जब गांधीजी ने सूट-बूट छोड़ धोती अपनाई

Webdunia
सोमवार, 2 अक्टूबर 2017 (11:09 IST)
- रूचिरा गुप्ता
मोहनदास करमचंद गांधी ने 1888 में क़ानून के एक छात्र के रूप में इंग्लैंड में सूट पहना था। इसके 33 साल बाद 1921 में भारत के मदुरई में जब सिर्फ़ धोती में वो दिखें तो इस दरम्यां एक दिलचस्प बात हुई थी जो बहुत कम लोगों को पता होगा। यह बात है बिहार के चंपारण ज़िले की जहां पहली बार भारत में उन्होंने सत्याग्रह का सफल प्रयोग किया था।
 
गांधी जी चंपारण के मोतिहारी स्टेशन पर 15 अप्रैल 1917 को तीन बजे दोपहर में उतरे थे। वो वहां के किसानों से मिले। वहां के किसानों को अंग्रेज़ हुक्मरान नील की खेती के लिए मजबूर करते थे। इस वजह से वो चावल या दूसरे अनाज की खेती नहीं कर पाते थे।
 
हज़ारों भूखे, बीमार और कमज़ोर हो चुके किसान गांधी को अपना दुख-दर्द सुनाने के लिए इकट्ठा हुए थे। इनमें से आधी औरतें थीं। ये औरतें घूंघट और और पर्दे में गांधी से मुखातिब थीं।
 
जब चंपारण पहुंचे गांधी
औरतों ने अपने ऊपर हो रहे जुल्म की कहानी उन्हें सुनाई। उन्होंने बताया कि कैसे उन्हें पानी लेने से रोका जाता है, उन्हें शौच के लिए एक ख़ास समय ही दिया जाता है। बच्चों को पढ़ाई-लिखाई से दूर रखा जाता है। उन्हें अंग्रेज़ फैक्ट्री मालिकों के नौकरों और मिडवाइफ के तौर पर काम करना होता है।
 
उन लोगों ने गांधी जी को बताया कि इसके बदले उन्हें एक जोड़ी कपड़ा दिया जाता है। उनमें से कुछ को अंग्रेजों के लिए दिन-रात यौन दासी के रूप में उपलब्ध रहना पड़ता है। 
 
गांधी जी जब चंपारण पहुंचे तब वो कठियावाड़ी पोशाक पहने हुए थे। इसमें ऊपर एक शर्ट, नीचे एक धोती, एक घड़ी, एक सफेद गमछा, चमड़े का जूता और एक टोपी थी। ये सब कपड़े या तो भारतीय मीलों में बने हुई थी या फिर हाथ से बुनी हुए थीं। जब गांधी जी ने सुना कि नील फैक्ट्रियों के मालिक निम्न जाति के औरतों और मर्दों को जूते नहीं पहनने देते हैं तो उन्होंने तुरंत जूते पहनने बंद कर दिए।
 
गांधी जी ने 16 और 18 अप्रैल 1917 के बीच चार ख़त लिखे। दो उन्होंने ब्रितानी अधिकारियों को लिखे जिसमें उन्होंने ब्रितानी आदेश को नहीं मानने की मंशा जाहिर की थी। ब्रितानी अधिकारियों ने उन्हें चंपारण छोड़ने का आदेश दिया था।
 
इनमें से दो ख़त उन्होंने अपने दोस्त को लिखे थे जिसमें उन्होंने चंपारण के किसानों की दयनीय हालत के बारे में लिखा था और मदद मांगी थी। उन्होंने ख़ासतौर पर महिलाओं की जरूरत पर बल दिया था जो स्कूल, आश्रम चलाने में मदद कर सकें। इसके अलावा बयानों और कोर्ट की गिरफ़्तारियों के रिकॉर्ड संभाल कर रख सकें।
 
सत्याग्रह का दूसरा चरण
8 नवंबर 1917 को गांधीजी ने सत्याग्रह का दूसरा चरण शुरू किया था। वो अपने साथ काम कर रहे कार्यकर्ताओं को लेकर चंपारण पहुंचें। इनमें से छह महिलाएं थीं। अवंतिका बाई, उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी, मनीबाई पारीख, आनंदीबाई, श्रीयुत दिवाकर (वीमेंस यूनिवर्सिटी ऑफ़ पूना की रजिस्ट्रार) का नाम इन महिलाओं में शामिल था।
 
इन लोगों ने तीन स्कूल यहां शुरू किए। हिंदी और उर्दू में उन्हें लड़कियों और औरतों की पढ़ाई शुरू हुई। इसके साथ-साथ खेती और बुनाई का काम भी उन्हें सिखाया गया। लोगों को कुंओ और नालियों को साफ-सुथरा रखने के लिए प्रशिक्षित किया गया। गांव की सड़कों को भी सबने मिलकर साफ किया।
 
गांधी जी ने कस्तूरबा को कहा कि वो खेती करने वाली औरतों को हर रोज़़ नहाने और साफ-सुथरा रहने की बात समझाए। कस्तूरबा जब औरतों के बीच गईं तो उन औरतों में से एक ने कहा, "बा, आप मेरे घर की हालत देखिए। आपको कोई सूटकेस या अलमारी दिखता है जो कपड़ों से भरा हुआ हो? मेरे पास केवल एक यही एक साड़ी है जो मैंने पहन रखी है। आप ही बताओ बा, मैं कैसे इसे साफ करूं और इसे साफ करने के बाद मैं क्या पहनूंगी? आप महात्मा जी से कहो कि मुझे दूसरी साड़ी दिलवा दे ताकि मैं हर रोज इसे धो सकूं।"
 
यह सुनकर गांधी जी ने अपना चोगा बा को दे दिया था उस औरत को देने के लिए और इसके बाद से ही उन्होंने चोगा ओढ़ना बंद कर दिया था। सत्य को लेकर गांधीजी के प्रयोग और उनके कपड़ों के ज़रिए इसकी अभिव्यक्ति अगले चार सालों तक ऐसे ही चली जब तक कि उन्होंने लंगोट या घूटनों तक लंबी धोती पहनना नहीं शुरू कर दिया।
 
पगड़ी पहनना छोड़ा
1918 में जब वो अहमदाबाद में करखाना मज़दूरों की लड़ाई में शरीक हुए तो उन्होंने देखा कि उनकी पगड़ी में जितने कपड़े लगते है, उसमें 'कम से कम चार लोगों का तन ढका जा सकता है।' उन्होंने उस वक्त पगड़ी पहनना छोड़ दिया था।
 
31 अगस्त 1920 को खेड़ा में किसानों के सत्याग्रह के दौरान गांधी जी ने खादी को लेकर प्रतिज्ञा ली ताकि किसानों को कपास की खेती के लिए मजबूर ना किया जा सके। मैनचेस्टर के मिलों में कपास पहुंचाने के लिए किसानों को इसकी खेती के लिए मजबूर किया जाता था।
 
उन्होंने प्रण लेते हुए कहा था, "आज के बाद से मैं ज़िंदगी भर हाथ से बनाए हुए खादी के कपड़ों का इस्तेमाल करूंगा।"
1921 में गांधीजी मद्रास से मदुरई जाती हुई ट्रेन में भीड़ से मुखातिब होते हैं। वो कहते हैं, "उस भीड़ में बिना किसी अपवाद के हर कोई विदेशी कपड़ों में मौजूद था। मैंने उनसे खादी पहनने का आग्रह किया। उन्होंने सिर हिलाते हुए कहा कि हम इतने गरीब है कि खादी नहीं खरीद पाएंगे।"
 
धोती अपनाई
गांधीजी कहते हैं, "मैंने इस तर्क के पीछे की सच्चाई को महसूस किया। मेरे पास बनियान, टोपी और नीचे तक धोती थी। ये पहनावा अधूरी सच्चाई बयां करती थी जहां लाखों लोग निर्वस्त्र रहने के लिए मजबूर थे। चार इंच की लंगोट के लिए जद्दोजहद करने वाले लोगों की नंगी पिंडलियां कठोर सच्चाई बयां कर रही थी। मैं उन्हें क्या जवाब दे सकता था जब तक कि मैं ख़ुद उनकी पंक्ति में आकर नहीं खड़ा हो सकता हूं तो। मदुरई में हुई सभा के बाद अगली सुबह से कपड़े छोड़कर मैंने ख़ुद को उनके साथ खड़ा किया।"
 
छोटी सी धोती और शॉल विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए हो रहे सत्याग्रह का प्रतीक बन गया। इसने ग़रीबों के साथ गांधीजी की एकजुटता के साथ-साथ यह भी दिखाया कि सम्राज्यवाद ने कैसे भारत को कंगाल बना दिया था। चंपारण में हुए पहले सत्याग्रह के तीस सालों के बाद भारत आख़िरकार 1947 में आज़ाद हुआ। यह दो सौ सालों की गुलामी का अंत था।
 
पिछली बार मैं मोतिहारी गई थी तो यह देखकर खुश हुई कि वहां नील का पौधा मुझे गांधी संग्राहलय के अलावा कहीं और देखने को नहीं मिला।

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