इजराइल और अमेरिका : आखिर इस सदाबहार दोस्ती का राज क्या है?

BBC Hindi
मंगलवार, 7 नवंबर 2023 (08:06 IST)
दीपक मंडल, बीबीसी संवाददाता
7 अक्टूबर को हमास के हमले के चंद दिन बाद ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने तेल अवीव पहुंच कर इजराइल के प्रति अमेरिका की एकजुटता जाहिर कर दी थी। उन्होंने हमास को ‘शैतान’ करार दिया था और कहा था कि अमेरिका हर हाल में इजराइल के साथ है। उसे हर मदद मिलेगी।
 
इसके बाद नवंबर की शुरुआत में अमेरिकी संसद के हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव ने इजराइल के लिए 14.5 अरब डॉलर की सैन्य सहायता के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। गाजा में सीजफायर को लेकर भी अमेरिका इजराइल के रुख का समर्थन करता दिख रहा है।
 
अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने रविवार को कहा कि सीजफायर से गाजा में हमास को ही फायदा पहुंचेगा। इजराइल के प्रति अमेरिका का ये समर्थन कोई नई बात नहीं है। अमेरिका पहले भी इजराइल का समर्थक रहा है और आज भी वो उसके साथ मजबूती से खड़ा दिखता है। आखिर इसकी वजह क्या है?
 
इजराइल और अमेरिका के बेहतरीन रिश्तों का इतिहास क्या है और आखिर वो कौन से राजनीतिक, कूटनीतिक और आर्थिक समीकरण हैं, जिनकी वजह से अमेरिका हमेशा इजराइल के हर कदम को सही करार देता है। आइए जानते हैं।
 
अमेरिकी राष्ट्रपति हेनरी ट्रुमैन दुनिया के पहले ऐसे राजनेता थे, जिन्होंने सबसे पहले इजराइल को मान्यता दी थी।
 
अमेरिका और इजराइल के संबंध कितने पुराने हैं?
ऐतिहासिक फिलिस्तीन के अंदर अलग यहूदी होमलैंड के अस्तित्व में आने से पहले से ही अमेरिका इस विचार का समर्थन करता आया है।
 
2 नवंबर 1917 को बालफोर घोषणापत्र में फिलिस्तीन में अलग यहूदी होमलैंड का ऐलान किया गया था। उस वक्त ब्रिटेन ने इसे तत्काल समर्थन दिया था।
 
इसके ठीक दो साल बाद 3 मार्च 1919 को तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने मित्र राष्ट्रों की ओर से यहूदी होमलैंड की मांग का समर्थन कर दिया। बाद में 1922 और फिर 1944 में अमेरिकी संसद ने बालफोर घोषणापत्र के समर्थन में प्रस्ताव पारित किए।
 
1948 में इजराइल के अस्तित्व में आने के साथ ही अमेरिका उसे मान्यता देने वाला पहला देश बना। इजराइल के अस्तित्व के ऐलान के महज 11 मिनटों के भीतर उसे अमेरिकी मान्यता मिल गई। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रुमैन दुनिया के पहले ऐसे नेता थे, जिन्होंने सबसे पहले इजराइल को मान्यता दी।
 
इजराइल को इतनी जल्दी अमेरिकी मान्यता क्यों मिल गई?
दरअसल ये द्वितीय विश्वयुद्ध के ठीक बाद का दौर था जब अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध ने आकार लेना शुरू कर दिया था।
 
उस दौरान अरब देश अपने तेल भंडारों और समुद्री रास्तों (स्वेज नहर का मार्ग ऐसा व्यापारिक रास्ता था, जिसके जरिये बड़े पैमाने पर अंतरराष्ट्रीय व्यापार होता था) की वजह से इलाक में दो वैश्विक शक्तियों के शक्ति परीक्षण का अखाड़ा बन गया था।
 
यूरोपीय ताकतें कमजोर हो रही थीं और अमेरिका अरब जगत में सत्ता संघर्ष का बड़ा बिचौलिया बन कर उभर रहा था। तेल रिजर्व को लेकर अरब जगत में अमेरिका के हित बढ़ गए थे। लिहाजा उसे अरब देशों को नियंत्रित करने के लिए इजराइल की जरूरत थी।
 
यही वजह थी कि अमेरिका ने इजराइल को मान्यता देने और एक सैन्य ताकत में उसे बढ़ावा देने में कोई देर नहीं की।
 
क्या शुरू से ही इजराइल और अमेरिका के संबंध मधुर रहे हैं?
हालांकि अमेरिका ने इजराइल के अस्तित्व में आने से पहले ही इसे अपना समर्थन दे दिया था। लेकिन अतीत में दोनों के रिश्तों में खटास भी दिखी है। स्वेज नहर को लेकर जब इजराइल ने फ्रांस और ब्रिटेन के साथ मिलकर लड़ाई छेड़ दी थी तो अमेरिका का आइजनहावर प्रशासन उससे बेहद नाराज हो गया था।
 
अमेरिकी राष्ट्रपति ने इजराइल को धमकी दी कि अगर उसने इस लड़ाई के दौरान कब्जा किए गए इलाकों को खाली नहीं किया तो उसकी मदद रोक दी जाएगी।
 
सोवियत यूनियन ने भी धमकी दी कि इजराइल पीछे नहीं हटा तो उस पर मिसाइलों से हमला किया जाएगा। दबाव में इजराइल को इन इलाकों से पीछे हटना पड़ा।
 
इसी तरह 1960 के दशक में अमेरिका और इजराइल के रिश्तों में तनातनी दिखी। उस वक्त अमेरिका का कैनेडी प्रशासन इजराइल के गुप्त परमाणु कार्यक्रमों को लेकर चिंतित था।
 
हालांकि 1967 में जब मात्र छह दिनों की लड़ाई में इजराइल ने जॉर्डन, सीरिया और मिस्त्र को हरा कर अरब जगत के एक बड़े भू-भाग पर कब्जा कर लिया तो इस यहूदी देश को देखने का अमेरिकी नज़रिया पूरी तरह बदल गया। इसे तीसरा अरब इजराइल युद्ध भी कहा जाता है।
 
दरअसल उस वक्त अमेरिका वियतनाम युद्ध में उलझा हुआ था और इजराइल ने बगैर उसकी किसी बड़ी मदद के अरब देशों को हरा दिया था।
 
इजराइल ने मात्र छह दिनों में ये लड़ाई जीती थी। एक और अहम बात ये थी कि उस समय इजराइल के हाथों हारने वाले दो देश मिस्र और सीरिया सोवियत संघ के दोस्त थे।
 
इजराइल की इसी जीत के बाद अमेरिका ने उसे अरब जगत में सोवियत संघ के ख़िलाफ़ एक स्थायी पार्टनर के तौर पर देखना शुरू किया था। 1973 की लड़ाई में भी इजराइल ने मिस्र और सीरिया को हराया था।
 
बराक ओबामा और नेतन्याहू के बीच क्या थे मतभेद?
पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और इजराइल के मौजूदा प्रधानमंत्री के बीच मतभेदों की वजह से थोड़े समय के लिए अमेरिका और इजराइल के संबंध तनावपूर्ण दिखे थे।
 
दोनों में ईरान से न्यूक्लियर डील को लेकर टकराव दिखा था। नेतन्याहू ने रिपबल्किन पार्टी के बहुमत वाली यूएस कांग्रेस में जाकर अमेरिका की ईरान नीति को लेकर बराक ओबामा की तीखी आलोचना की थी।
 
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे बड़ी ख़बर माना गया। ओबामा और नेतन्याहू के बीच मतभेद की ख़बरें आईं और लगा कि यहां से अमेरिका इजराइल को लेकर अपने पारंपरिक रुख में थोड़ा बदलाव ला सकता है।
 
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ओबामा ने अपने आठ साल के शासन काल में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इजराइल के ख़िलाफ़ लाए गए एक को छोड़ कर सारे प्रस्तावों को वीटो कर दिया था। अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में इसराल के लिए 38 अरब डॉलर के पैकेज को भी मंजूरी दे दी थी।
 
बाइडन ने भी हाल में इजराइल में न्यायिक प्रणाली में बदलाव की नेतन्याहू की कोशिश की पहले आलोचना की थी लेकिन 7 अक्टूबर को हमास के हमले के बाद वो पूरी तरह इजराइली प्रधानमंत्री के साथ खड़े दिखे हैं।
 
अमेरिका-इजराइल रिश्तों का मौजूदा हाल क्या है?
इस समय अमेरिका इजराइल के असाधारण सहयोगी के तौर पर काम कर रहा है। अमेरिका इजराइल को बिना शर्त वित्तीय, सैन्य और राजनीतिक मदद देता है।
 
इजराइल एक अघोषित परमाणु ताकत है। लेकिन अमेरिकी संरक्षण की वजह से उसे कभी किसी जांच का सामना नहीं करना पड़ा है।
 
अमेरिका सबसे ज्यादा आर्थिक सहयोग इजराइल को ही देता है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अब तक उसे 158 अरब डॉलर की अमेरिकी मदद मिल चुकी है। हर साल उसे 3.8 अरब डॉलर की अमेरिकी मदद मिलती है, जो इजराइल के कुल रक्षा बजट का लगभग 16 फीसदी है।
 
इजराइल अमेरिका का सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार भी है। दोनों के बीच हर साल 50 अरब डॉलर का कारोबार होता है।
 
इजराइल अमेरिका की मदद से एक बहुत बड़ा रक्षा उद्योग खड़ा कर चुका है। अपने डिफेंस मैन्यूफैक्चरिंग बेस की वजह से ही वो आज दुनिया भर में हथियार और सैन्य साजो-सामान का दसवां सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है।
 
1972 के बाद से अब तक संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अमेरिका इजराइल के ख़िलाफ़ लाए गए 50 प्रस्तावों को गिरा चुका है।
 
अमेरिका इजराइल का हमेशा समर्थन क्यों करता है?
इसकी एक प्रमुख वजह है अमेरिका की नज़र में अरब दुनिया की उथल-पुथल भरी राजनीति में इजराइल की रणनीतिक अहमियत।
 
शीत युद्ध के दौरान अमेरिका ने अरब जगत में सोवियत संघ के असर के ख़िलाफ़ इजराइल को एक अहम मोहरे के तौर पर इस्तेमाल किया।
 
शीत युद्ध के बाद तो अमेरिका पश्चिम एशिया में और ज्यादा सक्रिय हो गया और इजराइल, सऊदी अरब और मिस्र इसके अहम सहयोगी बन गए।
 
अमेरिका की इजराइल समर्थक नीति के लिए अमेरिकी लोगों की राय, वहां की चुनावी राजनीति और ताकतवर इजराइल लॉबी भी जिम्मेदार है। ये सब मिल कर अमेरिका की इजराइल नीति को दिशा देने में अहम भूमिका निभाते हैं।
 
अमेरिका में इजराइल समर्थक लॉबी
अमेरिकी संसद में रिपबल्किन और डेमोक्रेटिक दोनों पार्टी के अधिकतर सांसद शुरू से ही इजराइल के समर्थक रहे हैं। अमेरिकी यहूदी और एवेन्जिकल ईसाई दोनों लॉबी अमेरिकी राजनीति में इजराइल को लेकर काफी सक्रिय हैं।
 
रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक दोनों दलों के लिए इनकी काफी अहमियत हैं और दोनों इजराइल समर्थक हैं।
 
अमेरिका में कई लॉबी इजराइल समर्थक नीतियां बनाने में मददगार हैं। ऐसी ही एक ताकतवर लॉबी है अमेरिकन इजराइल पब्लिक अफेयर्स कमेटी यानी एआईपीएसी। इसकी वार्षिक बैठकों में इजराइल और अमेरिका के राष्ट्रपति, सीनेटर और प्रधानमंत्री मेहमान के तौर पर शामिल होते हैं। इजराइल समर्थक संगठन रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक दोनों दलों को वित्तीय मदद देते हैं।
 
साल 2020 में अमेरिका में इजराइल समर्थक संगठनों ने 30 अरब डॉलर जुटाए थे, जिसका 63 फीसदी हिस्सा डेमोक्रेट्स और बाकी रिपब्लिकन सांसदों को दिया गया।
 
अमेरिका में क्या फिलिस्तीन समर्थक लॉबी भी है?
पिछले कुछ सालों के दौरान अमेरिकी डेमोक्रेटिक पार्टी में बर्नी सैंडर्स और एलिज़ाबेथ वारेन जैसे सीनेटर फिलिस्तीन के समर्थक बन कर उभरे हैं।
 
दोनों 2020 के राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवारों की दौड़ में शामिल थे। बर्नी और वारेन जैसे सीनेटरों का कहना है कि इजराइल को दी जाने वाली आर्थिक मदद फिलिस्तीनियों के मानवाधिकारों की रक्षा जैसी शर्तों से जोड़ दी जानी चाहिए।
 
अमेरिकी संसद के हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव में एलेक्जेंड्रिया ओकासियो-कॉर्टेज़, इलहान उमर, अयाना प्रेस्ली और राशिदा तालेब जैसे लोग फिलिस्तीन के लिए मुखर आवाज़ बन कर उभरे हैं।
 
हाल के सालों में अमेरिकी जनता में फिलिस्तीनी आंदोलन के प्रति समर्थक बढ़ा है। गैलप के एक सर्वे के मुताबिक़ इस साल फरवरी में इसमें हिस्सा लेने वाले 25 फीसदी लोगों ने फिलिस्तीनी आंदोलन के प्रति सहानुभूति जताई थी। पांच साल पहले ये 19 फीसदी था।
 
लेकिन अभी भी अमेरिका में जनमत इजराइल के समर्थन में है। इस सर्वे में शामिल 58 फीसदी अमेरिकी इजराइल के हितों के साथ खड़े दिखे। वहीं 75 फीसदी अमेरीकियों ने इजराइल को पॉजिटिव रेटिंग दी।

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