शिक्षक दिवस के बहाने प्रो. सभरवाल कांड

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प्रो. सभरवाल की हत्या के सारे आरोपी बरी हो गए। एक देश, जहाँ गुरु पूजने की सदियों पुरान‍ी यशस्वी परंपरा रही हो। एक देश, जहाँ कवि इस असंमजस में रहें कि गुरु-गोविन्द दोनों सामने खड़े हैं, मैं किसके पैर लगूँ, गुरु की महिमा गोविन्द के सामने इसलिए बड़ी है क्योंकि गुरु ने ही तो गोविन्द तक पहुँचने का मार्ग दिखाया है। उसी देश में गुरु की हत्या के आरोपी मुक्त हो गए। शर्म शब्द भी छोटा है अगर इस मामले में उसका प्रयोग किया जाए।

संवेदनहीनता की सारी हदें पार हो चुकी हैं, सम्मान, गरिमा और मर्यादा जैसे शब्द बेहद खोखले प्रतीत हो रहे हैं। एक शिक्षक की जान चली गई और (कु) तर्क दिए गए कि जो कुछ हुआ उसे भीड़ ने किया किसी व्यक्ति विशेष ने नहीं।

अब कौन करेगा यह प्रश्न कि भीड़ को उकसाने का अपराध, अपराध क्यों नहीं? खासकर तब जब कि एक शिक्षक इस कृत्य की बलि चढ़ गया हो? इस देश में शिक्षक का वजूद अब रहा ‍ही कितना कि बहस की जाए? शिक्षक है कौन आज के बच्चों की नजर में?

एक ऐसा व्यक्ति जिस पर चुटकुले बनाए जा सकें, जिसकी नकल की जा सकें, जिसकी हँसी उड़ाई जा सके और ज्यादा भाव खाए तो जिसकी हत्या की जा सकें! फिर तो देश की राजनीति हो या न्याय की दहलीज, परिवार हो या समाज, संरक्षण के लिए है मौजूद है न! स्कूलों से घर लौटे बच्चों से जब शिक्षक की हँसी उड़वाई जाती है तब ही बीज पड़ जाते है किसी शशिरंजन अकेला या विमल तोमर के। ये वही बच्चे होते हैं जिनकी नजरों में शिक्षक सिर्फ मखौल का विषय होते हैं। इनके मजाक में भागीदार परिवार भी उतना ही जिम्मेदार होता है जितना कि स्वयं बच्चा।

एक शिक्षक जब कक्षा में पढ़ाता है तब उसके लिए सारे विद्यार्थी बराबर होते हैं लेकिन समय गुजरने पर उनमें से कितने विद्यार्थी उसकी ‍दी हुई विद्या की अर्थी निकाल देंगे यह वह स्वयं नहीं जानता। विद्या की अर्थी अब बहुत पहले उठ गई अब सीधे शिक्षक की अर्थी उठवा दी जाती है।

ऐसे बिगड़े नवाबों के लिए कौन होते हैं जिम्मेदार?

परिवार : बचपन बेहद मासूम होता है। गीली मिट्टी की तरह। उस पर जैसी छाप बना दी जाती है जीवन भर फिर वही अपना रूप दिखाती है। माता-पिता और घर के अन्य सदस्यों की यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि स्कूल से लौटने पर बच्चों के शिक्षकों का ना खुद मजाक बनाए, ना दोस्तों के साथ बनाए गए उसके मजाक में भागीदार बनें। शिक्षक की नकल, उनकी आदतें, उनकी कमजोरी जैसे विषयों पर हमेशा स्पष्ट और सम्मानजनक रवैया अपनाएँ। अपने बच्चों को बताएँ कि शिक्षक भी एक इंसान है। किसी दूसरी दुनिया से आया प्राणी नहीं कि उसकी हर बात को भिन्न नजरिए से देखा जाए।

छात्र राजनीति : छात्र राजनीति विशुद्ध पवित्र शब्द है। इसके माध्यम से छात्रों में अपनी संस्था के प्रति दायित्व-बोध जाग्रत होता है। नेतृत्व क्षमता विकसित होती है। आत्मविश्वास और कार्यनिष्ठा जैसे गुणों का विकास होता है। लेकिन यही राजनीति तब घातक हो जाती है जब इसमें बाहरी तत्वों का समावेश होता है। बाहरी राजनीति की घुसपैठ ही विद्यालयों-महाविद्यालयों को अखाड़ा बना देती है। बाहर के राजनैतिक गुडांतत्व के लिए ये छात्र उपद्रव फैलाने का माध्यम भर होते हैं। अत: शैक्षणिक परिसरों में दलगत राजनीति सख्त प्रतिबंधित होनी चाहिए। छात्र राजनीति के शुद्ध रूप से ही हमने राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण और अटलबिहारी वाजपेई जैसे प्रखर नेता पाएँ हैं। लेकिन बाहरी राजनीति के घृणित हस्तक्षेप से हमें मिले हैं शशिरंजन अकेला और विमल तोमर जैसे उद्दंड छात्र नेता। अंतर समझाने की आवश्यकता नहीं है।

समाज: आमतौर पर तथाकथित छुटभैया नेताओं के माध्यम से लोग बड़े-बड़े काम को अंजाम देते हैं। इन नेताओं की बड़े नेताओं के बीच घुसपैठ होती है अत: आम जनता के लिए ये जरिया होते हैं किसी काम को करवाने का। बड़े नेताओं के अनैतिक आचरण को छुपाने व अंजाम देने के लिए इनका जमावड़ा आवश्यक होता है। आम जनता की यहाँ यह रचनात्मक भूमिका हो सकती है कि ऐसे अधकचरे नेताओं को प्रोत्साहित करना बंद करें। साथ ही अपने घर में भी ऐसे गुंडा टाइप तत्वों को पनपने ना दें। ना ही इनके जरिए किसी काम को करवाने की मंशा पालें।

टीवी : इन दिनों छोटे पर्दे पर रिएलिटी शो के माध्यम से बच्चों को बदतमीज बनाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। अपने बच्चों को इनके प्रभाव से बचाएँ। बच्चा जब देखता है कि किसी का अपमान करने से, मजाक बनाने से घर के सदस्यों को मजा आ रहा है तो आकर्षण का केन्द्र बनने के लिए वह भी ऐसे ही हथकंडे अपनाता है। अत: विशुद्ध हास्य और मनोरंजन एवं फुहड़ स्टैंडअप कॉमेडी के बीच अंतर समझाना आपका ही दायित्व है।

बिगड़ैल बच्चों की फौज से ही आगे चलकर अकेला और तोमर जैसी फसल तैयार होती है। यह वक्त है सचेत होने का कि कहीं अपने ही घर में तो छुपे नहीं है अकेला, तोमर, दुबे या फिर कसाब? ये शिक्षकों के दुश्मन भी तो आतंकवादी से कम नहीं। हम मंदी के दौर से गुजर रहे हैं मगर अपने जीवन मूल्यों में, अपने संस्कारों में मंदी आ गई तो भारतीय संस्कृति के विराट वृक्ष को दीमक लगने से कौन रोक पाएगा?

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