रायपुर। चुनाव में हार-जीत के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन सत्ता विरोधी लहर भी महत्वपूर्ण फैक्टर होता है। इसकी चपेट में कई मंत्री व दिग्गज विधायक आ जाते हैं और उन्हें अपनी कुर्सी गँवानी पड़ती है। इसका उदाहरण पिछले विधानसभा चुनाव में साफ तौर पर दिखाई दिया। 90 विधायकों में से मात्र 31 ही दोबारा विधानसभा पहुँच पाए, जबकि 81 विधायकों ने भाग्य आजमाया था। यानी 50 विधायक चुनाव हार गए। नतीजा कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई और भाजपा बहुमत के साथ सरकार बनाने में सफल हो गई।
2008 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से 48 विधायक थे, जबकि भाजपा की संख्या 36 थी। बाद में भाजपा के दर्जनभर विधायक दलबदलकर कांग्रेस में शामिल हो गए और भाजपा की संख्या घटकर 24 रह गई।
2003 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जबरदस्त झटका लगा, जब उनके कई दिग्गज चुनाव हार गए। कांग्रेस ने 56 विधायकों को मैदान में उतारा था और इनमें 22 ही पुनः चुनकर आए। भाजपा से कांग्रेस प्रवेश करने वाले 12 विधायकों में से नौ को टिकट दिया, लेकिन उनमें तीन ही चुनाव जीत पाए। भाजपा ने 21 विधायकों को टिकट दिया और उनके 11 विधायक हार गए। जो 10 विधायक पुनः चुनाव जीतकर विधानसभा पहुँचे, उनमें बृजमोहन अग्रवाल, अमर अग्रवाल, अजय चंद्राकर, मेघाराम साहू, गणेशराम भगत, हेमचंद यादव व ननकीराम कंवर मंत्री बने।
बसपा के तीन विधायकों में पामगढ़ से दाऊराम रत्नाकर व सीपत से रामेश्वर खरे चुनाव लड़े और दोनों ही हार गए। सारंगढ़ से बसपा विधायक रहे छविलाल रात्रे को टिकट नहीं मिला। तानाखार से गोंगपा विधायक हीरासिंह मरकाम को भी हार का मुँह देखना पड़ा। दो निर्दलीय विधायकों में मारो से डीपी धृतलहरे कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़े और हार गए। सीतापुर के दूसरे निर्दलीय विधायक प्रो. गोपाल राम चुनाव मैदान में नहीं उतरे। मालखरौदा से कांग्रेस विधायक रहे चैन सिंह सामले ने राकांपा से चुनाव लड़ा और हार गए। खल्लारी से भाजपा विधायक रहे परेश बागबाहरा निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़े और उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा। (नईदुनिया)