प्रेम की पराकाष्ठा

ND
आँखे खुली
और दिखा
विशाल आकाश
निश्छल व निराधार
देखता धरा को एकटक
दूर से ही देखकर
प्रसन्न होता नभ अपार



धरा की छटा पर
इठलाता वह बार-बार
जानता है वह कि
मिलन-क्षितिज है मिथ्या
फिर भी अपने प्रेम की
बरसाता है वह फुहार
सिंचिंत करने को धरा
बहाता वह अश्रुधार

स्पर्श करे या न करे
पर कवच बन
देता धरा को
अपना प्रेम अपार...

वेबदुनिया पर पढ़ें