कैसे बना ओसामा जिहादी

कोई 23 साल पहले की बात है। लादेन किंग अब्दुल अजीज विश्वविद्यालय के इंजीनियरिंग विभाग के पुस्तकालय में बैठा ड्राइंग पेपर पर बने भवन के एक नक्शे को बार-बार अलग-अलग कोण से देख रहा था। कोई भी आसानी से यह अनुमान लगा सकता था कि वह नौजवान छात्र इस नक्शे में कुछ जोड़ना-घटाना चाहता है। लादेन अपने इस काम में इतनी तल्लीनता से खोया था कि उसे पता ही नहीं चला कि कब दो लोग उसकी बगल में आकर खड़े हो गए हैं।

दो मिनट तक जब लादेन की तल्लीनता भंग नहीं हुई तो उनमें से एक नौजवान ने, जो कि उसी का सहपाठी था, लादेन के कंधों पर धीरे से हाथ रखते हुए कहा- 'बने-बनाए नक्शे हमेशा मनमाफिक नहीं होते। कई बार नक्शे खुद बनाने पड़ते हैं।' कंधे पर दबाव और कान में पड़ी आवाज से लादेन की तल्लीनता टूटी।

'अरे, सादात तुम!'

'ओसामा, इनसे मिलो। ये हैं शेख अब्दुल्ला आजम।' सादात ने अपने साथ खड़े उस अधेड़ व्यक्ति की तरफ इशारा किया जिसकी आँखें चमकदार और गहराई तक बेधने वाली थीं।

दरअसल, शेख अब्दुल्ला आजम कट्टर इस्लामवादी थे। वे पैदाइशी फिलिस्तीनी थे, इसलिए फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन से उनका जुड़ाव स्वाभाविक था। यासेर अराफात के वे सबसे नजदीकी लोगों में से एक थे, मगर उनकी साख अरब राष्ट्रों के नौकरशाहों के बीच भी थी क्योंकि वे कूटनीति के भी एक मंजे हुए खिलाड़ी थे।

सर्वोच्च इस्लामिक दुनिया निर्मित करना उनके जीवन का लक्ष्य था। उन दिनों उनका फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन से मोहभंग होने लगा था, क्योंकि उनके मुताबिक उसमें भ्रष्टाचार जड़ जमाने लगा था। उनकी दृढ़ मान्यता थी कि इस्लाम को अपनी जड़ों की तरफ लौटना चाहिए और इसे न मानने वालों के विरुद्ध जेहाद छेड़ा जाना चाहिए।

लंबे समय तक उन्होंने नौजवानों को फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन में लाने का काम किया था। इस कारण काम के आदमियों के बारे में उनकी पहचान बहुत ही तीक्ष्ण थी। ओसामा बिन लादेन को पहली नजर में देखते ही वे समझ गए थे कि यह नौजवान लाखों में एक है। जिस लादेन के बारे में कोई साधारण व्यक्ति कभी यह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि उसका आतंकवाद से किसी तरह का जुड़ाव हो सकता है, उसी लादेन के बारे में पहली मुलाकात के बाद ही शेख की टिप्पणी थी- 'यह नौजवान एक दिन दुनिया को हिला देगा।'

एक साधारण आदमी का एक कट्टर आतंकवादी बनने का यह रूपांतरण उन दिनों का है, जब अरब जगत में तमाम स्थितियां और घटनाएं ऐतिहासिक मोड़ ले रही थीं। इसराइल और फिलिस्तीन संकट के हल की दूर-दूर तक कोई उम्मीद नहीं दिख रही थी जबकि मिस्र और इसराइल के बीच ऐतिहासिक कैम्प डेविड समझौते के दो सालों बाद मिस्र के राष्ट्रपति श्री अनवर सादात इसराइल की यात्रा की योजना बना रहे थे और इस यात्रा के विरोध में मिस्र के खिलाफ एक अरबी मोर्चा बंध रहा था।

यही वे दिन थे, जब अफगानिस्तान इस्लामवादियों की चिंताओं के दायरे में आने लगा था और 'मुस्लिम ब्रदरहुड' (भ्रातृत्व) का नारा अरब जगत से निकलकर एशिया और अफ्रीका के दूरस्थ भू-भागों में गूंजने लगा था। शेख परिवर्तन के समय की इस संवेदनशीलता को पहचान रहे थे। इसी कारण उन्होंने अफगानिस्तान की राजनीति में प्रभावी भूमिका निभाने का मन बना लिया था। संयोग से उन्हें इसके लिए ओसामा बिन लादेन के रूप में विस्फोटक संभावनाओं से भरा नौजवान मिल गया था।

यह 1980 के मध्य की बात है, जब एक इसराइली खुफिया एजेंसी शेख अब्दुल्ला आजम तथा ओसामा बिन लादेन का, जो कि खुफिया एजेंसियों के रिकॉर्डों में अब गुरु-चेले के रूप में दर्ज थे, पता लगाती हुई पाकिस्तान के पेशावर शहर पहुँची। यह वह समय था जब अफगानिस्तान में सोवियत फौजों ने अपना स्थायी डेरा जमा लिया था और सोवियत संघ से निपटने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान को अपना 'डमी एजेंट' बना लिया था। पेशावर सोवियत संघ से लड़ने और लड़ने की योजना बनाने का गढ़ था।

यही कारण था कि यहाँ एक से एक रहस्यमयी लोगों का जमावड़ा था। यहाँ सीआईए के एजेंट, पाकिस्तानी सेना के अधिकारी, पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के एजेंट, अफगानिस्तान से भागकर आए सत्ता और सोवियत विद्रोही लोग तथा दुनिया भर के इस्लामी संगठनों के लोग रह रहे थे। अपने 'इस्लामिक साल्वेशन फ्रंट' की गतिविधियों को जारी रखने के लिए ओसामा ने यहाँ शरणार्थी शिविरों में रहने वाले लोगों के लिए भवन, स्कूल, अस्पताल तथा सड़कें बनाने का काम अपने हाथ में लिया था।

चूँकि जब ओसामा ने अपनी आँखें खोलीं थीं तब तक भवन निर्माण का काम उसके परिवार का पुश्तैनी काम बन चुका था और फिर सिविल इंजीनियरिंग में उसने उच्च स्तरीय पढ़ाई भी की थी इसलिए इस क्षेत्र की तमाम दक्षता अब उसके काम आ रही थी। धार्मिक निष्ठा के कारण मेहनत, ईमानदारी और लगन की पूँजी उसके पास थी ही।

1984 तक ओसामा ने दुर्गम जगहों में सड़कें और भूमिगत रास्ते बनाने के मामले में अपनी श्रेष्ठता और कल्पनाशीलता का लोहा मनवा लिया था। अपनी लगन, निष्ठा और प्रतिभा के कारण ओसामा समूचे इस्लामिक क्रांतिवादियों की आँख का तारा बन गया था। लेकिन खुद ओसामा बिन लादेन अब अपने काम से ऊबने लगा था। उसे लगता था कि इस्लामिक व्यवस्था के लिए लड़ी जा रही लड़ाई में उसकी भूमिका दूसरे नंबर की है। अब वह राइफल उठाकर अग्रिम मोर्चे पर लड़ना चाहता था।

देखते ही देखते वह कब इंजीनियर से योद्धा बन बैठा, यह किसी और को तो क्या, खुद उसे भी पता नहीं चला। देखते ही देखते उसका शुमार सबसे खतरनाक योद्धाओं में होने लगा। रूसियों के लिए वह दुश्मन नंबर एक बन गया। ओसामा ने क्रूरता की पराकाष्ठा तक अपने युद्ध कौशल का प्रदर्शन किया। धीरे-धीरे आलम यह हो गया कि दुनिया की सबसे ज्यादा सुसज्जित रूसी सेना में ओसामा का भय व्याप्त होने लगा। उसे जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए सोवियत संघ ने भारी-भरकम इनामी राशि की घोषणा भी की। फिर भी रूसी सेनाओं यानी उसके हमदर्द अफगानियों को ओसामा की कभी एक झलक भी नहीं मिली।

सन्‌ 1988 आते-आते रूसी सेना हाँफने लगी और जिनेवा में संपन्न एक करार के तहत 1989 में वह वापस कूच करने लगी। रूसियों के घर वापस लौटने के बाद पेशावर में डेरा डाले मुजाहिदीन तथा अरब स्वयंसेवकों ने जलालाबाद की तरफ कूच किया। इनका उद्देश्य अफगानिस्तान के इस बड़े और प्राचीन शहर का नियंत्रण अपने हाथ में लेना था, जिससे काबुल में काबिज मास्को की कठपुतली डॉ. नजीबुल्लाह की सरकार को ध्वस्त किया जा सके।

यहीं से इतिहास ने एक बार फिर अपने रास्ते बदलने शुरू किए। जलालाबाद की सुरक्षा व्यवस्था बहुत ही मजबूत और लगभग अभेद्य थी। हालाँकि मुजाहिदीन अमेरिका और पाकिस्तान के वरदहस्त के कारण मनोबल से लबरेज थे, लेकिन युद्ध का व्यावहारिक पहलू यह था कि मुजाहिदीन मूली-गाजर की तरह कट रहे थे। वे लहर पर लहर के रूप में आगे बढ़ते और समाप्त हो जाते।

इस युद्ध में ओसामा की टुकड़ी को विमानतल पर आक्रमण करने का काम सौंपा गया था जिसमें वह कामयाब रही थी, लेकिन इस कामयाबी का दो वजहों से कोई खास महत्व नहीं बन सका। एक वजह तो यह थी कि मुजाहिदीनों की बाकी टुकड़ियाँ हर मोर्चे पर बुरी तरह से हार रही थीं और दूसरी वजह यह थी कि ओसामा खुद इस आक्रमण के दौरान काफी गंभीर रूप से घायल हो गया था।

इसी बीच ओसामा को एक बुरी खबर मिली। उसके गुरु शेख आजम तथा उनके दो पुत्रों की पेशावर में बम मारकर हत्या कर दी गई। अपने रहस्यमयी व्यक्तित्व के कारण शेख आजम ने इस्लामी दुनिया में ही अपने ढेर सारे दुश्मन पैदा कर लिए थे। इन्हीं दुश्मनों में से कुछ ने नमाज पढ़ने के लिए जाते समय शेख आजम तथा उनके बेटों की हत्या कर दी। इन हत्यारों का आज तक पता नहीं चल सका। अपने गुरु की इस निर्मम हत्या से लादेन अंदर तक हिल गया।

आमतौर पर उसे किसी की हत्या इस कदर नहीं झकझोरती थी जिस तरह वह अपने गुरु की हत्या से हिल उठा। इन हत्याओं ने उसे आत्म-आकलन करने के लिए मजबूर किया। यह सोचने और महसूसने के लिए बाध्य किया कि इस्लाम की प्रतिष्ठा के मिशन में लगे लोग भी बेईमान और विश्वासघाती हो सकते हैं।

इस सच ने लादेन को बहुत अंदर तक तोड़ा। हवाई अड्डे के मोर्चे पर लड़ते हुए घायल होने पर उसे कई हफ्तों तक बिस्तर में लेटना पड़ा। इन बिस्तर के दिनों में उसने इस बारे में जितना भी सोचा, उतना ही वह इस मिशन से विरक्त होता गया और अंततः मोर्चा छोड़कर घर वापस लौटने का फैसला कर लिया। घर वापस लौटकर उसने भवन बनाने के अपने पारिवारिक व्यवसाय में हाथ बंटाना शुरू कर दिया। हां, मकदब अल खिदमत की सेवाओं को जारी रखने के लिए उसने एक जनकल्याण संस्था की नींव जरूर डाली। इसमें उसके उन साथियों को जगह मिली जो अफगान युद्ध में उसके साथ थे। इस तरह लादेन ने अपने जीवन का तीसरा चरण शुरू किया। एक प्रतिभाशाली इंजीनियर और भवन निर्माता के रूप में...।

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