस पर अमल करती है, भले ही वह मानसिक रूप से उसके निर्णय पर सहमत न हो।

देश की आबादी का आधा भाग महिलाओं का है और इसमें मात्र कुछ गिनी-चुनी महिलाएँ ही हैं, जिन्होंने अपनी दृढ़ निर्णय क्षमता का परिचय दिया है, लेकिन आनुपातिक तौर पर तो नारी की निर्णय क्षमता पुरुष से कमतर ही है।
  नारी उच्च शिक्षित होने के बावजूद आज भी घर-परिवार, समाज और यहाँ तक कि स्वयं अपने मामलों में निर्णय लेने में असमर्थ है। उसकी मानसिक क्षमता आज भी संदिग्ध बनी हुई है। निर्णय केवल पुरुष लेता है और नारी उस पर अमल करती है, भले ही वह मानसिक रूप से उसके निर्ण      
अपनी निर्णय अक्षमता के कारण ही दुनिया भर में कितनी महिलाएँ रोज ही अत्याचार, बलात्कार, शोषण व अन्याय का शिकार बन रही हैं। जब भी निर्णय लेने का वक्त आता है, नारी स्वयं पुरुष पर निर्भर हो जाती है। सिर्फ इसलिए क्योंकि वह स्वयं को मानसिक रूप से पुरुष से अधिक सक्षम नहीं मानती। यह बात बचपन से उसके अंदर डाली जाती है।

यही कारण है कि नारी के साथ भी कोई ज्यादती होती है, वह स्वयं खुलकर विरोध नहीं कर पाती। अपने साथ हो रहे अन्याय को नारी चुपचाप यह सोचकर सहन करती रहती है कि प्रतिकार करने पर उसके साथ और ज्यादती होगी, समाज में बदनामी होगी, उसे बहिष्कृत कर दिया जाएगा, तब वह कहाँ जाएगी? क्या करेगी आदि। ये सब बातें उसकी निर्णय अक्षमता को ही दर्शाती हैं, क्योंकि वह स्वयं अपने भविष्य के विषय में कोई निर्णय लेने की स्थिति में नहीं होती। नारी के साथ जो अन्याय, शोषण और अत्याचार सदियों पहले होते थे, वे आज भी हो रहे हैं, जो सिद्ध करते हैं कि शिक्षित होने के बावजूद नारी की मानसिक शक्ति में कोई परिवर्तन नहीं आया है और वह पुरुषों की अपेक्षा मानसिक रूप से अब तक निर्णय लेने में सक्षम नहीं हो पाई है।

यह सच है कि यदि महिलाएँ ठान लें तो उनमें इतना आत्मविश्वास और दृढ़ मानसिक क्षमता आ सकती है, जिसके बलबूते पर वे आत्मसम्मान और स्वाभिमान की रक्षा कर सकें। इसके उदाहरण भी हमारे समाज में मौजूद हैं। चूँकि शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का मानसिक विकास करना भी होता है। इस दृष्टि से देखें तो आज जबकि महिलाएँ पढ़ी-लिखी और उच्च शिक्षित हैं तो उन्हें इस शिक्षा का लाभ उठाकर अपनी निर्णय क्षमता और मानसिक क्षमता का विकास करना होगा, ताकि निर्णय लेने के मामलों में उन्हें पुरुष पर निर्भर न रहना पड़े और सही अर्थों में उन्हें पुरुषों के समकक्ष रखा जा सके। वे अपनी लड़ाई खुद लड़ सकें और जीत भी सकें।