Shri Krishna 29 August Episode 119 : भानामति को होता है पूर्वजन्म का ज्ञान तब शुरू होता है मायावी विद्याओं का खेल

अनिरुद्ध जोशी

शनिवार, 29 अगस्त 2020 (22:07 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 29 अगस्त के 119वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 119 ) में श्रीकृष्ण नादरमुनि से कहते हैं कि आप भानामति को उसके पूर्वजन्म की याद दिलाओ और देवी रति से कहते हैं कि देवी रति आपका कार्य प्रद्युम्न को ये बताना होगा कि वह कामदेव है। एक बात और कि संभरासुर के गुरुदेव को यह पता चल गया है कि प्रद्युम्न संभारासुर के लिए मृत्युदाता है इसलिए वो उसे मार डालने का प्रयास अवश्य करेंगे। उनका प्रयास विफल करने के लिए भानामति को पूर्वजन्म का स्मरण करा देना अति आवश्यक है। यह सुनकर देवी रति कहती हैं कि हम अति शीघ्र ही भाना‍मति से मिलेंगे प्रभु। ऐसा कहकर देवर्षि नारद और देवी रति वहां से चले जाते हैं।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
 
उधर, भानामति पालने में प्रद्युम्न को सुला रही थी तभी वहां पर नारदमुनि और देवी रति प्रकट होते हैं। यह देखकर भानामति आश्चर्य करती है और फिर उन्हें प्रणाम करती है तो देवर्षि उन्हें सौभाग्यवती भव: का आशीर्वाद देते हैं और कहते हैं- ये देवी रति हैं। तब भानामति कहती है- प्राणाम देवी रति। फिर देवी रति उन्हें सुखीभव: का आशीर्वाद देती हैं।
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फिर भानामति कहती हैं कि आप मेरी कुटिया में पधारे इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद परंतु आज आचानक आपने दर्शन कैसे दिए? यह सुनकर नारदजी कहते हैं कि असुर श्रेष्ठ संभरासुर ने बताया कि आप भोजन बहुत ही स्वादिष्ठ बनाती हैं तो सोचा की क्यों न आपके आतिथ्‍य का आनंद उठाया जाए। यह सुनकर भानामति कहती है कि ये तो मेरा अति सौभाग्य होगा कि आप दोनों यहां से तृप्त होकर जाएं। यह सुनकर रति कहती हैं- नहीं इस कष्ट की कोई आवश्यकता नहीं। यह कहकर वह पालने में लेटे प्रद्युम्न के पास जाकर उसे देखने लगती है और कहती है कि मैं तो तुम्हारे पुत्र को देखकर ही धन्य हो गई, बहुत प्यारा है। इसे देखकर ऐसा लगता है जैसे ये कोई ईश्वरीय अंश है। 
 
यह सुनकर भानामति कहती है- नहीं नहीं ये ईश्वरीय अंश कैसे हो सकता है, ये तो मेरे कलेजे का टूकड़ा है, मेरा बेटा है। यह सुनकर नारदमुनि कहते हैं- प्रद्युम्न को आपने जन्म नहीं दिया है भानामति। यह सुनकर भानामति घबरा जाती है। फिर नारदमुनि कहते हैं- परंतु आप ही उसकी माता हैं क्योंकि प्रद्युम्न ने आप ही का दूध पिया है। फिर रति कहती हैं कि और फिर जब प्रद्युम्न का वध करने जब संभरासुर का पुत्र कुंभकेतु आया था तो आपकी व्याकुलता और एक माता की व्या‍कुलता में कोई फर्क नहीं था। इसीलिए आप ही प्रद्युम्न की माता हैं। यह सुनकर भानामति को संतोष होता है। फिर रति कहती है- जन्म देना आसान है भानामति, परंतु बच्चे का लालन-पालन करना और उसकी सुरक्षा करना आसान नहीं है।
 
फिर नारदमुनि कहते हैं कि आपने प्रद्युम्न को कुंभकेतु के हाथों से तो बचा लिया परंतु संकट अभी टला नहीं है भानामति। यह सुनकर भानामति कहती है- संकट? तब नारदमुनि कहते हैं- हां जिस राजगुरु ने अपनी सिद्ध से यह जान लिया है कि प्रद्युम्न ही संभरासुर का काल है इसीलिए उसीने अब प्रद्युम्न हरण के लिए यज्ञ का प्रारंभ कर दिया है।  
 
तब भानामति कहती है- देवर्षि प्रद्युम्न तो एक बालक है वह महाराज संभरासुर का काल कैसे बन सकता है? और फिर महाराज संभरासुर ने इसे स्वयं अभयदान दिया है। मैं तो असमंजस में हूं कि इतना नन्हा बालक महाराज संभरासुर का वध कैसे कर सकता है? यह सुनकर रति कहती हैं कि आप ऐसा इसलिए समझती हैं कि आप अपने इस जन्म में भूल गई हैं कि आपको मायावी तथा रसायन विद्या का ज्ञान भी है।
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यह सुनकर भानामति खुश होकर कहती है- मैं मायावी विद्या और रसायन विद्या जानती हूं? बड़े आश्चर्य की बात है देवी रति। यह सुनकर नारदमुनि कहते हैं- हां भानामति हां, अब आपको इसी विद्या के प्रयोग द्वारा राजगुरु के प्रकोप से प्रद्युम्न को बचाना है। यह सुनकर भानामति कहती है कि मेरी तो ये कुछ समझ में नहीं आ रहा कि आप दोनों ये क्या कह रहे हैं। तब देवी रति कहती हैं कि अपने आप को पहचानों भानामति। भानामति हम आपको आपके पूर्वजन्म की याद दिलाने ही आए हैं। अब आपको आपके पूर्वजन्म का स्मरण होगा। 
 
फिर नारदमुनि कहते हैं- आप पूर्वजन्म में एक अप्सरा थीं। आपका नाम पद्मिनी था। यह नाम सुनकर भानामति चौंक जाती है और कहती है- पद्मिनी? फिर वह सोचने लगती है। तब नारदजी अपनी माया से उसे सबकुछ याद दिला देते हैं। फिर भानामति को सबकुछ याद आ जाता है कि वह अप्सरा पद्मिनी थी और उसने भगवान विष्णु का तप करके उनसे मायावी विद्या और रसायन विद्या प्राप्त करके उसका दुरुपयोग करते हुए सदानंद ऋषि के दो पुत्रों को बालक से युवा बना दिया था तो उन्होंने असुर योनी में जन्म लेने का श्राप दे दिया था तब विष्णु ने उन्हें द्वापर में प्रद्युम्न की सुरक्षा का भार सौंप दिया था। 
 
फिर वह कहती हैं- देवर्षि मैं, मैं श्रापित हूं? यह सुनकर देवर्षि कहते हैं- हां। परंतु अब ये श्राप समाप्त होने जा रहा है और आपके उद्धार का समय आ गया है भानामति...नारायण नारायण। फिर रति कहती हैं- मायावती अब आपको मायावी और रसायन विद्या का स्मरण भी हो चुका है। अब आपको शीघ्र ही रसायन विद्या से प्रद्युम्न को जवान करना है और उसका गुरु बनकर उसे मायावी विद्या की दीक्षा और शिक्षा देनी है।
 
फिर भानामति पूछती है- परंतु देवर्षि मैं इस श्राप से कब मुक्त होऊंगी? तब नारदमुनि कहते हैं कि जब आप प्रद्युम्न को इस रसायन विद्या से बड़ा कर देंगी और फिर प्रद्युम्न जब संभरासुर का वध कर देगा तब आप श्राप से मुक्त हो जाएंगी। 
 
उधर, जहां पर राजगुरु यज्ञ कर रहे होते हैं वहां पर भानामति का गूंगा और एक हाथ से अपंग हो गया पति भाणासुर पहुंच जाता है और उनके चरणों में लेट जाता है। राजगुरु उसे देखते हैं तो वह कुछ बताने का प्रयास करता है। तब राजगुरु कहते हैं- उठो भाणासुर उठो। वह उठकर बैठ जाता है और इशारे से बताता है कि मैंने उस बालक मारने का प्रयास किया था, परंतु मेरी ये हालत हो गई। तब राजगुरु कहते हैं- मैं सब जान गया हूं, सब जानता हूं। महाराज संभरासुर मूर्खता का प्रदर्शन कर रहे हैं परंतु तुम मूर्ख नहीं हो। तुम स्वयं अपने आपको नष्ट करना चाहते हो महाराज संभरासुर की सुरक्षा के लिए। मैं तुम्हारी स्वामी भक्ति की भावना से अति प्रसन्न हूं। 
 
फिर भाणासुर संकेतों से पूछता है बालक को कैसे नष्ट करें तो राजगुरु कहते हैं कि उसी को नष्ट करने के लिए तो मैं ये यज्ञ कर रहा हूं। इस यज्ञ से जो शक्ति मुझे मिलेगी उस शक्ति प्रयोग से मैं उस अशुभ बालक को नष्ट कर दूंगा तथा संभरासुर को सुरक्षा का कवच पहना दूंगा। भाणासुर तुम यहीं आश्रम में रहो। इस यज्ञ की समाप्ति के बाद मैं तुम्हारी वाणी भी लौटा दूंगा और तुम फिर से बात कर सकोगे।
 
तभी वहां आसमान में काल प्रकट होकर जोर-जोर से हंसता है तब गुरुदेव कहते हैं- हे कालपुरुष आप? तब वह कालपुरुष कहता है- गुरुदेव आपको एक महत्वपूर्ण बात बताना अति आवश्यक है। तब गुरुदेव पूछते हैं- कौन सी बात? इस पर वह कहता है कि इस यज्ञ का फल आपको नहीं मिलेगा...हा हा हा।...तब गरुदेव कहते हैं- क्यों नहीं मिलेगा, अवश्य मिलेगा। इस तरह हंसकर तुम मेरा उपहास नहीं कर सकते। जब मेरा ये यज्ञ संपन्न हो जाएगा तो आपको भी संभरासुर के साम्राज्य से चले जाना होगा। यह सुनकर कालपुरुष जोर-जोर से हंसते हुए कहता है गुरुदेव होनी को कोई नहीं टाल सकता, आपकी ये चेष्ठा सफल नहीं होगी...हा हा हा। आपका ये यज्ञ व्यर्थ हो जाएगा।
 
यह सुनकर गुरुदेव कहते हैं- हे कालपुरुष! आप मुझे आह्‍वान देना चाहते हैं? तब वह कहता है- नहीं गुरुदेव मैं आपको वास्तविकता का ज्ञान देना चाहता हूं। मेरी भविष्यवाणी की चेतावनी को समझिये। तब गुरुदेव कहते हैं कि आप मेरे तप सामर्थ की परीक्षा लेना चाहते हैं? तब कालपरुष कहता है- नहीं गुरुदेव आप एक ज्ञानी पुरुष है आपका तेज आलौकिक है परंतु आप अधर्म कर रहे हैं। संभरासुर जैसे अधर्मी का साथ दे रहे हैं। इससे आपके तप का सामर्थ घटता जा रहा है, आपका तेज घटता जा रहा है। यदि आप अपने इस तप का उपयोग त्रिलोक के कल्याण के लिए करते तो आप त्रिलोक में सर्वश्रेष्ठ माने जाते।
 
तब गुरुदेव कहते हैं कि मैं असुरों का राजगुरु हूं मैं असुरों के हित में कार्य करूं तो इसमें क्या बुराई है। हे काल पुरुष! आप बेकार में ही मेरी बुद्धि भेदन करने का प्रयास कर रहे हैं। इस तरह काल पुरुष कई प्रकार के उपदेश देता है और कहता कि यह आपका अहंकार है जिसके चलते आप सच और झूठ में फर्क नहीं कर पा रहे हैं। आपका तेज घटता जाएगा और तप समाप्त हो जाएगा। परंतु गुरुदेव नहीं मानते हैं तब काल पुरुष कहते हैं कि मैं आपको चेतावनी देना चाहता हूं कि यदि आप प्रद्युम्न को नष्ट करने का प्रयास करेंगे तो आप इस यज्ञ से साथ ही नष्ट हो जाएंगे। यह सुनकर गुरुदेव कहते हैं कि देखा जाएगा कि मैं मृत्यु पर विजय पाता हूं कि मृत्यु मुझ पर विजय पाती है। हे काल पुरुष! मैं आपकी चुनौति स्वीकार करता हूं। संभरासुर के काल को नष्ट करने में यदि मेरी मृत्यु भी आई तो चिंता नहीं। फिर काल पुरुष वहां से चला जाता है।
 
उधर, भानामति प्रद्युम्न को दुलार करते वक्त रोते हुए कहती है- मैं तुम्हें कैसे बड़ा करूं। यदि मैंने तुम्हें बड़ा कर दिया तो मेरी ममता का क्या होगा? तुम तो मेरे हाथों से, मेरे सीने से दूर भागोगे ना। नहीं नहीं मैं तुम्हें इतनी जल्दी बड़ा नहीं कर सकती। 
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यह देखकर श्रीकृष्ण रुक्मिणी से कहते हैं- देख लिया देवी, भानामति पुत्र मोह में आधीन होकर अपन कर्तव्य भूल गई है। इस समय प्रद्युम्न को शीघ्र ही युवावस्था प्रदान करना भानामति का धर्म है। क्योंकि ये कार्य ‍त्रिलोक के हित में है और त्रिलोक के कल्याण के लिए ही रसायन विद्या के प्रयोग का वचन दिया परंतु भानामति तो पुत्र मोह में फंस गई है। परंतु देवी भानामति को संभरासुर के गुरुदेव के घातक प्रहार का ज्ञान नहीं है। गुरुदेव महाराज के प्राणों की रक्षा के लिए प्रद्युम्न के प्राणों के हरण की चेष्ठा हर स्थिति में करेंगे। 
 
फिर उधर, गुरुदेव को अपने साथियों के साथ यज्ञ करते हुए बताया जाता है और उधर भानामति प्रद्युम्न को सुला रही होती है तभी वहां पर देवी रति प्रकट होकर कहती है- भानामति मैं आपको सावधान करने आई हूं। यह सुनकर भानामति कहती है- सावधान करने, किसलिए? तब देवी रति कहती हैं- राजगुरु प्रद्युम्न को नष्ट करने के लिए इस समय मायावी विद्या का प्रयोग कर रहे हैं। यह सुनकर भानामति अपमी माया से ये देख लेती है और फिर कहती है- देवी रति आपने ठीक ही कहा। आपकी इस पूर्व सूचना का धन्यवाद। 
 
इस पर देवी रति कहती है- भानामति अब आपको भी राजगुरु के सारे प्रयास विफल करने के लिए आपको भी मायावी विद्या का प्रयोग करना होगा। प्रद्युम्न की रक्षा ही अब आपका दायित्व बन गया है। यह सुनकर भानामति कहती है- आप निश्‍चिंत रहिये देवी रति। कोई भी मां अपना दायित्व अपने प्राणों की आहुति देकर भी निभाती हैं। मैं भी आवश्यकता पड़ने पर पीछे नहीं हटूंगी। यह सुनकर देवी रति वहां से चली जाती है। 
 
फिर उधर, राजगुरु गुरुदेव अपनी माया से यज्ञ में एक आग का गोला उत्पन्न करते हैं जो गोला आकाश की ओर निकल जाता है।.. फिर उधर भानावति कहती हैं- हे भगवान विष्णु! मुझे मेरी विद्या का उपयोग करने की शक्ति दीजिये। फिर भानामति अपनी आंखें बंद करके कुछ बुदबुदाती है। फिर उसकी मायावी विद्या के माध्यम से उसके घर के आसपास एक सुरक्षा चक्र निर्मित हो जाता है।..गुरुदेव का छोड़ा गया आग का गोला उस सुरक्षा चक्र से टकराकर लौट जाता है और पुन: यज्ञ की आग में गिर जाता है। यह देखकर गुरुदेव चौंक जाते हैं। 
 
यह सभी घटनाक्रम देवी रति, नारदमुनि, श्रीकृष्‍ण और रुक्मिणी देख रहे होते हैं। 
 
फिर गुरुदेव यज्ञ से एक और मायावी बिजली उत्पन्न करके उस ओर भेजते हैं तो वह भी लौट आती है। इस तरह वह कई तरह के प्रयोग करता है परंतु सफल नहीं हो पाता है। तब वह एक महा भयंकर राक्षसनी को यज्ञ से प्रकट करता है तब वह राक्षसनी कहती है आज्ञा कीजिये गुरुदेव मुझे किस काम के लिए स्मण किया है? इस पर गुरुदेव कहते हैं- यशस्वीभव: कृत्या, तुम प्रद्युम्न और उसकी माता को उसके घर के साथ यहां तुरंत उठाकर ले जाओ। यह सुनकर वह राक्षसनी कृत्या कहती है- जो आज्ञा गुरुदेव। 
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उधर भानामति यह जानकर अपनी माया से अपने ही एक प्रतिरूप को बनाकर पलंग पर लेटा देती है और फिर उसी तरह से वह प्रद्युम्न का भी एक रूप निर्मित करके उसे पालने में लेटा देती है। फिर वह प्रद्युम्न को साथ लेकर घर से बाहर निकल जाती है।... तब वह राक्षसनी भानामति के घर के बाहर पहुंच जाती है और उस घर को उठाने लगती है तो उसमें भानामति की माया से निर्मित दूसरी भानामति पालने में सोए प्रद्युम्न को उठाकर इधर-उधर भागने लगती है। फिर वह राक्षसनी कृत्या उस घर को उठाकर आसमान में ले उड़ती है। आसमान में राक्षसनी देखती है ‍कि भानामति कितनी भयभित हो गई है जो अपने बालक को हाथ में लेकर पुरकार रही है प्रभु मुझे बचाओ, मुझे बचाओ। ये मायावी राक्षसनी मुझे उठा ले जा रही है। यह देख और सुनकर राक्षसनी कृत्या प्रसन्न हो जाती है।
 
फिर वह उस घर को ले जाकर गुरुदेव के समाने उपस्थित हो जाती है। गुरुदेव ये देखकर अति प्रसन्न हो जाते हैं। तब वह राक्षसनी कहती है कि मैं आपकी आज्ञा अनुसार प्रद्युम्न और उसकी माता को उसके घर सहित उठा लाई हूं। अब मेरे लिए क्या आदेश है गुरुदेव? यह सुनकर गुरुदेव कहते हैं कि अब प्रद्युम्न और उसकी माता को मेरे सामने नष्ट कर दो, नष्ट कर दो इन्हें। 
 
तब प्रतिरूप बनी भानामति कहती है- नहीं नहीं गुरुदेव ऐसा अनर्थ न कीजिये। नहीं गुरुदेव मुझे क्षमा कर दीजिये। इतना कठोर दंड ना दीजिये। तब गुरुदेव कहते हैं- भानामति मैंने तुम्हें प्रद्युम्न को नष्ट करने की आज्ञा दी थी तुमने मेरी आज्ञा का पालन ना करके मेरा अपमान किया है। तब नकली भानामति कहती है- परंतु आपका अपमान करना मेरा उद्येश्य नहीं था गुरुदेव। मैं तो ममता धर्म का पालन कर रही थी। अपने पुत्र की रक्षा करना अपराध होता है क्या? तब गुरुदेव कहते हैं कि सामान्य स्थिति में इसे अपराध नहीं कहते परंतु प्रद्युम्न तो संभरासुर का काल है उसे नष्ट कर देना आवश्यक है। तुम ममता धर्म निभा रही हो और संभरासुर के गुरु का दायित्व मैं निभा रहा हूं।
 
फिर गरुदेव कहते हैं- कृत्या नष्ट कर दो इन्हें। तब वह कहती है- जैसी आपकी आज्ञा। इस पर भानामति पुकारती है- प्रभु मेरी रक्षा करो। हे विष्णु मेरी रक्षा करो।... यह सुनकर रुक्मिणी और रति ‍चिंतित हो जाती है परंतु नारदमुनि और श्रीकृष्ण मुस्कुराते रहते हैं।.. फिर वह कृत्या नाम की राक्षसनी अपने मुंह से आग निकालकर भानामति और प्रद्युम्न को घर सहित जलाकर भस्म कर देती है। फिर देखकर गुरुदेव अति प्रसन्न हो जाते हैं और राक्षसनी हंसकर कहती है- गुरुदेव अब मेरे लिए क्या आदेश है? तब गुरुदेव कहते हैं- हे कृत्या जिस तरह तुम इस अग्निकुंड के मार्ग से आई थी उसी तरह इस अग्निकुंड में चली जाओ। फिर वह कृत्या चली जाती है।
 
उधर, रुक्मिणी चिंतित होकर पूछती है- प्रभु आपने भानामति की सुरक्षा क्यों नहीं की प्रभु? देखिये मेरे प्रद्युम्न का उस अग्नि में क्या हाल हुआ होगा भगवन। यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- देवी आप मृत्युलोक के सामान्य चक्षु से देखकर घटनाओं का विपरण कर रही हैं। ये आपकी आंखों का धोखा है। अपने दिव्य चक्षुओं से देखिये की इन घटनाओं के पीछे भी एक भव्य घटना घट रही है। देवी आपने अब तक जो कुछ भी देखा वह तो केवल भ्रम डालने के लिए था। यही तो युद्ध नीति अपनाना पड़ती है। आपके चक्षुओं पर पुत्र मोह का जो परदा पड़ा है जरा उसे हटाकर देखिये तो सारी बात समझ में आ जाएगी। 
 
फिर रुक्मिणी देखती कि भानामति का घर तो वहीं है और वह प्रद्युम्न लेकर विष्णु की मूर्ति के समक्ष खड़ी प्रार्थना कर रही है कि हे प्रभु! आपकी दया और कृपा से मैं अपने पुत्र की रक्षा मायावी विद्या से कर सकी हूं परंतु मैं कब तक प्रद्युम्न की रक्षा कर सकूंगी। देवी रति ने ठीक ही कहा था कि संभरासुर के गुरुदेव प्रद्युम्न को मारने का हर प्रयास करेंगे। परंतु मैं ऐसा नहीं होने दूंगी। प्रद्युम्न की रक्षा के लिए मैं गुरुदेव को ही नष्ट कर दूंगी। 
 
फिर भानामति भयंकर मायावी विद्या से रथ पर सवार महाराज संभरासुर को निर्मित कर देती है और कहती है- मायावी संभरासुर जाओ और जाकर गुरुदेव के लिए उसका काल बन जाओ.. जाओ। यह सुनकर मायावी संभरासुर कहता है- जो आज्ञा। फिर संभरासुर अपने रथ पर सवार कुछ सैनिकों के साथ गुरुदेव के आश्रम पहुंच जाता है। 
 
यज्ञ कर रहे गुरुदेव संभरासुर को देखकर प्रसन्न हो जाते हैं। भानामति का भेजा नकली संभरासुर गुरुदेव को प्रणाम करता है तो गुरुदेव उसे आशीर्वाद देते हैं और कहते हैं- अच्छा हुआ संभरासुर तुम स्वयं यहां चले आए। मैं तुम्हें एक शुभ समाचार देना चाहता हूं। यह सुनकर मायावी संभरासुर कहता है- अवश्य गुरुदेव। तब गुरुदेव कहते हैं कि मैंने तुम्हारे काल को नष्ट कर दिया है। अब तुम अमर हो गए हो। मैंने प्रद्युम्न को नष्ट कर दिया है।
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यह सुनकर मायावी संभरासुर भड़क जाता है और कहता है- क्या कहा! मैंने प्रद्युम्न को अभय दिया है ये जानते हुए भी तुमने उसे नष्ट कर दिया। गुरुदेव एक बालक भला मुझे कैसे नष्ट कर सकता है। आप तो अब कल्पना के संसार में जीने लगे हैं और झूठी आशाओं में रहकर मेरे आदेश के उल्लंघन का दु:साहस भी करने लगे हैं।... यह सुनकर गुरुदेव अचंभित हो जाते हैं तब मायावी संभरासुर कहता है गुरुदेव मेरे ही साम्राज्य में मेरी ही आज्ञा का पालन नहीं हो रहा है तो फिर त्रैलोक्य में मेरे आदेश का पालन कैसे हो सकेगा। प्रद्युम्न को नष्ट करके आपने मेरे विरोध करने का दु:साहस किया है। इसलिए इस अपराध का दंड भी आपको भुगतना होगा।
 
यह सुनकर क्रोधित गुरुदेव भंसरासुर की ओर देखकर कहते हैं- मैं तुम्हारा गुरु हूं दैत्यराज! मैं सदा-सर्वादा तुम्हारी ही भलाई चाहता हूं। परंतु तुम इतने उत्मत हो गए हो कि अपने गुरु का अपमान कर रहे हो और दंड भी देना चाहते हो। परंतु मैं ये अपमान सहन नहीं कर सकता। मैंने तुम्हारे रास्ते का कांटा हमेशा के लिए निकाल दिया है। अब तुम अवश्य ‍त्रिलोकपति बन सकोगे यही मेरा आशीर्वाद है। मेरा दायित्व पूरा हो चुका है। अब तुम्हें मेरी कोई आवश्‍यकता नहीं है। इससे पहले की तुम मुझे दंड दो मैं स्वयं अपना शरीर त्याग देता हूं। यह सुनकर मायावी संभरसुर मुस्कुराने लगता है। फिर गुरुदेव कहते हैं- इसी यज्ञकुंड की अग्नि में अपने शरीर को समर्पित कर देता हूं। क्या आपने गुरु को इतना भी अधिकार नहीं दोगे? तब वह मायावी संभरासुर कहता है- ठीक है गुरुदेव आपकी ये अंतिम इच्छा भी मुझे स्वीकार है।
 
यह सुनकर गुरुदेव तिलमिला जाते हैं और यज्ञ की अग्नि में घी डालकर मंत्र पढ़कर प्रचंड अग्नि प्रज्वलित करते हैं। यह दृश्य श्रीकृष्ण, रुक्मिणी, रति और नारदमुनि देख रहे होते हैं। तभी वहां पर पुन: कालपुरुष प्रकट होता है तो गुरुदेव कहते हैं- हे कालपुरुष! आप अब ‍तक यहीं हैं? तब वह कहता है कि जब तक मैं संभरासुर के प्राण हरण नहीं कर लेता तब तक में यहां से नहीं जा सकता गुरुदेव। तब गुरुदेव कहते हैं कि नहीं दैत्यराज संभरासुर अमर हो गए हैं। मैंने स्वयं संभरासुर की मृत्यु को अपने हाथों से नष्ट कर दिया है। तब काल कहता है कि ये भी आपका भ्रम है गुरुदेव प्रद्युम्न जीवित है।

 
यह सुनकर गुरुदेव चौंक जाते हैं और कहते हैं- कि ये कैसे हो सकता है प्रद्युम्न और भानामति मेरी आंखों के सामने नष्ट हो चुके हैं। तब काल पुरुष कहता है- वो माया थी गुरुदेव माया, आपकी आंखों का धोखा। आपने जिस कृत्या का निर्माण किया था वो आपकी रचाई माया थी और आपकी मायावी का उत्तर किसी ने अपनी मायावी शक्ति से दिया है और प्रद्युम्न की रक्षा की है। यह सुनकर गुरुदेव कहते हैं- नहीं मुझे विश्वास नहीं होता। तब कालपुरुष कहता है- विश्वास नहीं होता...हा हा हा। गुरुदेव जो संभरासुर अभी तुम्हारे पास आए हैं वो भी मायावी है। असली संभरासुर आपसे मिलने आ रहा है वो देखो। 
 
यह सुनकर गुरुदेव संभरासुर की ओर देखते हैं तो नकली संभरासुर के पीछे रथ से असली संभरासुर उतरते हैं। यह देखकर नकली संभरासुर हंसने लगता है। गुरुदेव दो दो संभारासुर को देखकर अचंभित हो जाते हैं। यह देखकर कालपुरुष जोर-जोर से हंसने लगता है। तब गुरुदेव पूछते हैं कि ये दूसरा संभरासुर कौन है महाराज संभरासुर तो मेरे आश्रम में उपस्थित हैं। उन्हीं की आज्ञा से तो मैं अपने प्राण त्यागने जा रहा था। तब कालपुरुष कहता है कि गुरुदेव मैंने आपको पहले ही चेतावनी दी थी कि यदि आप प्रद्युम्न को नष्ट करने का प्रयास करेंगे तो आप इस यज्ञ से साथ ही नष्ट हो जाएंगे और इसी चेतावनी के अनुसार आप आत्मस्वाह करने ही जा रहे थे... हा..हा..हा। जय श्रीकृष्णा।
 
 
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