तमिल समस्या और भारत : एक नजर

मंगलवार, 19 मार्च 2013 (19:06 IST)
करीब तीन दशकों से श्रीलंका एक कठिन गृहयुद्ध से जूझ रहा है और इसका एक बड़ा कारण प्रजातीय तनाव है। यह एक ऐसा मुद्‍दा है जिसे भारत को भी ना उगलते बनता है और ना ही निगलते बनता है। यह साधारण समझ की बात है कि श्रीलंका में जनसंख्या का काफी बड़ा भाग तमिलों का है जो कि काफी लम्बे समय से स्वायत्तता से लेकर स्वतंत्रता तक के लिए संघर्ष करते रहे हैं।

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जब भी श्रीलंका में अशांति होती है तो ये लोग समुद्री रास्ते से भागकर भारत के राज्य तमिलनाडु में आ जाते हैं और इस कारण ही श्रीलंका के तमिल न चाहते हुए भी देश की गृह और विदेश नीति का एक अहम कारक बन गए हैं। यह समस्या कितनी बड़ी रही है इसे इसी तथ्य से जाना जा सकता है कि इसके चलते भारत को न केवल परोक्ष रूप से सैन्य और राजनयिक हस्तक्षेप करना पड़ा है वरन भारत का एक प्रधानमंत्री भी इसी समस्या की भेंट चढ़ गया।

श्रीलंका में शांति स्थापित होने के संकेत मई 2009 में मिले थे, जब श्रीलंका सरकार को लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई अथवा तमिल टाइगर्स) के खिलाफ निर्णायक सैनिक लड़ाई में जीत हासिल हुई थी। इस लड़ाई में हजारों की संख्या में लोगों की मौत हुई और श्रीलंका के दोनों प्रमुख समुदायों (सिंहाला और तमिल) के बीच तनाव बना रहा है।

हालांकि अब तमिलों की ओर से हिंसात्मक संघर्ष करने की क्षमता खत्म हो गई, लेकिन श्रीलंका के तमिल अंतरराष्ट्रीय मंच पर श्रीलंका सरकार और इसकी सेना के युद्ध अपराध और तमिलों की दुर्दशा को प्रचारित करते नहीं थकते। हाल के समय में और इससे पहले भी ऐसे वीडियो और तस्वीरें अंतरराष्ट्रीय प्रचार का हिस्सा रही हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि श्रीलंका सरकार और सेना ने तमिलों को सामरिक और राजनयिक दृष्टि से झुकाने के लिए कोई भी हथकंडा नहीं छोड़ा। यह बाता काफी हद तक सच भी है।

कुछ समय पहले भी एक वीडियो आया था जिसमें श्रीलंका के विद्रोही नेता और लिट्‍टे के पमुख, वेलुपिल्‍लई प्रभाकरण के किशोर बेटे बालचंद्रन की गोलियों से भूनकर हत्या कर दी गई है। स्वाभाविक है कि इस तरह की बातें और प्रचार तमिलनाडु के तमिलों को आंदोलित करता है और श्रीलंका के तमिल न केवल राज्य वरन राष्ट्रीय राजनीति का एक प्रमुख मुद्‍दा बन गया हैं। तमिलनाडु में किसी भी दल की कोई भी सरकार रहे वह अगर श्रीलंकाई तमिलों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता नहीं दर्शाती है तो उसके राज्य की सत्ता में आने का मौका नहीं मिलता।

इसी का परिणाम है कि तमिलनाडु की राजनीति के दो दिग्गजों (डीएमके प्रमुख एम. करुणा‍निधि और एडीएमके की मुखिया जयललिता) के लिए तमिलों के अत्याचार वोट खींचने का सबसे बड़ा और कारगर मुद्दा है। बाकी जो छोटे-छोटे दल क्षेत्रीय दल हैं वे तो अपने उग्रवादी रवैए को दर्शाने में कोई कसर नहीं छोड़ते, लेकिन इन दो दलों और इनके नेताओं के लिए श्रीलंका की समस्या एक दुधारू गाय है, जिसे हर कोई दुहना चाहता है।

लेकिन इस समस्‍या को राजनयिक और राजनीतिक तरीके से सुलझाने में किसी की भी रुचि नहीं है। तमिलों के प्रति अपनी सहानुभूति दर्शाने में ये दोनों ही दल केन्द्र सरकार को न केवल ब्लैकमेल करते हैं वरन सही-गलत सभी तरह की मांगों को मनवाने में सफल भी हो जाते है। कुछ समय पहले जब संयुक्त राष्ट्र में श्रीलंका के खिलाफ मतदान करने का मौका आया तो डीएमके प्रमुख करुणानिधि ने सरकार की बांहें मरोड़ने का मौका नहीं छोड़ा।

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ऐसे मौके दोनों दलों को समय-समय पर मिलते रहे हैं और ये दोनों ही इसका राजनीतिक लाभ उठाते रहे हैं। अब स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि विदेश नीति से संबंध मसले भी यही लोग सुलझाने लगे हैं। उदाहरण से समझा जा सकता है कि विदेश नीति पर केन्द्र सरकार फैसला करती है, उस पर भी क्षेत्रीय दलों का दबाव बन गया है। इसके लिए हम कमजोर केन्द्र सरकार और केन्द्र में गठबंधन वाली राजनीति को भले ही कोसें, लेकिन आज यह बात साफ है कि कोई भी अखिल भारतीय दल (चाहे कांग्रेस हो या भाजपा) अपने बूते पर केन्द्र में सरकार बनाने की हैसियत नहीं रखती है। इस कारण से क्षेत्रीय क्षत्रपों, करुणानिधि, जयललिता, मुलायमसिंह यादव, मायावती, ममता बनर्जी, प्रकाशसिंह बादल, शरद पवार को ‍इतनी राजनीतिक ताकत मिल गई है कि वे केन्द्र सरकार को अपने इशारों पर नचाने की हैसियत रखते हैं।

इसी तरह की एक उठापटक मंगलवार को देखने को मिली जब डीएमके ने तमिलो के मुद्दे पर केन्द्र सरकार से अपना समर्थन वापस लेने की घोषणा कर दी। इसका अर्थ यह नहीं है कि डीएमके अपने फैसले पर कायम ही रहेगी। केन्द्र सरकार के संकटमोचक डीएमके नेताओं से उनकी माँगों को लेकर उसी के अनुरूप कार्रवाई कर सकते हैं और उन्हें फिर से सरकार में शामिल रहकर या बाहर रहकर समर्थन देने के लिए मना सकते हैं।

उल्लेखनीय है कि समर्थन लेने या देने के पीछे किसी भी पार्टी के कोई सिद्धांत आड़े नहीं आते हैं और सरकार को समर्थन देने का मामला है तो इसे दल के नेताओं को खुश रहकर किया जा सकता है। केन्द्र में आज से कई वर्षों तक इसी तरह से सरकारें चलती रही हैं और लगता है कि सरकार अब गिरी, तब गिरी, लेकिन कहीं से कोई सुपरमैन संकटमोचक बनकर स्थिति को संभाल लेता है और सरकार पर आया संकट टल जाता है। इस बार भी ऐसा ही कुछ होना है। अंतत: डीएमके नेताओं की कुछ मांगें मान ली जाएंगी और कुछ ले-देकर उन्‍हें मना लिया जाएगा।

ठीक इसी तरह से जब अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत को तमिलों के दवाब में संयुक्त राष्ट्र में श्रीलंका के खिलाफ प्रस्तावों का समर्थन करना पड़ता है। यह स्थिति तब और गंभीर हो जाती है जब भारत के पड़ोसी, पाकिस्तान और चीन, इस प्रस्तावों का समर्थन करते हैं और भारत को मजबूरी में उनके साथ खड़े दिखना पड़ता है। जबकि भारत की भलाई इसी में है कि वह अपने एक भरोसेमंद सहयोगी देश श्रीलंका को नाराज न करे क्योंकि चीन और पाकिस्तान, समुद्र में चारों ओर से भारत को घेरने में लगे हैं, ऐसे में हमारे लिए श्रीलंका का समर्थन बहुत अहम हो जाता है लेकिन देश का नेतृत्व करने वाली सरकार जब क्षेत्रीय कारणों से ‍विदेश नीति के फैसले करती हो तो यह अपने पैर पर कुल्हाड़ी नहीं मारती वरन कुल्हाड़ी पर ही अपना पैर पटक रही होती है।

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