प्यार में सौदा नहीं

- ज्योति जै
ND

प्रेम के कई रूप हैं, विभिन्न रिश्ते के साथ विभिन्न नाम। सत्य, निष्ठा, आस्था, भरोसा सब है, लेकिन लादा गया समझौता नहीं है प्रेम।

वे दोनों भारत की एक प्रतिष्ठित कंपनी में काम करते हैं। दोनों का सालाना पैकेज लाखों में है। दोनों विजातीय हैं, एक-दूसरे से प्रेम करते हैं और इस प्रेम की परिणिति विवाह के रूप में चाहते हैं। दोनों ने अपने परिजनों को इस बारे में जानकारी दी तो एक-दूजे के परिवार में आने-जाने तथा देखने-दिखाने के बाद दोनों की शादी तय हो गई। लेकिन सगाई की तारीख तय करने से ठीक पहले लड़के के माता-पिता ने लड़की के माता-पिता से भारी दहेज की माँग कर डाली, वो भी नकद राशि।

लड़की के माता-पिता समक्ष थे, शादी में भरपूर खर्चा भी करने वाले थे। लेकिन पढ़ी-लिखी, लाखों रुपए का पैकेज पाने वाली लड़की को ये गँवारा न हुआ और उसने लड़के से बात की। प्रेम का दम भरने वाले लड़के का जवाब हैरान कर देने वाला था। उसने कहा-'मैं इस बारे में अपने मम्मी-पापा से कोई बात नहीं कर सकता, ये उनका लुकआउट है। हाँ यदि तुम चाहो/कहो तो हम कोर्ट मैरिज कर सकते हैं।' लड़की स्तब्ध! क्या कदम उठाए? कोर्ट मैरिज के लिए हाँ कर ससुराल से नाता तोड़े या प्रेम को भूल जाए।'

यहाँ सवाल ये है कि क्या सचमुच ये प्रेम है? यदि है तो इसमें सौदेबाजी की जगह कहाँ है? यदि है तो कपूर की तरह उड़ क्यों गया? क्या लड़के ने प्रेम अपने माता-पिता से पूछकर किया था, जो बाकी बातें भी वे ही तय करेंगे? हालाँकि लड़की की कमाई इतनी थी कि वह साल भर की पगार में दहेज की राशि की पूर्ति कर देती।
  दोनों विजातीय हैं, एक-दूसरे से प्रेम करते हैं और इस प्रेम की परिणिति विवाह के रूप में चाहते हैं। दोनों ने अपने परिजनों को इस बारे में जानकारी दी तो एक-दूजे के परिवार में आने-जाने तथा देखने-दिखाने के बाद दोनों की शादी तय हो गई।      


खैर...बाद के एपिसोड में शुभचिंतकों (?) द्वारा अपनी राय प्रकट की जाने लगी। 'आजकल लड़कियाँ पढ़-लिखकर कमाने क्या लगीं, हवा में उड़ती हैं। भई! समझौता तो करना ही पड़ेगा। बराबरी का पढ़ा-लिखा लड़का मिल रहा है, एक ही कंपनी में काम करते हैं, फिर क्या दहेज के लिए नाक लगाना? भई! दे दुआ के नक्की करो और क्या?'

अब वापस लड़के पर आएँ तो यदि ये लोग कोर्ट मैरिज कर लेते हैं तो कलांतर में वह अवश्य ही लड़की को इस बात के लिए दोषी ठहराएगा कि उसकी वजह से वह अपने माँ-बाप से अलग हुआ। समाज, रिश्तेदारी में वे दोनों ही उचित सम्मान नहीं पा सकेंगे। जिसके कि वे हकदार हैं और यदि लड़की अपने माता-पिता से दहेज देने के लिए कहती है तो उसका सेल्फ रिस्पेक्ट भी हर्ट होगा। न वो इस गिल्टी से बाहर आ पाएगी जिसका असर निश्चय ही उनके दाम्पत्य पर विपरीत ही पड़ेगा।

दो पढ़े-लिखे प्रेम करने वाले योग्य युवाओं की ऐसी पेसोपेश, एक दुखदायी स्थिति है। प्रेम हो जाना निःसंदेह एक सुखद अनुभूति है। लेकिन वो सिर्फ दैहिक आकर्षण नहीं बल्कि एक दूसरे के सुख-दुःख का साझा निर्वहन है। प्रेम की परिणिति जब विवाह की वेदी तक जाती है तो दोनों की जिम्मेदारी है इसे सफल बनाना। कंपनी के बड़े फैसलों में भागीदारी निभाने वाला होनहार जब जिंदगी के फैसले में हस्तक्षेप न करे तो माँ-बाप के फैसले में कहीं न कहीं उसकी मौन स्वीकृति नजर आती है। ऐसे में बिगड़ते रिश्तों का ठीकरा लड़का की योग्यता के माथे फोड़ देना कहाँ तक उचित है?

स्त्री अपना प्रारंभ भली-भाँति जानती है। विवाहोरांत अधिकांश समझौते या एडजेस्टमेंट भी उसी के हिस्से आते हैं। लेकिन विवाह की वेदी पर आत्मसम्मान की आहूति देगी तो निश्चय ही उस अग्नि की आँच उसे निखारने के बजाए जीवन भर झुलसाती ही रहेगी। प्रेम के कई रूप हैं, विभिन्न रिश्ते के साथ विभिन्न नाम। सत्य, निष्ठा, आस्था, भरोसा सब है, लेकिन लादा गया समझौता नहीं है प्रेम।