भगवान परशुराम का जन्म कब और कहां हुआ था?

भगवान परशुराम किसी समाज विशेष के आदर्श नहीं है। वे संपूर्ण हिन्दू समाज के हैं और वे चिरंजीवी हैं। उन्हें राम के काल में भी देखा गया और कृष्ण के काल में भी। उन्होंने ही भगवान श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र उपलब्ध कराया था। कहते हैं कि वे कलिकाल के अंत में उपस्थित होंगे। ऐसा माना जाता है कि वे कल्प के अंत तक धरती पर ही तपस्यारत रहेंगे। पौराणिक कथा में वर्णित है कि महेंद्रगिरि पर्वत भगवान परशुराम की तप की जगह थी और अंतत: वह उसी पर्वत पर कल्पांत तक के लिए तपस्यारत होने के लिए चले गए थे।
 
#
सतयुग में जब एक बार गणेशजी ने परशुराम को शिव दर्शन से रोक लिया तो, रुष्ट परशुराम ने उन पर परशु प्रहार कर दिया, जिससे गणेश का एक दांत नष्ट हो गया और वे एकदंत कहलाए। त्रेतायुग में  जनक, दशरथ आदि राजाओं का उन्होंने समुचित सम्मान किया। सीता स्वयंवर में श्रीराम का अभिनंदन किया।
 
द्वापर में उन्होंने कौरव-सभा में कृष्ण का समर्थन किया और इससे पहले उन्होंने श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र उपलब्ध करवाया था। द्वापर में उन्होंने ही असत्य वाचन करने के दंड स्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत हो जाने का श्राप दिया था। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्र विद्या प्रदान की थी। इस तरह परशुराम के अनेक किस्से हैं।
 
#
जन्म समय :
विष्णु के छठे 'आवेश अवतार' भगवान परशुराम का जन्म भगवान श्रीराम के पूर्व हुआ था। श्रीराम सातवें अवतार थे। वर्तमान शोधकर्ताओं के द्वारा रामायण के आधार पर किए गए शोधानुसार श्रीराम का जन्म 5114 ईसा पूर्व हुआ था। दूसरी ओर माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों के इतिहास-लेखक, श्रीबाल मुकुंद चतुर्वेदी के अनुसार भगवान परशुराम का जन्म 5142 वि.पू. वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन-रात्रि के प्रथम प्रहर में हुआ था। इनका जन्म समय सतयुग और त्रेता का संधिकाल माना जाता है।

मान्यता है कि पराक्रम के प्रतीक भगवान परशुराम का जन्म 6 उच्च ग्रहों के योग में हुआ, इसलिए वह तेजस्वी, ओजस्वी और वर्चस्वी महापुरुष बने।
 
भगवान परशुराम जी का जन्म अक्षय तृतीया पर हुआ था इसलिए अक्षय तृतीया के दिन परशुराम जयंती मनाई जाती है। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में रात्रि के प्रथम प्रहर में उच्च के ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु के स्थित रहते माता रेणुका के गर्भ से भगवान परशुराम का प्रादुर्भाव हुआ था। अक्षय तृतीया को भगवान परशुराम का जन्म माना जाता है। इस तिथि को प्रदोष व्यापिनी रूप में ग्रहण करना चाहिए क्योंकि भगवान परशुराम का प्राकट्य काल प्रदोष काल ही है।
 
#
जन्म स्थान :
भृगुक्षेत्र के शोधकर्ता साहित्यकार शिवकुमार सिंह कौशिकेय के अनुसार परशुराम का जन्म वर्तमान बलिया के खैराडीह में हुआ था। उन्होंने अपने शोध और खोज में अभिलेखिय और पुरातात्विक साक्ष्यों को प्रस्तुत किया हैं। श्रीकौशिकेय अनुसार उत्तर प्रदेश के शासकीय बलिया गजेटियर में इसका चित्र सहित संपूर्ण विवरण मिल जाएगा।
 
1981 ई. में बीएचयू के प्रोफेसर डॉ. केके सिन्हा की देखरेख में हुई पुरातात्विक खुदाई में यहां 900 ईसा पूर्व के समृद्ध नगर होने के प्रमाण मिले थे। ऐतिहासिक, सांस्कृतिक धरोहर पाण्डुलिपि संरक्षण के जिला समन्वयक श्रीकौशिकेय द्वारा की गई इस ऐतिहासिक खोज से वैदिक ॠषि परशुराम की प्रामाणिकता सिद्ध होने के साथ-साथ इस कालखण्ड के ॠषि-मुनियों वशिष्ठ, विश्वामित्र, पराशर, वेदव्यास के आदि के इतिहास की कड़ियां भी सुगमता से जुड़ जाती है।
 
#
एक अन्य किंवदंती के अनुसार मध्यप्रदेश के इंदौर के पास स्थित महू से कुछ ही दूरी पर स्थित है जानापाव की पहाड़ी पर भगवान परशुराम का जन्म हुआ था। यहां पर परशुराम के पिता ऋर्षि जमदग्नि का आश्रम था। कहते हैं कि प्रचीन काल में इंदौर के पास ही मुंडी गांव में स्थित रेणुका पर्वत पर माता रेणुका रहती थीं। 
 
पवित्र तीर्थ जानापाव से दो दिशा में नदियां बहतीं हैं। यह नदियां चंबल में होती हुईं यमुना और गंगा से मिलती हैं और बंगाल की खाड़ी में जाता है। कारम में होता हुआ नदियों का पानी नर्मदा में मिलता है। यहां 7 नदियां चोरल, मोरल, कारम, अजनार, गंभीर, चंबल और उतेड़िया नदी मिलती हैं। हर साल यहां कार्तिक और क्वांर के माह में मेला लगता है।
 
#
एक तीसरी मान्यता अनुसार छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में घने जंगलों के बीच स्थित कलचा गांव में स्थित एक ऑर्कियोलॉजिकल साइट है जिसे शतमहला कहा जाता है। मान्यता है कि जमदग्नि ऋषि की पत्नी रेणुका इसी महल में रहती थीं और भगवान परशुराम को जन्म दिया था। कलचा गांव देवगढ़ धाम से महज दो किलोमीटर दूर है और उस पूरे क्षेत्र में ऋषि-मुनियों के इतिहास से जुड़े कई अवशेष बिखरे पड़े हैं। हरे-भरे जंगलों और पहाड़ों से घिरा छत्तीसगढ़ का सरगुजा क्षेत्र प्राचीन काल के दंडकारण्य का वह हिस्सा है।
 
#
एक अन्य चौथी मान्यता अनुसार उत्तर प्रदेश में शाहजहांपुर के जलालाबाद में जमदग्नि आश्रम से करीब दो किलोमीटर पूर्व दिशा में हजारों साल पुराने मन्दिर के अवशेष मिलते हैं जिसे भगवान परशुराम की जन्मस्थली कहा जाता है। महर्षि ऋचीक ने महर्षि अगत्स्य के अनुरोध पर जमदग्नि को महर्षि अगत्स्य के साथ दक्षिण में कोंकण प्रदेश मे धर्म प्रचार का कार्य करने लगे। कोंकण प्रदेश का राजा जमदग्नि की विद्वता पर इतना मोहित हुआ कि उसने अपनी पुत्री रेणुका का विवाह इनसे कर दिया। इन्ही रेणुका के पांचवें गर्भ से भगवान परशुराम का जन्म हुआ। जमदग्नि ने गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के बाद धर्म प्रचार का कार्य बन्द कर दिया और राजा गाधि की स्वीकृति लेकर इन्होंने अपना जमदग्नि आश्रम स्थापित किया और अपनी पत्नी रेणुका के साथ वहीं रहने लगे। राजा गाधि ने वर्तमान जलालाबाद के निकट की भूमि जमदग्नि के आश्रम के लिए चुनी थी। जमदग्नि ने आश्रम के निकट ही रेणुका के लिए कुटी बनवाई थी आज उस कुटी के स्थान पर एक अति प्राचीन मन्दिर बना हुआ है जो आज 'ढकियाइन देवी' के नाम से सुप्रसिद्ध है। 
 
'ढकियाइन' शुद्ध संस्कृत का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है वह देवी जिसका जन्म दक्षिण में हुआ हो। रेणुका कोंकण नरेश की पुत्री थी तथा कोंकण प्रदेश दक्षिण भारत में स्थित है। यह वही पवित्र भूमि है जिस पर भगवान परशुराम पैदा हुए थे। जलालाबाद से पश्चिम करीब दो किलोमीटर दूर माता रेणुका देवी तथा ऋषि जमदग्नि की मूर्तियों वाला अति प्राचीन मन्दिर इस आश्रम में आज भी मौजूद है तथा पास में ही कई एकड़ मे फैली जमदग्नि नाम की बह रही झील भगवान परशुराम के जन्म इसी स्थान पर होने की प्रामाणिकता को और भी सिद्ध करती है। 

वेबदुनिया पर पढ़ें

सम्बंधित जानकारी